द्रष्टि भ्रम


ये इंसानी फिदरत भी अजीब है ,अपने काम की जिंदा आवाज़ इसे सुनाई नहीं पडती और बेकार के शोरगुल पर इसका ध्यान बना रहता है. सच और झूठ की पहचान मे यहाँ अक्सर गलती ही होती है और इन्साफ हंमेशा देर से ही होता है जैसे पुलिस मौका –ए-वारदात पर देर से ही पहुँचती है.

अपनी बात के समर्थन मे इतिहास के पन्नों से कुछ उदहारण पेश करता हूँ –

करीब दो हज़ार साल पहले जीसस क्राइस्ट नाम के एक मरियल से आदमी ने जगह जगह घूम घूम कर कुछ बातें कहने की कोशिश की जिसको सबने अनसुना कर दिया. यही नहीं उसे साधारण गुंडे बदमाशों की श्रेणी मे रखते हुए एक बर्बर तरीके से बदन पर कीलें गाड़ कर क्रोस पर लटका दिया और तिल तिल मरने के लिए छोड़ दिया. उसके मरने के बाद आज करोडो लोग उन बातों को अमूल्य और पवित्र बताते हुए उनका अनुसरण करने का दम भरते है. क्रष्ण हों या कबीर, नानक हों या गांधी ,सभी युग पुरुषों की कथा का कथानक लगभग एक जैसा ही है.

करीब पांच सौ साल पहले स्पेन मे क्रिस्टोफर कोलंबस नाम का नाविक बार बार सबसे यह गुहार लगा रहा था कि अगर उसके साहसिक अभियान की योजना को अमल मे लाने के लिए धन और मदद दी जाय तो वह सोने की चिड़िया माने जाने वाले देश ‘इंडिया’ तक पहुँच सकता है, तब कोई उसकी मदद के लिए आगे नहीं आ रहा था . आज ‘अमेरिका’ के इस खोजकर्ता की तारीफ में हर तरफ कसीदे पढ़े जाते हैं और उसे एक आइकन माना जाता है.

करीब चार सौ साल पहले गलीलियो नामके एक पगले से सनकी आदमी से इटली में सार्वजानिक रूप से अपमानित कर के जबरदस्ती यह कहलवाया गया कि वो जो अपने वैज्ञानिक प्रयोगों के दम पर यह कहता फिरता है कि ‘धरती सूर्य के चारों ओर घूमती है’ वह गलत है और सच यह है कि सूर्य धरती के चक्कर लगता है क्योंकि चर्च के किसी ठेकेदार ने कभी ऐसा कुछ माना था और चर्च जो एक महान संस्था है,वह गलत नहीं हो सकती ,इंसान जरूर गलत हो सकता है. उससे थोड़े ही दिनों पहले ब्रुनो नाम के एक शख्स को तो लगभग इसी तरह के आरोपों पर जिन्दा जला कर मारा गया था. अब जब निर्विवादित रूप से यह सिद्ध हो चूका है कि गलीलियो के निष्कर्ष सही थे हम उसे महान वैज्ञानिक बताते नहीं थकते.

करीब दो सौ साल पहले भाप इंजन के आविष्कर्ता जेम्स वाट और करीब सौ साल पहले हवाई जहाज के आविष्कारक राइट भाइयों के साथ भी कुछ ऐसा ही सलूक हुआ था.

इतिहास के पन्नों को खंगाले तो ऐसे न जाने कितने उदहारण मिल जायेंगे . मेरा इरादा उन सब को गिनाने का नहीं है. मैं तो एक खास इंसानी फिदरत की तरफ आपका ध्यान ले जाने की कोशिश भर कर रहा हूँ. झूठो की भीड़ से हम सच्चे को अलग कर देखने मे जरा सी देर कर देते हैं जो अक्सर घातक होती है. या फिर जान बूझ कर हम बने बनाये ढर्रे पर चलने मे सहज महसूस करते है और किसी नए विचार को तब तक मान्यता नहीं देना चाहते जब तक वह अपने दम से ही संघर्ष कर के स्थापित न हो जाय? घर के बड़े बूढों की सीख को भी हम अकसर उनके जीते जी नजरअंदाज़ करते है पर उनके न रहने पर उनकी तस्वीर पर माला चढ़ा कर उन्हें इज्ज़त देते है.

क्या इस तरक्की और टेक्नोलोजी के दौर में हम कभी इस काबिल हो पाएंगे कि युग पुरुषों को उनके जीते जी इज्ज़त देना सीख लें?

बदलती तस्वीर



फिल्म ‘पीपली लाइव’ में इलेक्ट्रोनिक मीडिया के चेनल्स की “आपसी होड़ ,कवरेज की पहल के लिए अंधी दौड़ और बेतुके व फ़िज़ूल की बातों को लेकर असल मुद्दे से दूर भटक जाना” आदि बातों के बारे में बताया था जो कि एक सटीक और दिलचस्प विवरण था.

पर इस पक्ष का एक पहलू और भी है. इसी इलेक्ट्रोनिक मीडिया की वजह से कल तक जो मुद्दे ( जैसे दहेज प्रथा,यौन शोषण ,समलैंगिकता आदि ) अखबारों और मैगजीनों के कालम में दम तोड़ा करते थे या फिर फिल्मों में परोक्ष रूप से चरित्रों के माध्यम से दिखाए जाते थे और लोग सुन –देख कर उनका मजा भर ले लेते थे ,अब उनपर वास्तविक इंसानों/ परिस्थितियों के बीच खुल कर चर्चा कर सकते है.

मोबाईल ,टीवी, लेपटॉप और इस तरह की डिवाइस जहाँ एक तरफ हमें अपना गुलाम बना रही हैं वहीं विचार और भावनाओं के तलपर हमें अनगिनत लोगों से जोडने की ताकत भी रखती है. बस एक फोन उठाया और अपनी मर्जी के चेनल /शो से जुड गए और कह डाली अपने मन की बात सीधे सीधे ,कोई झंझट नहीं. सुनने वाला अगर हजारों मील दूर भी हो तो कोई टेंशन नहीं. और फिर आप अपनी समस्या बता कर विशेषज्ञों की राय भी जान सकते है कुछ पल और कुछ रुपये खर्च कर. अगर कुछ करने का हौसला बुलंद है तो पहुँच जाइये अपने मनपसंद शो के ऑडीशन पर और लग जाइये लाइन में – इस बात से फर्क नहीं पडता कि आप खोली से निकल कर आये हैं या हवेली से.

पर अभिव्यक्ति की इस स्वतंत्रता को क्या हम कायम भी रख पाएंगे ? या फिर कुछ प्रभावशाली लोग इस पर कब्ज़ा कर इसे सिर्फ एक धन्धा बना कर छोड़ेंगे ? अंग्रेजों के जाने के बाद काली चमड़ी वाले अफसर, नेता और पूंजीपति जिस तरह से व्यवहार कर रहे हैं क्या यहाँ भी उसकी पुनरावृत्ति नहीं होगी ?

शायद वक्त ही दे सके इस का जबाब .

काली दाल


‘खेल खतम पैसा हज़म’. ये कहावत हमने बचपन में सुनी थी, अब कोमन वेल्थ गेम्स के रूप में देख भी ली. सत्तर हज़ार करोड़ रुपये फूंक कर हमने बड़ी अच्छी दीवाली मना ली और देसी- विदेशियों को खुश भी कर दिया. मीडिया द्वारा भ्रष्टाचार के आरोप लगाने पर जो व्यक्ति एक दूसरे पर काम की जिम्मेदारी डाल रहे थे वही बढ चढ़ कर अब खुद इसके सफल होने का क्रेडिट लेते नहीं थकते.


भ्रष्टाचार का मुद्दा बड़ी चतुराई से जनता के हाथों से निकाल कर जाँच कमेटियों के हवाले कर दिया गया है जो हमेशा की तरह राजनैतिक और सरकारी व्यवस्था के आगे घुटने टेक कर घुट घुट कर दम तोड़ देगा .मोटी कमाई करने वाली बड़ी मछलियाँ हमेशा की तरह उस कमाई का कुछ हिस्सा चढ़ा कर किसी न किसी तरह बच निकालेंगे और हमेशा की तरह किसी छोटी मछली को ढूंढ कर उसे ‘बली का बकरा’ बना देंगी . बदइंतजामी और बेईमानी का ठीकरा तो किसी प्यादे के सर पर ही फूटेगा .

सत्तर हजार करोड़ रुपयों से कितने गांवों/ शहरों /लोगों की तकदीर बदल सकती थी ये बात अब ‘नक्कारखाने में तूती’ की आवाज़ की तरह दब जायेगी. आंकडो के मायाजाल में सच हमेशा की तरह कहीं छुप सा जायेगा.

निसंदेह अंततोगत्वा हमने विदेशी मेहमानों का कुछ दिनों के लिए दिल खुश कर दिया पर ‘घर फूंक कर दीवाली करने की जरूरत भला क्या थी ये कौन किसे समझायेगा? हजारों करोड़ रुपयों का खर्च ,प्रधान मंत्री का व्यक्तिगत हस्तक्षेप और भारतीय सेना के सराहनीय योगदान की बदोलत हम सफल तो हो गए पर इसमे जश्न मानाने जैसा क्या है ?

भ्रष्टाचार के नाम पर अब तक आम जनता इतना कुछ देख चुकी है कि अब कितनी ही बड़ी खबर से उसे सनसनी नहीं होती. फिर भी कुछ लोगों के दिमाग में कीडा होता है ये देखने और दिखाने का कि ‘दाल में क्या काला है’ इन बेचारों को शायद यह अहसास नहीं कि यहाँ तो पूरी दाल ही काली है. अब पूरी दाल को तो ये जानने के बाद भी फेंक नहीं सकते कि वह काली है ,नहीं तो खायेंगे क्या?

और फिर गोरी दाल कहीं से मिल भी जाय तो हमारे पाचन तंत्र को शायद रास न आये. किसी ने ठीक ही कहा है-‘ गली गली में बेईमान , फिर भी मेरा भारत महान’.

ई ऍम आइ का मकडजाल

उधारपति जी मेरे सहपाठी रह चुके हैं. मेधावी और कर्मठ रहे हैं. जब हमारी मित्र मंडली के अधिकांश लोग पढ़ाई पूरी करके इधर उधर नौकरी के लिए खाक छान रहे थे, उन्होंने वकालत में अपनी धाक जमा कर अच्छी कमाई भी शुरू कर ली थी. कई सालों बाद आज अचानक उनसे भेंट हुई. उनकी (आर्थिक) हालत देख कर आश्चर्य हुआ. कई ई ऍम आइ के बोझ तले उन्हें दबे देख ‘पीपली लाइव’ का वो गाना याद आ गया , ‘सखी सैयां तों खूब कमात हैं , महंगाई डायन खाए जात है ...’

उधारपति जी अकेले ही उधारी मैं जिंदगी काट कर अपना नाम सार्थक नही कर रहे, उन जैसे लोग मिलना आजकल आम हो गया है. उदारीकरण, प्लास्टिक मनी और इ- बैंकिंग ने जहाँ एक ओर हमारी जिन्दगी को सरल बनाया है वहीं उधार के दलदल में भी धकेल दिया है.

उधार के दम पर अपनी इच्छा पूरी करते वक्त छोटी सी इंस्टालमेंट को मेनेज करना आसान लगता है पर लंबे समय तक इन छोटी छोटी इंस्टालमेंट को झेल पाने का बूता अच्छे अच्छों में नहीं दिखता. उधार की मार से बचने के लिए दूसरा उधार लेकर हम इस मकड जाल में फंसते ही जाते है.

मैंने कहीं एक प्रयोग के बारे में पढ़ा था जिसमे किसी ने जब एक मेंढक को उबलते पानी में डाला तों वह एकदम उछल कर जान बचाने के लिए बाहर कूद पड़ा. पर जब उसी मेंढक को जब पानी की कढाई में डाल कर धीरे – धीरे पानी गर्म किया गया तों उसने बाहर निकालने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और अपनी मौत की तरफ आराम से सरकता गया और अंत में उबलकर मर गया. शायद मरने से पहले उसने बड़े हाथ पैर पटके होंगे बाहर निकालने के लिए ,पर तब तक वह इतना कमजोर हो चुका था कि बाहर तक छलांग मरने की जान ही उसमें नहीं बची थी.

