कोई गाली बची है क्या या बीप से ही काम चलाना पड़ेगा?

मुझे एक फिल्म बनानी है ,पर मामला अभी नाम पर ही अटक गया है. आप कहेंगे 'नाम मै क्या रखा है'. पर ऐसा नहीं है जनाब.वर्ना क्यों एक सफल निर्मार्ता सिर्फ 'अ' से शुरू होने वाला नाम देकर इतनी सफल फिल्मे दे पाते और एक और सफल निर्मार्ता तीन K  वाले अक्षर ही अपनी फिल्मो के नाम मै डालते. और भला क्यों कई सफल निर्मार्ता अपनी फिल्मों के नाम की 'स्पेल्लिंग' इस कदर बदल डालते है कि  'अंगरेजी ' की टांग ही टूट जाती है.

भय्या सबके अपने अपने विश्वास है और अपनी अपनी मान्यता. मैं जिस पंडित पर विश्वास करता हूँ उन्होंने मुझे कहा है कि फिल्म का नाम एक धांसू सी गाली ही होना चाहिए अगर हिट होना है तो.  


खाली पंडित जी के विश्वास की बात नहीं है. मैंने खुद इस बात पर रिसर्च की तो देखा कि पंडित जी की बात में वजन है. अब चाहे 'कमीने' की सफलता को देखलो यफिर याद कीजिये 'लोफर','जंगली','जानवर','बेईमान','लफंगे',ढोंगी','चालबाज'   की दुआधार सफलताओ को.अगर फिल्म का नाम ही चटपटी गाली से शुरू हो तो लोगों को कितना मजा मिलता है चटखारे लेकर बातें करने का. इस सफलता के मन्त्र को अब में नहीं छोड़ने वाला .

पर लगता है हम्मरे फिल्म निर्मार्ता भी इस बात से बेखबर नहीं. कोई गाली छोडी ही कहाँ उन लोगो ने जिस पर फिल्म न बनी हो.अब बची हैं तो सिर्फ मां-बहन वाली गलियां जिस पर मेरे जैसा दुस्साहसी तो शायद फिल्म बना जाये पर हमारा 'सेंसर' इतना जागरूक हो गया है कि नाम कि जगह 'बीप' सुना देगा.    
 कोई गाली बची है क्या या बीप से ही काम चलाना पड़ेगा?

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