पुरानी आदतों की कैद में सड़ता हूँ
नए को स्वीकारने से झिझकता हूँ
अपनी सोच जाहिर करने से डरता हूँ
और अपने ही डरों को साकार करता हूँ
जो चल रहा है उस ढर्रे के टूटने से बचता हूँ
इसके लिए अपनी ही भावनाओं को खून करता हूँ
हर घड़ी मरता हूँ
मैं भी कमाल करता हूँ
No comments:
Post a Comment