उधार देने वाली संस्थाये इसी गुरु मन्त्र का इस्तेमाल करके आम आदमी को खून चूस डालते हैं और उसे पता भी नहीं चलता. सदियों से सूदखोर महाजन गांवों और कस्बे में गरीबों को ठग रहे थे पर अब ये बीमारी शहरों तक जा पहुँची है और पढ़े लिखे और संपन्न लोगोंको भी नहीं बक्श्ती. अब तो इसमें सब कुछ आधुनिक कम्पूटर और इंटरनेट के माध्यम से होता है.

पर इसमें जितना हाथ उधार देने वाली संस्थाओं का है उतना ही दोष उन लोगों का है जो लालच,अज्ञान और भावावेश में आकर अपनी क्षमता से कहीं अधिक का उधार उठाने का प्रयास करते हैं और फिर फिसलते ही जाते हैं.

मैं तीन तरह के लोगों का जिक्र करना चाहूँगा जिनमे से किसी न किसी (एक) वर्ग में आप जरूर होंगे-

१. आप पर अभी कोई उधार नहीं है – यकीन मानिये ,आप चंद गिने चुने भाग्यशाली लोगों में है जो आज के दौर में मुश्किल से मिलते है. अगर कोई विशेष दबाब या मजबूरी न हो तो अपने इस वी आई पी स्टेटस को हाथ से न जाने दें. अगर किसी मजबूरी के चलते उधार लेना ही पड़े तो इससे जुड़े हर पक्ष ,हर पहलू की जाँच कर ले. आपकी जानकारी के दायरे में जो लोग उस तरह का उधार ले चुके हैं उनसे आत्मीयता से खुल कर बातें करे और मन में उठ रहे हर सवाल का हल जानने की कोशिश करें चाहे इसके लिए आपको किसी प्रोफेशनल की सेवाएं क्यो ना लेनी पड़े या कुछ खर्चा ही क्यो ना करना पड़े. उधार की रकम उतनी ही रखें जितनी आपकी वास्तविक जरूरत है और जितना आप आसानी से वापस कर सकते हैं (अपनी अन्य जरूरत पूरी करने के बाद). इस बात को अधिक महत्त्व न दें कि आपको उधार कितना मिल सकता है.

२. आप पर उधार है पर आप आसानी से उसे चुका रहे हैं – आप भी भाग्यशाली है कि उधार को चुकाने में आपको परेशानी का सामना नहीं करना पडता. पर अगर उधार लंबे समय के लिए है तो कम से कम आपके पास ३ से ६ महीने तक की ई ऍम आइ चुकाने और बिना आमदनी के घर चलाने के पैसे इमरजेंसी के लिए अलग रखे होने चाहिए और इन्हें किसी भी और कारण के लिए नहीं इस्तेमाल करना चाहिए. अनिश्चितताओ के इस दौर में न तो कोई नोकरी स्थाई रही है और न ही कोई ऐसा व्यापार जहाँ हमेशा निश्चित आमदनी की गारंटी हो. किसी नए उधार को जहाँ तक संभव हो टालने की कोशिश करें. अगर संभव हो तो किसी ऐसी बचत योजना में सिलसिलेवार निवेश पर विचार करे जिससे आपको आयकर में भी राहत मिले. रकम चाहे छोटी ही क्यों न हो पर जैसे इंस्टालमेंट में हम आसानी से उधार चुका सकते हैं वैसे ही छोटी छोटी इंस्टालमेंट जोडकर एक बड़ी रकम बचा भी सकते हैं बस जरा सा धीरज और हिम्मत चाहिए पहल करने की.

३. आप पर काफी उधार है और उसी को चुकाने के चक्कर में जिंदगी बेमजा हो गयी है –आप सही मायने में एक आम आदमी हैं. हममे से अधिकतर लोग एसी वर्ग में आते हैं. अभिमन्यु की तरह आप उधार के इस चक्रव्यूह में घुस तो गए हैं और जैसे तैसे टिके भी हुए हैं, पर बाहर निकालने का कोई रास्ता आपको नज़र नहीं आ रहा. पर हिम्मत न हारे , आप २१ वीं सदी में है, महाभारत युग में नहीं. आज का अभिमन्यू अर्जुन से वीडियो चेटिंग करके रास्ता पूंछ सकता है और जरूरत होने पर खुद अर्जुन को चार्टर्ड प्लेन से बुलाया जा भी सकता है. सही जानकारी हासिल करना अब इतना मुश्किल नहीं.



सबसे पहले अपनी स्थिति का सही आकलन करें. अगर आंकडे और गणित आपको परेशान करते हों तो किसी ऐसे मित्र या सहयोगी को ढूंढ कर साथ बैठे जो इन सब में आपका मददगार साबित हो सके. इन सवालों के जबाब लिख कर रखें-



आप पर कुल कितना उधार है ? इसमे कितना ब्याज है और कितना मूलधन ?

उसकी ई ऍम आइ कितनी बनाती है ?

आपको घर चलाने के लिए कितना पैसा चाहिए? क्या इसमें कोई कमी की गुंजाईश है ?

क्या आप अपनी आमदनी को बढ़ाने के किसी विकल्प पर काम कर सकते है ?



अगर आप अपनी मौजूदा आमदनी में से घर खर्च और ई ऍम आइ दोनों का बोझ नहीं उठा सकते तो इन विकल्पों पर भी विचार करें-



क्या आपके पास कोई ऐसी चीज़ है जिसे गिरवी रख कर या बेच कर कुछ रकम जुटाई जा सकती है? आजकल शेयर,सोना,गहने,जमीन,गाड़ी वगेहरा को बेचना या गिरवी रखना इतना आसान हो गया है कि कोई भी इसे आसानी से कर सकता है .दलालो के चक्कर में पडने कि बजाय किसी प्रतिष्टित संसथान की मदद लें और सौदे से पहले सारी बातें साफ़ साफ़ कर लें.

क्या आप किसी मित्र या संबंधी से बिना अपने रिश्तों में कडवाहट लाए कुछ रकम निश्चित अवधि के लिए मांग सकते हैं? इस तरह आपका ब्याज का बोझ कुछ हल्का हो जायेगा पर इसको भी बैंक लोन की तरह ही चुकाने का प्रयास करे चाहे यह वापस मांगने का तकाजा हो या न हो.



उधार चुकाने के लिए उधार लेना कोई स्वस्थ रास्ता नहीं है पर अगर और कोई विकल्प नज़र न आये तो इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए और इस लोन का फार्म भरने से पहले से पहले ध्यान से पढ़ ले और ‘शर्ते लागू है’ जैसे गोल मोल बातों का स्पष्टीकरण लेकर अपनी तसल्ली कर ले. आजकल लोन बड़ी आसानी से मिल जाते है पर उनको चुकाने का अनुभव बड़ा चुनोतीपूर्ण और झंझट भरा होता है.



उधार की दलदल में अगर आप फंस ही गए हैं तो हाथ पैर तो मारने ही पड़ेगे पर घबराकर मारे गए हाथ पैर जहाँ आपको और अंदर घसीटेंगे वहीं सोच समझ कर किया गया प्रयास आपको किनारे ला सकता है. ऐसे में अगर कोई बाहरी सहायता मिल जाय तो क्या कहने.

चित्र साभार 
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मशीनी दुनिया के बौने लोग


मेरे एक मित्र के पास बिजली विभाग से नोटिस आया कि वो बिजली के बकाया बिल का भुगतान करें अन्यथा उनका कन्नेक्शन काट दिया जायेगा. मजेदार बात ये थी कि बकाया रकम के आगे संख्या दिखाई गयी थी वो थी 'शून्य' . ये एक कम्पूटर जनित पत्र था जिसमे भेजने वाले के हस्ताक्षर नहीं थे वर्ना उस महानुभाव को पकड़ा भी जा सकता था जिसने ऐसा हास्यास्पद नोटिस बनाया था.

कमपूटर जी जिन्होंने ये नोटिस बनाया था उनको ढूँढने के चक्कर में मित्र महोदय को न जाने किस किस के आफिस में चक्कर लगाने पड़े . 'आफिस-आफिस' टी वी सीरियल की तरह वे जहाँ भी गए सबने किसी न किसी और से मिलने की सलाह दी पर उनकी समस्या जस की तस बनी रही और नोटिस आना जारी रहे.

किसी सयाने ने उन्हें एक उपाय बताया जिससे उनकी समस्या बड़ी आसानी से दूर हो गयी. उन्होंने एक चैक बिजली विभाग के नाम बनाया और उस पर जो रकम लिखी वो थी 'शून्य रुपये मात्र'. इस चैक को जमा करते ही न सिर्फ उनके यहाँ नोटिस आना बंद हो गए वरन कम्पूटर जी का एक पत्र भी आया जिसमे लिखा था 'बिजली का बिल चुकाने के लिए धन्यवाद'.

आज की इस मशीनी दुनिया में अधिकतर फैसले कम्पूटर में दर्ज डाटा के आधार पर उस सोफ्टवेयर के लोजिक से होते हैं जिसकी समझ उसे बनानेवाले की उस वक्त की जानकारी और बुद्धि पर होती है. 

नादान कम्पूटर तो मशीन मात्र है.  उसमे न तो इंसानी समझ की शक्ति है और न ही नयी समस्याओं और हालातों के आने पर उनसे जूझने का जज्बा. ये सिर्फ 'विश्वास ' और 'आशा' के भरोसे ही बड़ी बड़ी योजनाओं को अंजाम देने का इंसानी माद्दा भी नहीं रखता.

पर इस मशीनी चकाचोंध  में हम इंसान अपना ही कद छोटा कर डालेंगे?

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बाल की खाल







ये बाल भी बड़ी विचित्र चीज़ है.



एक तो जगह के साथ इसका नाम बदल जाता है – सर पर बाल, माथे पर भों ,होठों पर मूंछ, गलों पर दाढी और ...........



दूसरे, ये कोई मृत पदार्थ नहीं है, शरीर का एक जीवित हिस्सा है पर आप इन पर बेरहमी से कैंची चला सकते हैं ,और आपको बिलकुल भी दर्द नहीं होगा. बल्कि हजारों लोगों की तो रोजी – रोटी ही इसी धंधे से चलती है.



तीसरे शरीर के बाकी हिस्सों की बढ़त तो वयस्क होने पर रुक सी जाती है पर बाल कितने भी ब्रद्ध होने पर भी लगातार बेलगाम बढ़ते रहते है.



इन विचित्रताओं के कारण ही शायरों ने इन पर हजारों शेर और गाने लिख डाले है और हसीनाएं (कुछ हसीन भी) इस पर अपना ढेर सा वक्त खर्च कर डालती है. फिल्मों में तो हेयर स्टाइलिश आदमी का रूप ही बदल देते है.



बाल अगर झडने लगे तो हमें इनकी कमी का असली अहसास होता है. जब हम इनको पूरी तरह से खो देते हैं तो अक्कासर दूसरों के मजाक का पात्र बन बैठते हैं. अकसर दुख: के समय (जैसे किसी बड़े बूडे की मौत) इन्हें शरीर से विदा करने की परंपरा देखी जा सकती है.



बाल बड़ी बेशर्मी से शरीर के किसी भी अंग पर उगने की ताकत रखते हैं पर कुछ लोगों से इनकी ये बढ़त देखी नहीं जाती और वो उन्हें जब मौका लगे उड़ाने की फ़िराक में रहते है. बहुत सी कम्पनी तो बाल उड़ाने के यंत्र और दवाईयाँ बना कर ही करोडो रुपये कमा रही हैं.



कई समझदार लोग इनकी देखभाल में कोई कसर नहीं छोडते और फिर अच्छे बालों के कारण ही अपनी पहचान बनाते हैं. सिख जाति में बाल कटना वर्जित है तो उसका इनाम उन्हें ये मिलता है कि उन्हें हेलमेट खरीदने पर पैसे खर्च नहीं करने पड़ते.



हमें सर पर तो बालों को ताज बना कर बिठाना मंज़ूर है पर गालों से इनकी नज़दीकियाँ नागवार गुज़रती है इसलिए शेविंग को अकसर लोगो ने अपनी दिनचर्या का हिस्सा बना डाला है है और चिकने गालों (सुंदरियाँ 'गालों' की जगह 'टाँगें' पढ़े ) को सुंदरता का पैमाना.





बाल की खाल निकालने वालों की इस दुनिया में पहले ही से कमी नहीं और आज एक और (मैं भी) शामिल हो चला है.


चित्र साभार http://www.freedigitalphotos.net/

बैक सीट ड्राइविंग




मेरी पत्नी को ड्राइविंग नहीं आती, न ही उनकी उसको सीखने में कोई दिलचस्पी है. पर कार की पिछली सीट (कभी कभी अगली को–ड्राइवर सीट, जब कार में हम दोनों ही होते हैं) पर बैठ कर कार चलाने का जो उनका जज्बा है वो कबीले तारीफ है. लगता है भगवान ने उन्हें कोई अद्रश्य रिमोट कंट्रोलर दिया है जिससे कार का सञ्चालन आसान हो जाता है.



जब मैं कार चला रहा होता हूँ और श्रीमतीजी भी साथ हों तो न तो मैं एफ ऍम रेडियो का लुत्फ़ ले पता हूँ और न ही ट्रेफिक का शोर मुझे सुनायी पडता है. इसका कारण यह है कि मुझे अपने कानो का एंटीना एक लगातार चलने वाली आवाज की धारा पर फोकस करना होता है जो देवी जी के मुंह से निकल रही होते है. इस धारा में आदेश ,आलोचना, हिदायत, टिप्पणी और बात चीत सभी के अंश बड़ी खूबसूरती से पिरोये होते हैं .ये किसी टीवी चेनल के मनोरंजक सीरियल से कम नहीं होता मगर मेरी मजबूरी इतनी है कि इस सीरियल को मैं अपनी मर्जी से बदल नहीं सकता और ना ही इसे बंद कर सकता हूँ (मुझमें इतनी हिम्मत कहाँ?). मुझे ये प्रोग्राम न सिर्फ झेलना पडता है बल्कि खेलना भी पडता है और बीच बीच में पूंछे हर सवाल पर मुझे उम्मीद के मुताबिक जबाब भी देना होता. मै तो लगता है कि KBC (कौन बनेगा करोडपति) की हॉट सीट पर बैठा निरीह कंटेस्टेंट हूँ .

हमारे देश में खुली सड़क पर कर चलाना किसी अभियान से कम नहीं होता. कितनी ही समस्याओं से हमें जूझना पढ़ सकता है. रोड में गढ्ढे होना ,ट्राफिक साइन का न होना और होने पर भी अधिकतर वाहन चालकों का उनकी परवाह न करना ,घंटो जाम लगा रहना आदि तो तो मामूली समस्याए हैं ही, कभी कभी इनमें से कुछ समस्याए इतनी घातक और विकराल रूप धारण कर लेती है कि जान पर बन आती है जैसे हाई वे पर तेज स्पीड कार के सामने अचानक किसी प्राणी (मनुष्य या भेंस, कुत्ता,बकरी आदि) का प्रकट हो जाना, नशे की झोंक मे गाड़ी हांकते किसी वहन चालक से सामना हो जाना, मैन होल या नाले का मुंह का खुला होना आदि .



ऐसी किसी समस्या के अचानक आ जाने पर मुझे अपने ध्यान और दिमाग को उस पर केंद्रित करने की जरूरत होती है. पर शीमती जी ऐसे मोके पर मुझसे मेरा ये हक भी छीन लेती है और ऐसी भयानक चीख पुकार करती हैं कि उनके इस होरर शो पर मेरा ध्यान अपने आप ही चला जाता है और सामने आयी समस्या से कुछ हट जाता है . और अगर ऐसे में कुछ गलती हो जाय तो मेरी आलोचनाओ का पिटारा वही खुल जाता है जो आगे के सफर को और दूभर कर देता है.



श्रीमती जी के मुताबिक मै एक अच्छा ड्राइवर नहीं हूँ.



क्या आपकी अर्धांगिनी भी ऐसा ही सोचती हैं? या अगर आप महिला हैं तो आप भी अपने पति के साथ ऐसा ही सलूक करती है? या अगर आप विवाहित नहीं हैं तो क्या अपने कहीं ऐसा नजारा देखा है?



ऐसी समस्या विवाहित जोड़ो के साथ हो ऐसा नहीं है. ये तो किसी भी जोड़े के साथ हो सकती है चाहे वो बिज़निस पार्टनर हों या दोस्त .



पता नहीं मुझे अपने इस कष्ट से कब मुक्ति मिलेगी ?



जब देश का प्रधान मंत्री के पद पर बैठा व्यक्ति इस यातना को झेल सकता है तो मै तो एक अदना सा आदमी हूँ!

कुछ तो लोग कहेंगे ....




बचपन में एक कथा सुनी थी शिव, पार्वती और उनके वाहन नंदी बैल के बारे में.

कथा यूँ है की एक बार ये तीनो धरती पर मानव रूप में हालात  का जायजा लेने के लिए आए.

एक गांव से तीनो जा रहे थे तो कुछ लोगों ने उन्हें देख कर कहना शुरू कर दिया ,’देखो कैसे लोग है,साथ में वाहन (यानी नंदी बैल) है पर फिर भी पैदल चल रहे है.’. उनकी बातें सुनकर दोनों लोग (शिव-पार्वती) नंदी पर सवार हो गए.  कुछ ही दूर चले होंगे की उन्हें फिर लोगों के बोल सुने पड़े, ‘अरे कैसे जालिम लोग है, बूढ़े बैल पर दो- दो लोग सवार है, बेचारे को मार ही डालेंगे. चलो औरत सवारी करे तो ठीक, मर्द को बैल पर बैठने की क्या जरूरत.’

इस पर शिवजी ने सोचा –शायद इनकी बात में दम है और वो बैल से उतर कर पैदल चलने लगे. थोड़ी देर में फिर उन्हें लोगों के कमेन्ट मिलाना शुरू हो गए (लोग और कुछ दे न सके पर कमेन्ट जरूर मुफ्त में देकर आनंदित होते है वो भी खूब सारे).’ देखो कितनी बेशर्म औरत है, बूढा पति पैदल चल रहा है और खुद बैल पर बैठी है.क्या जमाना आ गया है !’ ये साब सुनकर पार्वती उतर गयी और जिद करके शिव को बैल पर बैठा दिया. अब कमेन्ट सुनाने की बारी शिव की थी,’कैसा मर्द है, नाजुक औरत को पैदल चला रहा है और खुद सवारी कर रहा है. घोर कलयुग आ गया है .’ भोले शिव को क्रोध आ गया और उन्होंने नंदी बैल को अपने कंधे पर उठा लिया. पर लोगो को चैन कहाँ! बोलने लगे,’ कैसा पागल इंसान है,बैल की सवारी करने की बजाय उसकी सवारी बन रहा है.’

कहानी का सार ये कि आपको अपने फैसले लोगों की बातों में ही आकर नहीं कर देने चाहिए. आप सबको किसी भी हाल में खुश नहीं कर सकते.

लोग अगर आपकी आलोचना कर रहे है तो आपका प्रयास उन्हें खुश करने का नहीं होना चाहिए, जिससे वे आलोचना करना बंद कर दें. इन लोगों को धन्यवाद करके इसको एक मौके कि तरह देखना चाहिए और हमारा प्रयास अपने फैसले को एकबार फिर जांचने का होना चाहिए. फैसला अगर खरा होगा तो हर बार जांचने पर सही ही दिखाई देगा. अपना फैसला लेने वाले आप ही अंतिम व्यक्ति होने चाहिए .अपनी यह ताकत दूसरों के हाथो में दे देना तो मूर्खता होगी.  अपने बारे में सबसे सही जानकारी तो आपको होनी चाहिए और अपने फैसलों को निभाना भी तो आपको ही है.

लोगों का क्या है. उन्हे आपकी जरूरतों और मजबूरियों का क्या गुमान ! वो तो कुछ भी कह गुजरेंगे. किसी शायर ने क्या खूब कहा है, ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगो का काम है कहना..’

कुछ तो गुंजाइश रखें

एक बार मुझे अपने एक मित्र के साथ रेल से कहीं  जाना जाना था. हमेशा की तरह मैं रेल छूटने के समय से करीब आधा घंटा पहले स्टेशन पहुँच गया. इस बार इस कार्यवाही को अंजाम देने में मुझे काफी मशक्कत करनी पडी क्योंकि मित्र महाशय बड़े आरामखोर थे . मुझे उन्हें झिझोडकर जगाना पड़ा, नाश्ता उनके मुंह  में ठूसना पड़ा और लगभग खींच कर उन्हें घर से बाहर तक लाना पड़ा.
स्टेशन पहुँच कर मित्र महोदय बोले,' यार, क्यों इतनी जल्दी मचा रखी थी? अभी आधा घंटा बचा है.में तो हर बार ठीक समय पर ही स्टेशन पहुंचता हूँ. इतना समय स्टेशन पर क्यूँ बर्बाद करना.'
मैंने जबाब दिया, 'भाई ,अगर रास्ते मै कुछ परेशानी आ जाती तो? कुछ तो गुंजाइश रखनी थी.'
मित्र ने मुस्कुराते हुए सवाल किया, आज तक जिन्दगी में रेल पकड़ते वक्त कितनी बार तुम्हारे रास्ते में कोई परेशानी आई ?
मैंने सोच कर जबाब दिया, ४ या ५ बार.'
उसने फिर पूंछा ,आज तक कुल कितनी बार रेल में यात्रा की होगी तुमने?'
मैंने मन ही मन हिसाब लगाया - पिछले ३० सालों से हर साल ५० बार तो यात्रा हो ही जाती होगी .
'१५०० बार', मैंने कहा.
इस पर मित्र महाशय बोले,' तुमने ७५० घंटे (१५०० बार के लिए हर बार आधा घंटे के सिसाब से) का समय जो करीब एक महीने से भी ज्यादा होता है उसे बर्बाद कर डाला महज ४/५ बार की परेशानी से बचने के लिए. ये बेबकूफी नहीं है क्या?
उस वक्त तो में उन्हें कोई उत्तर न दे सका पर बाद में मैंने इस गणित पर विचार किया.
किसी भी प्रोजक्ट की योजना बनाते समय और उसे अंजाम देते समय भी इंजीनियरिंग  की गणनओं  के बाद भी कुछ तो गुंजाइश रखी ही जाती है.
पर सवाल यह है कि ये गुंजाइश कितनी हो?

मेरा अपना मानना है कि यह इस बात पर निर्भर करता है कि उस घटना के न होने की दशा में नुकसान कितना है.
अगर इससे होने वाला नुकसान मेरे लिए मायने रखता है तो निश्चित ही मैं गुंजाइश की मात्रा अधिक रखूँगा  चाहे  इसके  लिए मुझे किसी परेशानी का सामना क्यों न करना पड़े.

गणित जरूरी है पर जीवन को गणित मै बंधा नहीं जा सकता.

मेरे कहने का यह मतलब हरगिज यह नहीं है कि मेरा मित्र गलत था. बस उसके गुंजायश रखने की मात्रा मेरे से बहुत कम थी.जहाँ में ३० मिनट का गुंजायश रखने  का आदी हूँ वहां उसके लिए एक या दो मिनट बहुत थे. इसका कारण था उसका मुझसे कहीं अमीर होना. मैं जानता था कि अगर उसकी रेल छुट भी गयी तो उसे बहुत कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला. वो टेक्सी या हवाई जहाज में बैठ कर समय से पहुँच ही जायेगा.

पर मैं गरीब इतना खर्चा नहीं उठा सकता.
इसी लिए तो इतनी गुंजायश रखता हूँ.

हो तैयार ?

..सुदीप के पिताजी को रात में २ बजे  अचानक दिल का दौरा पड़ा, उस बक्त उसके दिमाग में सिटी होस्पीटल का ही नाम सुझा जो उसके घर से १५ किलोमीटर दूर था. उसकी मोटर-साईकिल  में पेट्रोल  नहीं था और  रिक्शा  ऑटो  मिल नहीं रहे थे.  तीन चार पड़ोसियों को जगाया तब जाकर गाड़ी का इंतजाम हो पाया.  पर अस्पताल पहुँचते पहुँचते लगभग एक घंटा लग गया जिससे उनकी हालत काफी बिगड़ गयी.

..रमा  किसी काम से शहर से बाहर गयी थी जहाँ ट्रेन में उसका पर्स  चोरी हो गया. वह अपने एटीऍम कार्ड को तुरंत ब्लोक करना चाहती थी पर उसके पास बैंक का हेल्प-लाइन नंबर नहीं था. पूंछताछ करने पर कुछ देर में एक यात्री से ये नंबर भी मिल गया पर उसे न तो अपने  एटीऍम कार्ड का और न ही अपना बैंक खाता  नंबर याद था. उसे कार्ड ब्लोक करने में काफी मुश्किल का सामना करना पड़ा.

..रीता अपनी सहेलियों के साथ पिकनिक मनाने  शहर से दूर एक जगह गयी थी जहाँ से वापस आते हुए  कुछ वक्त  की   देरी हो गयी और सड़क पर ट्रेफिक बहुत कम हो गया. ऐसे में उसकी कर का टायर पंक्चर हो गया. जब तक घर से उसका भाई वहां पहुंचा उसमे एक घंटे से ज्यादा बीत गया और इस दौरान लड़कियाँ असहाय और परेशान रही.

..अहमद का मोबाईल फ़ोन चोरी हो गया.  उसने इसका बिल भी संभल कर नहीं रखा था, न ही उसे उसके मोडल का नंबर ठीक से याद था. इससे उसको थाने में चोरी की रिपोर्ट करने में भी काफी परेशानी का सामना करना पड़ा.

इन सब वाकियों  से ये साफ़ है  कि जब मुसीबत आती है तो उस थोड़े से वक्त में छोटी छोटी बातें भी बड़ी समस्या  बन  जाती हैं.  असमंजस और बदहवासी की हालत में दिमाग भी ठीक से काम नहीं करता और सीधी सादी बात भी नहीं सूझती .

आज के युग में (पैसे लेकर ही सही) किसी भी स्थिति में मदद करने वालों की कमी नहीं, पर मुसीबत के समय हम उन तक पहुँच ही नहीं पाते क्योंकि इसके लिए हम तैयार ही नहीं होते.

इस तैयारी के लिए किसी बड़े आयोजन या धन की जरूरत नहीं. एक आम आदमी अपने सीमित साधनों से अपने आपको अधिकतर विपदाओं से निपटने के लिए कम से कम सही सूचनाओ से तो लैस कर ही सकता है. और इसमें सहायक हो सकता है हमारा मोबाईल फोन.

इस बारे में कुछ सुझाव ये है-

१. अपने घर के आस पास के २/३ अस्पतालों के फोन नंबर अपने मोबाईल में सेव करके रखे जिससे अगर एम्बुलैंस    बुलानी हो या फोन पर डाक्टर से बात करनी हो तो देरी न हो.
२. अगर आप कार ,स्कूटर या बाइक रखते हो तो २/३ मेकेनिक के फोन नंबर भी सेव कर लें  ताकि  उन्हें  जल्दी  बुला सके.
३.पास के किसी टेक्सी / ऑटो स्टैंड का नंबर सेव करके रखें. या फिर दो तीन टेक्सी /ऑटो वाले  ड्राईवर  जिनकी  सेवाएं अपने कभी ली हों उनका मोबाईल नंबर ही सेव कर रखें ताकि मुसीबत के समय आपका समय बर्बाद न हो.
४. कुछ खास नंबर अपने मोबाईल में जरूर सेव करें जैसे -
    (अ) अपनी मेडीक्लैम या इन्शुरन्स  पालिसी  नंबर और इनके प्रोवाइडर  का हेल्प लाइन  फोन नंबर
    (ब) अपना बैंक अकाउंट नंबर ,ए टी एम् नंबर और बैंक का हेल्प लाइन फोन नंबर.
   (स) कुछ खास नम्बर  जिनसे आपको मदद मिल सकती है और आपको याद नहीं रहते उन्हें भी मोबाईल में  सेव किया जा सकता है  जैसे कि  विभिन्न  सन्सथानो में आपके मेम्बरशिप नंबर अदि.
५. यदि आप किसी वकील या पुलिसकर्मी को जानते हैं तो उनका फोन नंबर साथ होने पर आपको समय पर कानूनी जानकारी या  प्रशाशनिक मदद मिल सकती है.
६. अपने चार-पांच खास लोगो के फोन नंबर स्पीड डायल  पर जरूर सेव करें ताकि जरूरत के  समय जल्दी उनसे जुड़ सकें.
७.अगर आपका मोबाईल ही खो जाये या चोरी हो जाये तो आप ऊपर लिखी सारी जानकारी का कोई उपयोग नहीं कर सकेंगे.  ऐसी स्तिथि से बचने के जिए ये सब जानकारी एक कागज पर  लिख कर भी अपने साथ रखें. साथ ही उस कागज पर अपने मोबाईल का मोडल नंबर और आइ इ एम आइ  नंबर भी जरूर लिखे. (प्रत्येक मोबाईल के इस विशिष्ठ  नम्बर को   जानने के लिए अपने मोबाईल के पीछे देखे या *#०६# डायल करे.)
८. अगर आपके घर में पत्नी,बच्चे या बुजुर्ग अकेले रहते हैं और उनके पास मोबाईल नहीं है तो ये सब जानकारी लैंड लाइन फोन के पास दीवार पर लिख कर  टांग  दे .
९.कुछ पैसे अपने बटुए या पर्स से अलग निकाल कर रख दे किसी और जगह पर जैसे अपनी कार या बाइक में या चश्मे के कवर में इत्यादि. आपके पर्स खो जाने की स्तिथि (भगवान  न करे ऐसा आपके साथ हो) ये बड़े मददगार साबित होंगे.

उम्मीद करता हूँ कि ऊपर बताई गयी छोटी छोटी बातों  पर अगर अब तक आपका ध्यान  न गया  हो, तो अब उन पर विचार कर अमल में लाने का प्रयास  करेंगे.

वैसे मै कामना करता हूँ कि इश्वर आपको विपदाओ से दूर रखे.

झांसी की रानी

"बुंदेलों हरबोलों के मुंह  हमने सुनी कहानी थी ,
खूब लड़ी मंर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी "

सुश्री  सुभद्रा कुमारी चौहान  की जिस वीर रस की कविता को बचपन में अपनी पाठ्य  पुस्तक में पढ़ कर पसंद किया था, आज उसी भावनाओं को 'झांसी की रानी' नामक टी वी सीरियल फिर जिन्दा कर  रहा है.

टी आर पी के मोह में ऐतिहासिक सत्यों और घटनाओ पर खूब मिर्च मसाला छिड़का गया होगा ,पर इसके लिए हम इस  प्रस्तुति के पीछे के लोगों को माफ़ कर ही सकते है क्योंकी ये तो हर टी वी शो की कहानी है और ये उनकी दाल रोटी (या घी पूरी) का भी तो सवाल है.

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई जैसे चरित्र तो हर देश- काल में मिलते है.  इंदिरा गांधी ,गोल्डा मायर ,किरण बेदी, सान्या मिर्ज़ा,  सोनिया गांधी , मायावती ,कल्पना चावला , इन्द्रा नूई जैसे कुछ नाम उदहारण के लिए याद दिलाना चाहूँगा. वैसे ये lsit काफी लम्बी हो सकती है. और अगर आप अपने आस पास के चरित्रों पर ध्यान  दें तो शायद कई नाम इसमे  जोड़  सके  , भले ही उनको  सार्वजानिक रूप  से इतनी प्रसिध्धी हासिल न हुई हो.  कुछ कर गुजरने का जज्बा अगर दिल में हो तो आपको पेटीकोट और बिंदी के दायरे में समेटकर नहीं रखा जा सकता.

जिस बात की ओर मैं इशारा कर रहा हूँ वह यह है कि कमजोरी या ताकत का सम्बन्ध लिंग से  नहीं है. न ही किसी जाति ,वर्ग या समुदाय से है. पर अपने अपने समुदाय,वर्ग और जातियों को कमजोर और पिछड़ा बता कर कुछ ताकतवर लोग आरक्षण के नाम पर वोट बैंक कमाने की जिस गंदी होढ में बेशर्मी  से खेल रहे है उससे किसी का भला नहीं होने जा रहा.  

महत्मा गाँधी ने  अपने समय में अस्पर्श्य लोगों को  हरिजन कह कर उनेहं उनका खोया सम्मान दिलाने का प्रयास किया क्योंकि उस समय मनुवादी व्यवस्था पर आधारित कुछ जाति विशेष को स्पर्श के  या मंदिर में घुसने के काबिल भी नहीं समझा जाता था  . बदलते समय और परिस्थितियों की मांग पर एक आउट ऑफ़ कांटेक्स्ट और आउट डेटेड परिपाटी को बदलने का एक क्रांतिकारी द्वारा किया गया यह एक सराहनीय प्रयास था.   

पर जाति या वर्ग को आधार बना कर  आरक्षण को बढ़ावा देने से समस्याए सुजझाने की बजाय और उलझ जायेंगी  सरकारी योजनाओं द्वारा लागू आरक्षण का फायदा हर बार की तरह  सिर्फ ताकत वर को ही मिलेगा. आरक्षण इलाज नहीं खुद एक बीमारी है .

जरूरत किसी उम्मीदवार को सरकारी कागज दिला कर कम पात्रता होने पर भी अधिकार दिलाने कि है ही नहीं. जरूरत इस बात की है कि सभी इंसानों को बुनयादी सुविधाए एक सामान दिलवाई जाये और फिर मेरिट के आधार पर चुनाव की निष्पक्ष और पारदर्शी  व्यवस्था हो .

मोजुदा हालत में तो ये एक कल्पना  ही लगती है.
क्या जनता के दिए हुए करों पर ऐश करती सरकारों से ये अपेक्षा ही बेमानी है?
या फिर झांसी की रानी के पद चिहों पर चलते हुए एक बीमार व्यवस्था से लड़ने के लिए क्रांति का बिगुल फूंकने का सहस फिर कुछ लोग कर पाएंगे?

अष्टांग योग : एक परिचय

योग का नाम सुनते ही आपके दिमाग में क्या तस्वीर उभरती है ?

शरीर को अजीब ढंग से तोड़ मरोड़ कर बैठा या जोर जोर से साँस लेता कोई व्यक्ति ?
या फिर आप उन आसनों या  प्राणायाम  के विषय में सोचते हैं जो आपकी जानकारी के दायरे में हों ?

योग असल में इन छोटी छोटी चीज़ो से कहीं ऊपर एक सम्पूर्ण जीवन प्रणाली है जिसे हजारों साल पहले महापुरुषों की उस जमात ने खोजा और रचा था जिन्हें हम ऋषि -मुनी कहते थे.
इस अदभुद  चीज का परिचय मैं अपने ढंग से देने का प्रयास यहाँ कर रहा हूँ.

कौन थे ये लोग और क्यों बनाई ये तकनीक ?

मेडिकल साइंस और इन्फोर्मशन टेक्नोलोजी के अनेको उत्पाद हम अपने दैनिक जीवन में इस्तेमाल करते हैं. एक कैप्सूल या इंजेक्शन लिया और बीमारी गायब. की बोर्ड या माउस पर कुछ बटन दबाये और अपने मनपसंद गाने को सुन लिया या हजारों मील दूर बैठे अपनों से बात कर ली. ये सब जादुई चीजे अपने आप नहीं हो जाती. इन उत्पादों को इस रूप तक लेन के लिए कितने ही प्रयोग किये जाते हैं और दिमाग खपाया जाता है. ये सब करने वाले भी हमारी और आपकी तरह के आम इन्सान हैं पर खोजी प्रवत्ति के. खोज को ही उन्होंने अपना लक्ष्य बना लिया है और मानवता के उत्थान के लिए वे समर्पित है. सरकार और व्यापारी इनको बढ़ावा देते हैं. इन्हें आजकल  हम रिसर्च स्कॉलर या साइंटिस्ट के नाम से जानते हैं.
इसी तरह के लोग हजारों साल पहले भी हुआ करते थे. आबादी से दूर जंगलों में वे अपना रिसर्च का काम करते थे और राजा- महाराजा भी उनका आदर करते थे. आम मान्यता के विपरीत इनमे से कई  लोग  गृहस्थ  जीवन  में रहते हुए ये सब कार्य करते थे. इन्हें ऋषी - मुनी के नाम से जाना जाता था.

इन्ही में से कई लोगो की खोज का विषय था , 'एक आम आदमी को स्वस्थ जीवन जीने की  तकनीक'. इसी को योग या योग विद्या के नाम से जाना गया. मान्यता है कि शिवजी ने पार्वती से योग विद्या का वर्णन सर्वप्रथम किया. यूँ तो पौराणिक ग्रन्थ जैसे वेद ,उपनिषद् और भगवत गीता में योग का उल्लेख  मिलता  है ,पर महर्षि पतंजलि ने अपने  'योग सूत्र'  में आठ अंगों वाले योग का एक मार्ग विस्तार से बताया है.  अष्टांग योग एक आठ अंगों वाली सम्पूर्ण प्रक्रिया है.

योग क्या है -
योग का अर्थ है जोड़ या जुड़ना . (अंग्रजी भाषा ने इसके सही उच्चारण को भी बदलकर 'योगा' के नाम से  परिवर्तित कर डाला है). अब प्रश्न यह है कि योग की तकनीक से हम किससे जुड़ते हैं. और इसका उत्तर यह है कि हम अपने आप से जुड़ते हैं. सुनने में शायद यह आपको अटपटा लगे, पर सच यही है. योग की अंतिम अवस्था को समाधी कहा जाता है. ये अवस्था शब्दों से परे है ,सिर्फ अनुभव की जा सकती है ,भाषा के सिमित दायरे में बताई नहीं जा सकती.

परोक्ष रूप से इसे 'आत्मा या जीवात्मा का परमात्मा से मिलन बताया गया है' पर परमात्मा कोई हम से अलग चीज नहीं है. ये एक परिकल्पना है. हमारे पास दिमाग जैसा सुपर कंप्यूटर और शरीर जैसा अदभुद संसाधन मौजूद है जिसके इसतेमाल से हम जो चाहे वह प्राप्त कर सकते है. पर इस जीवन की भाग दौड़ में हमारे मन की ट्यूनिंग कहीं बिगड़ जाती है बल्की कई बार तो ये भी ठीक से समझ में नहीं आता कि हम चाहते क्या हैं . हमारी हालत उस सरकार की सी होती है जिसके पास कानून बनाने की क्षमता तो होती है और अधिकतर लोग इन कानून को आसानी से मानाने को भी तैयार भी रहते हैं पर वो फिर भी अपना काम ठीक से नहीं कर पाती. इसका कारण यह होता है कि सरकार जिसका काम जनता के लिए निर्णय लेने का होता है वह अधिकतर अपने खुद के फायदे के लिए निर्णय लेने लगती है और ऐसा करना उसकी आदत बन जाती है. ऐसे में सरकार अपनी पहचान जनता से अलग समझने लगती है. अब यहाँ जरूरत सिर्फ इस सरकार से उसका सही परिचय भर करने की होती है.इस एक बोध के होते ही सब कुछ ठीक से चलने लगता है. बाहर से देखने में चीजे वही रहती है पर अन्दर से  महसूस  होता है एक खुशहाली और आनंद का अनुभव.

योग से भी  हमें बाहर से कोई भगवान आकर हमें कुछ अनूठा नहीं दे जाता. बस हमारा  अपने आप के  वास्तविक रूप से परिचय भर हो जाता है और एक बोध हो जाता है कि हे करना क्या है अपने जीवन में . फिर  उसके लिए जो भी करते हैं हम ही करते हैं पर उसमे आनंद  आता है और पूरा जीवन ही एक उत्सव बन जाता  है .

अष्टांग योग
अष्टांग योग के आठ अंग बताये गए हैं -

१. यम
२. नियम
३.आसन
४.प्राणायाम
५.प्रत्याहार
६.धारणा
७.ध्यान
८.समाधी

यम-  यम वह व्यवस्था है जिसके द्वारा सभी व्यक्तियों का समाज में रहना आसान  हो जाता है.  ये general guidelines है जिसका आचरण सामूहिक रूप से एक हमें व्यवस्थित रखता है. इनका आकलन निजी स्वार्थ की कसोटी पर नहीं किया जा सकता. ये हमारे सामाजिक  दायित्व है. 
उदहारण के लिए एक व्यवस्थित सड़क यातायात के लिए हम इन दो   व्यवस्थाओ  का प्रयोग करते है-

१. सभी वाहन चालक अपन बाये (यूरोप और अमेरिका में दायें) चलते है.
२. मुड़ने या रुकने से पहले इशारा करते है.

इनका महत्त्व अपने फायदे के लिए नहीं पर सबके फायदे में है. कुछ लोग (खास कर युवा वाहन चालक) इन छोटी छोटी और मामूली सी दिखती बातो के बारे में बात या विचार करना भी अपनी तौहीन समझते है. पर अगर हम किसी भी सड़क दुर्घटना का विश्लेषण करे तो उसके मूल में किसी एक पक्ष का ऐसी ही किसी मामूली सी बात की अनदेखी करना ही होता है.
 जिस समाज में उनके द्वारा बनाई गयी व्यवस्थ का पालन लोग इमादारी और मन से करेंगे वहां का traffic व्यवस्थित    तो होगा ही.

 इसी तरह यम भी एक स्वस्थ समाज के लिए  व्यवस्थाये है. ये है -       

(क) अहिंसा - शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को हानि नहीं पहुँचाना
(ख) सत्य - विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना
(ग) अस्तेय - जिस  चीज पर किसी दूसरे का हक़ है  उसे अपना न समझाना ,ये चोरी है
(घ) ब्रह्मचर्य - सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम और अनुशासन बरतना
(च) अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना

हममे से अधिकतर लोग इनके महत्त्व को समझते है पर शायद सब लोग मन से और इमानदारी से इनका पालन नहीं कर पाते हर बार. कुछ तार्किक प्रवत्ति के लोग सोचेंगे ,ये सब तो vague है -इन सब बातों का फैसला कौन   करेगा  कि  सच  क्या है और झूठ क्या? आवशयकता कितनी है? अनुशासन क्या है? अदि अदि. दरअसल ये प्रश्न इतने व्यापक है कि इनका जबाब किसी फिक्स्ड  फ़ॉर्मूला से नहीं निकला जा सकता .समय और परिस्थिति के अनुसार इनके अर्थ इतने बदलते रहते है कि इन्हें शब्दों में बांध हर परिभाषित नहीं कर सकते . योग में इन सवालों का जबाब  ढूँढने  की  जिम्मेदारी  भी  साधक पर ही छोडी गयी है. असल में जैसे ही हमें इन सवालों का सही जबाब (अपने परिप्रेक्ष में) मिलता है हम योगी हो जाते है और अपने सच्चे स्वरुप से हमारा परिचय हो जाता है.

नियम:  यम में जहाँ हमारे सामाजिक दायित्यों का बोध कराया गया है,वहीं नियम के द्वारा हमें व्यक्तिगत रूप से  अनुशासित   और स्वस्थ रखने का प्रयास किया गया है.  नियम कोई खास ढंग से काम करने की हिदायत नहीं है और इसे बंधन या मजबूरी के रूप में नहीं देखना चाहिए. ये हमारी चेतना को उन व्यवस्थाओं से  जोड़ने  का प्रयास है जो हमें स्वस्थ रखने में सहायक हो सकती हैं. इस बारे में हम अपनी परिस्थति और सीमाओं में रह कर जो भी श्रेष्ठतम  कर सकते है उसका प्रयास करना चाहिए.
पतंजलि ने ये नियम बताये है -

 (क) शौच - शरीर और मन की शुद्धि
(ख) संतोष - संतुष्ट और प्रसन्न रहना
(ग) तप - स्वयं से अनुशाषित रहना
(घ) स्वाध्याय - आत्मचिंतन करना
(च) इश्वर-प्रणिधान - इश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा

आसन और प्राणायाम
आसन और प्राणायाम तो योग के काफी प्रचलित अंग हैं. धीरेन्द्र ब्रह्मचारी, ओशो, रवि शंकर (आर्ट ऑफ़ लिविंग ), बी के एस  ऐयेंगेर अदि ऐसी अनेक शख्सियत हैं जिन्होंने इनको जन जन तक पहुँचने का कार्य किया है. और बाबा रामदेव (पतंजली योगपीठ ) ने तो प्राणायाम को नए आयाम दिए हैं . बड़ी सरलता से उन्होंने योग को साँस से जोड़ा है और वज्ञानिक रूप से परिणाम सामने लाये हैं.
मूल रूप से इनका परिचय इस तरह से है-

आसन:  आसन या योगासनों research  द्वारा स्थापित वो शारीरिक मुद्राये या posture  है जो एक स्वस्थ शरीर को maintain  करने में सहायक है. इन्हें जबरदस्ती करके अपने शरीर को कष्ट नहीं पहुंचना चाहिए जैसा कि कुछ लोग करते है, हर व्यक्ति को हर आसन करने की कोई जरूरत नहीं है. हमें वह आसन प्रक्टिस के लिए चुनना चाहिए जो हमारे जीवन में वांछित बदलाव ला सके. चुने गए आसन की अवस्था में हमें तब तक रहने चाहिए जब तक हमारा शरीर इसे प्रसन्नतापूर्वक करने की इजाजत देता है - फिर धीरे धीरे इस अवधी को बढ़ाना चाहिए.

प्राणायाम:  श्वास हमारे जीवन की डोर है. साँस अन्दर लेने पर एक उर्जा/ शक्ती और पदार्थ (हवा) कही बाहर से आकर  हमारे खून बनने की प्रक्रिया के लिए उपलब्ध होती है. इसका जितना हिस्सा हम ग्रहण कर लेते है वो हमारा हिस्सा बन जाता है.इस तरह हम हर स्वांस के साथ बदलते रहते है. ये वायु तो वास्तव में माध्यम है ,इसके साथ बहुत से सूक्ष्म पदार्थ न जाने कहाँ कहाँ से आकर जुड़ जाते है और साँस द्वारा  अंततः हमें मोका देते है अपने आपको बदलने का. जाने या अनजाने में हम हवा के माध्यम से इस विराट संसार की कितनी ही चेतनाओ और पदार्थों के गुण ग्रहण करते रहते है साँस लेकर. प्राणायाम की तकनीक द्वारा जहाँ के ओर हम लम्बी और गहरी साँस लेकर अपने लिए अधिक प्राण उर्जा उपलब्ध करते है वहीं दूसरी ओर उर्जा के इस विशाल भंडार से वही तत्व ग्रहण करने की कला सीखते है जो हमारे स्वस्थ जीवन में सहायक हो सके.

प्रत्याहार - इसका अर्थ है इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना. इश्वर ने हमें ५ इन्द्रिया दी है-
१. देखने की शक्ति
२.सुनने की शक्ति
३.छू कर या स्पर्श कर वस्तुओ को महसूस करने की शक्ति
४.स्वाद लेकर या चख कर जाने की शक्ति
५.सूंघ कर पहचानने की शक्ति.

इन सभी शक्तियों का इस्तेमाल हम बाहर की दुनिया को पहचान करने में करते है. पर हमारी अपने बारे में जो जानकारी होती है वह दूसरो द्वारा हमारे बारे में दी गयी सूचनाओ के आधार पर बनी एक image मात्र होती है. इस image को बनने में जहाँ दूसरो की नजरें काम करती है वही उनका नजरिया भी इसे बनाता है जो हमारे नज़रिए से अलग हो सकता है. इस image को अपनी वास्तविक पहचान मान कर हम जो निर्णय लेते है वह हमेशा स्वस्थ  नहीं रह  पाते.  प्रत्याहार की तकनीक द्वारा हम अपने आप को पहचानने के लिए अपनी ही इन्द्रियों या शक्तियों का सहारा लेते है और किसी दूसरे के द्वारा दी कृत्रिम जानकारी के बजाय अपने बारे में स्वयं जानकारी इकठा करना सीखते है.

 धारणा:  धारणा  का अर्थ है एकाग्रचित्त होना. आप पूंछेंगे  , 'किस पर '? तो इसका जबाब है, 'किसी भी चीज पर जो आपको ठीक लगे'. यहाँ महत्त्व इस बात पर नहीं है कि आप कहाँ focus कर रहे है. महत्वपूर्ण यह है कि आप focus करने में समर्थ है. हमारा मन बड़ा चंचल है. ये हमें जगह जगह भटकता रहता है और हम आदतन इसके गुलाम बन जाते है. फिर  हम  किसी   भी चीज पर ज्यादा देर तक ध्यान देने के काबिल ही नहीं रहते. अपने मन को एक मालिक की तरह इस्तेमाल कर पाने के लिए यह तकनीक बनाई है.

 ध्यान:  किसी चीज का ज्ञान भर हो जाने से हम उसे इस्तेमाल में नहीं ला पाते. हमें हर समय इस बात का अहसास भी होना चाहिए कि ये  ज्ञान या विद्या जो  हमारे पास है उसे अपने जीवन में प्रयोग के लिए उतारें.  निरंतर इस बात को ध्यान में रखना ही  ध्यान  है. परोक्ष रूप से इसे इश्वर का ध्यान बताया गया है पर वास्तव में यह विवेकपूर्ण (और विचार शून्य) जीने की कला है. इस अवस्था में रहने पर हमारे अधिकतर कार्य conscious mind से operate  होते  है unconscious mind से नहीं (सामान्य लोगो की तरह)
 समाधि: योग की अंतिम अवस्था समाधी है. यह  शब्दों से परे रक परम-चैतन्य की अवस्था है. स्वयं की आत्मा से जुड़ कर परमात्मा बनने का कार्य यहाँ संपन्न होता है.

अत:  योग शरीर के लिए केवल एक प्रकार का व्यायाम ही नहीं है.यह एक  प्राचीन तकनीक  है जोकि स्वस्थ्य , सुखमय ओर शांतिपूर्ण जीवन का ढंग है जो अंतत स्वयं से मिलाता है !

घोटालों को घोट कर पी जाने की कला

IPL का महा घोटाला अब धीरे धीरे ठंडा पड़ने लगा है. हमाम के नंगो ने एक दूसरे को नंगा कहना बंद कर दिया है. पिछले कई घोटालों की तरह इस बार भी हमारी जनता इस घोटाले को घोट कर पी ही जायेगी. जाँच की लीपापोती होने तक असल मुद्दे और असली दोषी गायब होने का कोई न कोई बहाना ढून्ढ ही लेंगे. सालों बाद कुछ बलि के बकरे मिल भी गए तो हमारा सुस्त और लाचार कानून उन्हें गुदगुदगी भर कर के छोड़ देगा.

घोटालों के हम अब आदी हो गए है. एक नशेड़ी की तरह अब हमें बड़े से बड़ा या नए से नया  घोटाला ज्यादा देर तक किक नहीं दे पाता. मीडिया इस बात को अच्छी तरह से पहचान चुका है औत नए नए मुद्दे थोड़ी थोड़ी देर  के  लिए  परोसरा रहता है.

 इस देश के तीस करोड़ लोग दो वक्त की रोटी कमाने के लिए रोज संघर्ष करते है. बाकी कई करोड़ मिडिल क्लास का चोगा ओढ़ कर अपनी इज्जत बचाने में लगे रहते हैं. हजारों से  ज्यादा रुपये इन्होने सिर्फ फिल्मों या किताबों में देखे सुने होते हैं.  अपनी रोजमर्रा  की जिन्दगी में चंद रुपयों की झलक भर देख लें तो इनके लिए जशन का सा माहौल   होता है. करोडो और अरबों रुपयों का खेल इनकी समझ से परे है. कौन कितने करोड़ रुपये डकार गया ,इसकी दिलचस्पी इन्हें बस चुटकी लेने तक ही है. इसके बारे में ज्यादा सीरियस होना या खोज पड़ताल करने कि फुर्सत इन्हें मीडिया के उकसाने पर भी नहीं.

जनता का काम इस विश्वास से चल ही  जाता है कि बड़े ओहदे पर बेठे नेता, अफसर और व्यापारी सब कुछ उनके भले के लिए ठीक तरीके से कर रहे होंगे. जो गलत करते होंगे उन्हें कभी न कभी कानून के लम्बे हाथ दबोच ही लेंगे.

पर कोई भी पद मिलने पर ज्यादातर लोग उससे रुपये कमाने की योजनाये पहले ही बना कर रखते है. और कानून के हाथ लम्बे जरूर है पर वो बिचारा अँधा और लाचार भी है और बड़ी सुस्ती चल से चलता है.इससे छोटे मोटे मच्छरों का ही शिकार हो सकता है ,आदमखोर शेर का नहीं.

कोई भी बड़ा  घोटाला दो चार  लोगों के बेईमानी  करने भर से नहीं हो जाता. इसे बढ़ावा देते हैं इसमे शामिल हजारों  लोग जो छोटी छोटी गलतियों को देख कर भी अनदेखा करते है. 'इतना तो चलता है' के चक्कर में इतना इतना कर के हम सब मिल कर कितना खो देते है ये अहसास जब तक होता है 'चिड़िया खेत चुग चुकी' होती है.

आज जरूरत इस बात की है कि इमानदारी से पैसा कमाकर  दिखाने वाले लोग आगे आयें और लोगों के मन से इस सड़े हुए विश्वास को निकाल फेंके कि पैसा सिर्फ बईमानी से ही कमाया जा सकता है.

ये महंगाई क्या हमें मार डालेगी ?

आजकल मंगाई का मुद्दा गरमाया हुआ है.
विरोधी पार्टी हों या मीडिया, कोई भी इस मोके पर सरकार को उंगली कर के  इस गर्म तवे पर अपनी रोटियां सेकने से बाज नहीं आ रहा.
क्यों न हो , जब प्याज के भाव पर एक सरकार गिराई जा  सकती है तो दाल और गैस पर दूसरी को गिराने  की  कोशिश  करने में क्या हर्ज है.

इस सारे प्रकरण में हमेशा की तरह जो ठगा जा रहा है वो है आम आदमी.

 उदारीकरण की झोंक में सरकार ने हर चीज के दाम को बाजार के रहमोकरम पर छोड़ दिया और खुद को बेबस और लाचार बना डाला. मुनाफाखोरों ने जम कर इसका फायदा उठाया है.

पर जहाँ सरकार बेबस नहीं है वहां भी कुछ नहीं कर रही.  बद-इन्तजामी का ये आलम है कि हजारों टन अनाज जहाँ सरकारी गोदामों में सड़ रहा है , वहीं करोडो लोग दो वक्त की रोटी भी नहीं जुटा पाते और सैकड़ो गरीब किसान भूख और कर्ज से तंग आकर आत्महत्या कर रहे है.

आजादी के बासठ साल बाद भी अगर सरकार जनता को बुनियादी हक़ नहीं दे पा रही तो ऐसी आजादी के क्या म़ाइने     ? मकान तो छोडिये ,पेट भर रोटी और तन ढापने लायक  कपड़ा तो सबका हक़ बनता ही है ,चाहे कोई कितना भी नाकारा या गंभीर अपराधी ही क्यों न  हो.

लचर न्याय व्यवस्था पर आस जगाये बैठे तथा  भ्रष्ट राजनीतिज्ञों और अफसरों  को ढोते हुए आम आदमी के लिए महंगाई कोई मुद्दा भर ही नहीं है जिस पर बहस कर उसे टला जा सके. ये तो एक सच्चाई है जिसका सामना उसे दिन रात करना पड़ता है.

ऐसे कई सच्चाइयों को  झेलते - झेलते भारतवासी अब काफी मजबूत हो चुका है उस मच्छर की तरह जिस पर अब किसी भी मच्छरमार तरीके का अब असर नहीं होता.

महंगाई के कड़वे घूँट को गरीब आदमी तो चुपचाप पी जायेगा ,पर हमारे राजनेताओं और मीडिया को बहत ज्यादा दिन इससे खेला नहीं जायेगा . हमेशा की तरह वो कुछ दिन बाद कुछ और मुद्दा पकड़ लेंगे चर्चा और बहस के लिए.  अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए उन्हें तो मुद्दे चाहिए गर्म गर्म और नए नए. उन मुद्दों का हल निकले या नहीं इससे उन्हें कोई खास फर्क नहीं पड़ता.

चित्र जिफैनीमेशन द्वारा

ये आइडिये आखिर आते कहाँ से हैं !

मेरे एक मित्र श्री विजय कुमार तायल ने फोन कर मेरी ब्लॉग की एक पोस्टिंग की तारीफ की और साथ में एक सवाल भी जड़ दिया , 'यार, ये सब लिखने के लिए तुम्हें आईडिया आते कहाँ से हैं ?

मैंने उस वक्त तो उनसे कह दिया कि 'ये तो मेरा ट्रेड सीक्रेट है' , पर बाद   में सोचा ,' अरे ,ये सवाल भी तो अपने आप में एक आईडिया है और क्यों न इसी पर एक ब्लॉग पोस्टिंग लिख दी जाय .

एक लेखक या कलाकार को अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए आईडिया  का होना लाइफ लाइन या प्राण की तरह है. नए नए आईडिया मिल जायें तो टोनिक का काम करते हैं और एक कलाकार सब कुछ भूल कर अपनी crativity
के द्वारा उसको एक सुन्दर रूप दे डालता है जो अक्सर सराहा जाता है.

पर सवाल तो आखिर यह है कि आईडिया जन्म कैसे लेते हैं एक कलाकार के दिमाग में. मेरे अपने व्यक्तिगत अनुभव और विचार मैं यहाँ व्यक्त कर रहा हूँ-

captions और one - liners - कहीं अपने कोई caption लिखी देखी या किसी से कोई one liner dialiogue सुना जो आपके मन को भा गया. बस मिल गया आपको एक टॉपिक लिखने को. अभिनेता अक्षय कुमार ने एक बार एक interview में कहा था कि उसने एक ट्रक के पीछे लिखा देखा 'Singh is king ' और सोच लिया कि वह इसी title ओर theme पर फिल्म बनायेगे और कई सालों की मेहनत के बाद अपना सपना सच कर दिखाया.

सवाल जो चुभ जाये या मन को हिला दे -किसी ने आपसे सवाल किया जो आपको विचलित कर दे. बस दिमाग में एक स्पार्क होता है और आईडिया हाजिर हो जाता है. ठीक वैसे ही जैसे एक सवाल ने मुझे ये ब्लॉग पोस्टिंग लिखने को मजबूर कर दिया है.

समस्या - आपकी किसी समस्या से मुलाकात हुयी (चाहे वो अपनी हो या किसी और की ), बस दिमाग का मीटर चालू हो जाता है. उस समस्या के समाधान का आपका नजरिया क्या है वह आपकी रचनाओं में प्रतिबिंबित होने लगता है.    

भावनाए - इस छोटे से दिल में हर कोई अनगिनत भावनाएं छुपा कर रखता है. लेखक वह प्राणी है जिसको इन में से कई भावनाओं को जाहिर करने का सम्मानित मौका  मिल जाता है.

प्रेरणा -अपने कोई किताब ,कहानी या लेख पढ़ा और उस से आप प्रभावित हो गए. बस अपने उस (एक या कई) प्रस्तुती को अपने अंदाज में ढाल कर (या फिर खिचडी या cocktail बना कर) अपना नाम दे डाला. ये remixing का जमाना है भाई.

मुकाबला - 'उसकी साड़ी मेरी साडी से सफ़ेद कैसे ?' कई बार रचनाये प्रतिस्पर्धा की भावना से भी रची जाती है. यहाँ दूसरे से बेहतर लिखने का जज्बा इतना तीव्र होता है कि जो भी बात उस वक्त दिमाग में पहले आती है उस पर अपनी कलाकारी के जौहर  दिखाकर एक रचना तैयार हो जाती है.

मजबूरी- लेखक एक इंसान भी है और उसे भी पापी पेट को पालना है.  इसलिए वह बिचारा कभी कभी जो बिकता है वो लिखता है.  ऐसे में idea  लेखक के दिमाग से नहीं बल्कि जनता जनार्दन की मर्जी से आते हैं  .

अंत में यह भी लिखना चाहूँगा कि लेखक बनाने से पहुत पहले से  मैं एक बहुत बड़ा पढ़ाकू भी हूँ. पढ़ाकूपन की इस दीवानगी  और प्यास में मैंने  औरों के द्वारा रची हुयी हजारों रचनाओं का स्वाद लिया है.  इन्ही पसंदीदा  रचनाओं में से मुझे कई आईडिया मिल जाते हैं.  अगर कभी आईडिया के इस खजाने में कोई कमी महसूस करता हूँ तो नयी नयी किताब, ब्लॉग या मैगजीन पढ़ता हूँ, फिल्म देखता हूँ गूगलिंग करता हूँ या जो भी  इंसान मिलता है उससे बतियाता हूँ.

 ideas  तो बिखरे पड़े है हर जगह ,पर हमें अपने antenna  को tune  up  करना पड़ता है अपने हिसाब से उन्हें ग्रहण करने के लिए  .

चित्र -आभार freeimages  

भूल

मर्केटिंग की ट्रेनिंग अपने कहीं से भी ली हो , उसमे सिखाया यही जाता है कि एक ग्राहक से कैसे पेश आना है. जब कोई इंसान ग्राहक बन कर हमारे सामने आता है तो हमें मौका मिलता है और  हम उस ट्रेनिंग का इस्तेमाल करते हैं अपना माल बेचने के लिए.

मेडिकल की ट्रेनिंग अपने कहीं से भी ली हो  उसमे सिखाया यही जाता है कि एक मरीज  से कैसे पेश आना है. जब कोई इंसान मरीज बन कर हमारे सामने आता है तो हमें मौका मिलता है और  हम उस ट्रेनिंग का इस्तेमाल करते हैं उसके इलाज के लिए .

परिवार में रहने  की ट्रेनिंग अपने कहीं से भी ली हो , उसमे सिखाया यही जाता है कि अपनो से कैसे पेश आना है. जब कोई इंसान अपना  बन कर हमारे सामने आता है तो तो हमें मौका मिलता है और हम उस ट्रेनिंग का इस्तेमाल करते हैं उससे सम्बन्ध बनाने के लिए.


धर्म  की ट्रेनिंग अपने कहीं से भी ली हो , उसमे सिखाया यही जाता है कि भगवान से कैसे पेश आना है. जब कोई इंसान जो भगवान का ही रूप है , हमारे सामने आता है तो हम न जाने  कैसे भूल जाते  हैं कि हमें उस ट्रेनिंग का इस्तेमाल करना है ,उसकी पूजा करने को. 

















श्री कंप्यूटराय: नम:

कंप्यूटर देवता को मेरा प्रणाम.

आजकल हमारी दुनिया में जो भी घटनाएँ होती हैं वो आपकी ही मर्जी से होती  हैं. हम जो भी कुछ कहते  - सुनते और करते हैं वह सब आपके ही माध्यम से होता है. आपके अनेक रूप हैं. कहीं आप लेपटोप कहीं डेस्कटॉप कहीं ATM या किओस्क के रूप में नज़र आते हैं. घर हो या दफ्तर , फेक्ट्री हो या हवाई जहाज   हर जगह आप किसी न किसी रूप में विद्यमान हैं.  आपकी लीलाएं अपार हैं. हम मनुष्य तो बस आपके हाथों की कठपुतली भर हैं.  आप देवी नेटवर्किंग की कृपा से हमें जब चाहे जिस से जोड़ सकते हैं.

हम तो बस request ही कर सकते हैं. आप हमारी और हमारे जैसे अनेक लोगों की requests  सुन कर अपना फैसला सुनाते हैं. सब आपके फैसलों के गुलाम हैं. बैंक, airlines, railways ,insurence ,superbazars  सब जगह आपका ही दबदबा है. संसद हो या टीवी, सेल फ़ोन हो या ओलंपिक सब आपकी दया द्रष्टि के मोहताज हैं. आफिस में  बॉस और घर में बीबी तो नाम के लिए हुक्म चलते हैं, असली हुक्म तो हर जगह आपका ही चलता है. हीरो को जीरो और जीरो को हीरो बनाना आपके बाएँ हाथ का खेल है.

आपकी लीला अपरम्पार है.कुछ लोगों को आप   डम्ब टर्मिनल तो कुछ को मेल सर्वर, फाइल सर्वर,DNS सर्वर, http सर्वर और अन्य कई तरह के रूप में दर्शन देते हो. कुछ लोग आपके भोतिक स्वरुप ( hardware )  का ध्यान करते हैं तो तो कुछ लोग अपनी ज़िंदगी आपके दिव्य स्वरुप ( software ) की आराधना में लगा देते हैं.
मीडिया जगत आपके ही बल बूते पर फल फूल रहा है. इलेक्ट्रोनिक मीडिया की तो लाइफ लाइन ही आप हैं. प्रिंट मीडिया भी आपकी शरण में आकर ही इतना glamorous हो गया है. आम आदमी भी आपकी महिमा को अब जान गया है. middle - class आपके PC (personal computer) रूप की सेवा अर्चना में काफी समय लगा रहता है. जो लोग आपके इस रूप की मूर्ती अपने घर पर स्थापित नहीं कर पाते उनमे से कुछ आफिस में बॉस की नज़र बचा कर और कुछ साइबर-कैफे पर जाकर आपकी सेवा करते हैं.

सरकार जो एक पिछड़ी संस्था मानी जाती है वो भी इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के माध्यम से आपको स्मरण कर लेती है.
हे देवता अपनी कृपा द्रष्टि हम पर बनाये रखना.

कंप्यूटर देवता की इस महिमा को पढ़ने के बाद कम से कम १०००० और लोगों को पढ़ा दें .ऐसा न होने पर हो सकता है आपके कंप्यूटर पर virus का प्रकोप हो जाय, आपका सारा डाटा गायब हो जाय या आपका इन्टरनेट कनेक्शन आपसे छिन जाय.

छोटी पैकिंग बड़ा दिमाग

हफ्ते भर में गोरा बनाने की क्रीम हो या बालों को लम्बा और मजबूत बनाने का शेम्पू , आज हर चीज आपको छोटे से शेशे में मिल जायेगी, एक-दो या पांच रूपये भर में. ये सुविधा सिर्फ महानगरों के शोरूम या मॉल में नहीं बल्कि छोटे से छोटे गोंव या कसबे में और आपके गली मोहल्ले के नुक्कड़ में भी आसानी से मिल जायेगी.
अगर पैकिंग को देखें तो उम्दा दर्जे की मिलेगी जिस पर अच्छा खासा खर्चा आता होगा. और इस एक दो रूपये के उत्पाद को आपको अपने  मनपसंद  सितारे  टेलीविजन , मैगजीन या बड़ी बड़ी होर्डिंग्स पर बेचते नजर आएंगे. सुना है इसके लिए वो करोडो रुपये लेते हैं. देश के कोने कोने में फैले हजारों या कभी कभी लाखों दुकानों और शोरूम तक रातों रात पहुँचने में कितना खर्चा आता होगा? और कंपनी के कितने ही अधिकारी जो लाखों रुपये (कभी कभी करोड़ों ) की तनखा वसूलते हैं इस उत्पाद को सफल बनाने में अपना समय देते होंगे. महंगे और नामी विशेषज्ञों की राय भी जरूर ली जाती होगी तगड़ी फीस अदा कर के.  इन सब के आलावा उसके बनाने में भी कुछ न कुछ तो खर्च होता ही होगा?

इन सब के बाद क्या एक रुपये की बिक्री में दस बीस पैसे बच जाता होगा,सरकार को सारे टैक्स देने के बाद?

विज्ञान ,तकनीक और नेटवर्किंग की इस आधुनिक दुनिया का ये अदभुद महागाणित है.

अपनी बात

एक छोटी सी कहानी से अपनी बात शुरू करना चाहता हूँ --
काफी पहले के समय की बात है, एक आदमी अपनी मंजिल की तरफ जा रहा था. उसे जल्दी ही एक गाँव में पहुंचना था. गलियों और पगडंडियों से होता वो  तेजी से चल रहा था. उस ज़माने में लोग रास्ता मील या किलोमीटर में नहीं नापते थे. इनका अभी अविष्कार भी नहीं हुआ था.  अब सुनकर शायद अटपट अलगे पर उस वक्त रास्ता नापने के लिए समय के सन्दर्भ में बात की जाती थी - जैसे फलां जगह जाने में २ घंटे लगेंगे या ३ दिन लगेंगे.
खैर, सूनसान रास्ते पर चलते हुए उस आदमी को एक जगह एक आदमी बैठा दिखाई दिया. अपनी मंजिल की दूरी जानने के लिए इसने सवाल किया, भैया ,फलां गाँव कितनी दूर है? पर उसे कोई  जबाब नहीं मिला. 'शायद वो आदमी जिससे उसने रास्ता पूंछा है बहरा होगा',उसने सोचा.
थोड़ी ही देर में उस आदमी ने जिसको वह बहरा समझ रहा था पीछे से आवाज लगाई ,'ओ अजनबी ,आधे घंटे में तुम अपनी मंजिल तक पहुँच जाओगे. ये सुन कर वो बड़ा हैरान हुआ और उसे गुस्सा भी आया. उसने झल्लाकर कहा, 'ये बात तुम पहले नहीं बता सकते थे! '. इसका जो जबाब उसे मिला वह विचारणीय है. उसने कहा ,'जब तक मैं तुम्हारी चाल नहीं देख लेता कैसे बताता कि वहां पहुँचने में कितना समय लगेगा'.  

जमाना चाहे कितना ही बदल गया हो पर उससे इस बात का महत्त्व काम नहीं हो जाता कि हम किसी दूसरे को कुछ बताते समय अपने मापदंडों पर तोल कर बताने की बजाय उन मापदंडों की जानकारी हासिल करें जिसे दूसरा आदमी समझ सके.

आज जमाना बहुत तरक्की कर चुका है पर दूसरे क्या हम अपनी बात दूसरों के सामने रखते हुए इस पर विचार करते हैं कि उनके सन्दर्भ में हमारे पास अपनी बात रखने के लिए सामर्थ्य है या नहीं. मैंने बड़े बड़े मंचों से कई लोगों को लम्बी लम्बी बातें करते सुना है. पर वो ये भूल जाते हैं कि उनकी बातों का सटीक असर तभी हो सकता है जब वे  उसी  भाषा और सन्दर्भ में बात करे जिसमें सुनने वाले लोगों की समझ में आसानी से आ जाये. 

क्या मेरी ये बात आपकी समझ में आयी?
 या मैं भी उसी दोष से पीड़ित हूँ जिसकी मैं आलोचना कर रहा हूँ?

भूख

छोटू और लम्बू एक छोटे से गाँव में रहते थे और अक्सर शहर जाकर पैसा कमाने की बातें किया करते थे. एक दिन दोनों ने आपस में सलाह कर शहर जाने का फैसला किया. छोटू ने खूब घी डाल कर १०० लड्डू बनाये तो लम्बू भी कहाँ पीछे रहने वाला था, उसने १०० पेड़े बना डाले.
अपनी अपनी  मिठाई को एक एक टोकरी मैं डाल कर दोनों ने अपने अपने सर पर रख लिया और सुबह सुबह चल पड़े शहर के रास्ते पर. रास्ता लम्बा था,थोड़ी देर चल कर दोनों को भूख लग आइ. दोनों ने पहले पहले सोचा ,'क्यों न अपनी मिठाई से कुछ खा लिया जाय'. पर हिम्मत नहीं कर सके अपने ही माल को हाथ लगाने की ,जो ग्राहकों के वास्ते रखा था और जिससे कमाई होनी थी. आखिर धंधा करना और पैसा जो कमाना था.
छोटू की जेब में एक रूपया पड़ा था. पर रास्ते में कोई दुकान नहीं थी. उसे एक तरकीब  सूझी. उसने एक रुपया लम्बू को देते हुए कहा , 'एक रूपये के पेड़े देना'. लम्बू ने रुपया जेब में रख कर एक पेढा  उसे दे दिया. आखिर उसकी कमाई तो शहर पहुँचने से पहले ही शुरू हो गयी.
थोड़ी देर बाद लम्बू ने सोचा,'जो काम छोटू ने किया वो तो मैं भी कर सकता हूँ.  इससे भूख भे कुछ काम को जायेगी.' उसने वही रुपया वापस करते हुए छोटू से एक लड्डू खरीदकर खा लिया.
एक रास्ता दिखाई दे जाने पर आदमी उस पर आंख मीच कर चलने लगता है. छोटू और लम्बू के बीच मिठाई खरीदकर खाने का जो सिलसिला शुरू हुआ असकी भेंट उन दोनों के १०० -१०० लड्डू और पेड़े चढ़ गए.
जब दोपहर को वो दोनों शहर पहुंचे तो दोनों की टोकरी खाली थी.
दोनों तब से इस पहेली का हल निकालने के लिए लड़ रहे है कि कमाई तो सिर्फ एक रूपये की (वो भी एक को ही )  हुई ,पर माल सारा ख़त्म कैसे हो गया और बईमानी किसकी थी .
छोटू - लम्बू को छोडिये ,क्या हम लोगों के साथ भी कई बार ऐसा नहीं होता? जिन्दगी में कुछ कमाने के लिए थोड़ी सी पूंजी जुटाते है और बड़ी कमाई के ख्वाब भी देख लेते हैं. पर इससे पहले कि हम पहले ग्राहक के दर्शन कर सके, दूसरों के उकसाने पर और अपनी खुद की भूख को शांत करने के चक्कर में कब अपनी पूंजी लुटा  बैठते  हैं, इसका  पता लगते लगते देर हो जाती है. और भूख का भी कुछ ठिकाना नहीं. न मिले  तो थोड़े में गुजरा हो जाता है और मिल जाय तो भूख भी बढ जाती है. शायद इसी लिए पेट को पापी पेट कह कर भी याद किया जाता है.
जिन्दगी में इस बात का फैसला बड़ा अहम् है कि जो कुछ हमें उपलब्ध है उसका कितना हिस्सा हम अपनी भूख मिटाने के लिए इस्तेमाल करें और कितना अपने व्यवसाय में लगाये जिससे हमारे आगे आने वाला समय खुशहाल हो सके.
           

चमचा

मै एक चमचा हूँ.
कई लोग कहते हैं कि में सबसे अलग हूँ. पर मै अपने को औरों जैसा ही महसूस करता हूँ.
निस्वार्थ सेवा ही मेरा धर्म है जो मैंने अपने पुरखों से सीखा है.

सेवा के लिए मै अपने से काफी बड़ा एक और बर्तन ढून्ढ लेता हूँ जैसे कढ़ाई ,परात या हांडी. (एक बड़े बर्तन से जुड़ने से  सेवा मैं आसानी रहते है ऐसा हमारे पूर्वजों ने बताया है).  बस उसके चरणों को बार बार छूता हूँ अपने सर के बल लेट कर. यह समर्पण का महानतम भाव है जिसे साष्टांग प्रणाम भी कहा जाता है. ये प्रणाम मैं बार बार लगातार करता रहता हूँ. इसमे मुझे कोई थकान नहीं होती बल्कि मजा आता है. इस बड़े बर्तन को मैं अपना स्वामी मानता हूँ.

सेवा का भाव मुझमे इतना कूट कूट कर भरा है कि मेरा हर काम अपने लिए न होकर उन जरुअतों  के लिए होता है जो मेरे स्वामी को होती  हैं. जब भी मेरे स्वामी को मेरी सेवाओं की जरूरत होती है मैं दोड़ पड़ता हूँ. मेरे स्वामी के पास जो भी माल होता है उसे मैं अपना ही समझता हूँ और उसकी हिफाजत के लिए  जान लगा देता हूँ. माल के जिस हिस्से में आग से जलने का खतरा हो उसे सूंघ कर मैं पहले से वहां पहुँच कर उसे दूसरी तरफ पहुंचा देता हूँ. माल के साथ लोट पोट कर मैं बड़ा सकूं महसूस करता हूँ.

अपने स्वामी की सेवा का कोई मौका मैं नहीं छोड़ता. पर अगर दूसरा कई ये गुस्ताखी करे तो मुझे बर्दाश्त नहीं. चमचागिरी हमारा पुश्तेनी काम है और अपने कार्य-क्षेत्र में किसी दूसरे को ये हक़ मैं नहीं लेने दे सकता.

मेरे स्वामी भी इतने भले हैं कि उन्हें जब भी किसी को कुछ देना होता है तो वो इस काम को मेरे माध्यम से ही करते हैं. पर बहुत से लोग इस बात को लेकर जलते हैं कि जो माल मेरा नहीं है उसे मैं ऐसे बांटता हूँ जैसे मेरा ही हो. अपने स्वामी के साथ मेरे रिश्तों को लेकर भी टुच्चे लोग वाहियात बातें किया करते हैं पर मैं उन पर ध्यान नहीं देता.

हालांकी मेरे माध्यम से सबको कुछ न कुछ मिलता ही है पर इस पर भी लोग पीठ पीछे  मेरी  बुराइयाँ   करते रहते हैं. मेरी सेवा का महत्त्व आम दुनियादार लोगों को समझ में आने से रहा.

इश्वर मुझे और सेवा की शक्ति दे.

बस के इंतजार में

'उन्नीस नंबर की फ़्रीक़ुएन्सी क्या है?', उसी आवाज ने दूसरी बार ये सवाल किया था. शायद सवाल मुझसे ही पूंछा जा रहा था. मैंने काले रंग की उस लम्बी सी कार को घूरना बंद किया   जिसका  ड्राईवर  गुनगुनाते  हुए  उसे  पोंछ रहा  था. गर्दन टेड़ी की तो देखा एक मोटा आदमी  एक हाथ  में सोफ्टी  लिए  आंखे  फाड़े  मेरी  तरफ देख रहा था. 'दो सवारी वाली सीट पर भी बैठा तो कुछ हिस्सा छूट कार लटक जायेगा, इतना मोटू है' ,मैंने सोचा (और ये भी कि 'सीट मिलाने का चांस काम किये दे रहा है') .'बीस मिनट', मैंने लापरवाही से कहा.

सामने से लड़कियों का एक झुण्ड आ रहा था. आंखे अपने आप ही उधर फोकस हो गयीं. कुछ के कपडे उल जलूल थे और मेरी समझ से बाहर. 'ये इस बस स्टैंड पर तो रुकने वाली नहीं दिखती', मैंने सोचा,'कुछ ही सेकंड्स मैं ओझल हो जायेंगी'.निगाहों के घुमाने का path और स्पीड क्या हो ,ये mind के कंप्यूटर ने पहले ही कम्पयूट किया हुआ था जिससे maximum तृप्ति मिले.
तभी एक डबल देकर आकर आँखों के सामने आकर खड़ी हो गयी. खाली सी थी. आनन फानन में भीड़ के झोंके आये और उसे भरने लगे .'अशोक नगर तो ये भी जायेगी और वहां से १२० नंबर मिल जायेगी ,फिर १० मिनट ही तो पैदल चलना होगा. क्यों न इसी से चला जाय ,१९ नंबर का तो कोइ भरोसा नहीं', ये फैसला करने में मैंने गलती से ३-४ सेकंड ले लिए थे और इतने मैं डबल डेकर पूरी भर चुकी थी. अब भी कोशिश करूँ तो अन्दर घुस सकता हूँ पर कसरत अच्छी हो जायेगी जिसका मूड नहीं था.
वो चश्मे वाली बुढ़िया जो छोटे बच्चे  की उंगली पकडे काफी देर से हर बस में जाने की कोशिश कार रही थी ,इस बार भी चढ़ने  में कामयाब नहीं हुई. इस तेज भीड़ के सैलाब को उसकी कमजोर हड्डी कैसे झेलेंगी?
डबल डेकर के जाते ही शांति सी हुई. इसको शांति कहना ठीक है या नहीं,ये तो मुझे नहीं मालूम पर शोर के इस लेविल के कान आदी हो गए हैं इस महानगर में.
आते जाते ऑटो रिक्शा वाले बस स्टैंड के पास आकर धीरे हो जाते और हसरत भरी निगाहों से देखते कि किस सवारी के सब्र का प्याला छलक जाये और वो अपने पर्स से परमीशन लेकर बस का इंतजार छोड़ ऑटो लेने का इरादा कर बैठे.   
काले रंग की लम्बी कार का ड्राईवर अब गुनगुना नहीं रहा था. वो पीछे का दरवाजा खोलने की कोशिश कर रहा था. शायद कार का मालिक आ गया था. मालिक नहीं मालकिन थी. छतरी की वजह से चेहरा पूरा नहीं दिखाई दे रहा था. पर छतरी को बड़ी नफासत से पकड़ा था. स्लीवलेस से जो गोरी बाहें झांक  रही थी शायद उन्हें हमेशा  गोरा रखने की चाह  में  इस मामूली धूप में भी छतरी के इस्तेमाल का फैसला किया होगा. काले रंग की background , सुनहरा बदन और गुलाबी कपड़े  . कैमरा  होता तो फोटो लेता -exhibition  में रखने लायक होता. मैं सोचता ही रह गया और काली कार मैडम को लेकर चली भी गयी.
फिर वही चिर परिचित शोर ,वही बोझिल इंतजार के पल जो रोज आफिस आने और जाने पर आते थे. वही बस का इंतजार जो कभी कभी पलों से घंटों में बदल जाता था, जैसा आज होने जा रहा था. लंच के बाद छुट्टी का क्या फायदा हुआ?  घर पहुँचते  पहुँचते वही टाइम हो जायेगा.  लंच अवर में बसें  कितना कम  चलती हैं, ये मुझे पहले सोचना चाहिए था और प्लाज़ा में 'आजा मेरे साथ' देख कार ही जाना चाहिए था. टिकट भी मिल रहे थे और हरीश और अमिता जिद भी कर रहे थे. पर मुझे तो नहा धो कर ३/४ घंटे की नींद की तलब थी. पिछले पूरे हफ्ते किसी न किसी वजह से नींद पूरी नहीं हुई थी. आज के हाफ डे को नींद के नाम रखा था पर हाय री किस्मत, बस का इंतजार क्या रंग दिखलायेगा. इससे तो पिक्चर हाल में ही सो लेता , AC में रहता और पैसे भी ऑटो के किराये से आधे ही लगते. पर आइडिये मुझे लेट ही आते थे. शायद इस दुनिया में मैं लेट ही पैदा हुआ था. पर इसमे मैं क्या कर सकता हूँ. गलती जरूर नर्स की रही होगी.

ये खरखराती सी आवाज क्या है? ओह, वो मरियल ठिगना देहाती उस पानी वाले से झगड़ रहा है पैसों को लेकर.रमेश ठीक ही कहता है ,'पैसा और औरत अगर अपने पास हों तो सुख मिलता है और  दूसरों के पास देख कर आँखों में चुभते हैं.'
ये दिमाग सोचना बंद क्यों नहीं कर देता थोड़ी देर के लिए.इस शहर में ,इस भागती सी दुनियां में मिनट भर में सेकड़ो चेहरे और कितने हादसे गुजर जाते हैं आँखों के सामने से .क्यों हर चीस भेजे में भरी किसी याद को ठोकर  मारती सी लगती है. मैंने क्या ठेका ले रखा है सारी दुनियां के बारे में सोचने का. मुझे बस नींद चाहिए अभी.लगता है ऑटो ही कर लेना चाहिए. नहीं, थोडा और इंतजार करता हूँ बस का.
'माचिस होगी क्या?', कोई मेरा कन्धा हिला कर पूंछ रहा था पीछे  से. हाँ ,क्यों न सिगरेट पी जाये. नींद के झोंको पर भी काबू आ जायेगा. जेबें टटोली तो मुड़ा तुड़ा पेकेट हाथ में आया. और सिगरेट लेने के लिए उस नुक्कड़ की दुकान तक जाना होगापर सीट चली जायेगी  इस शेड के नीचे से या फिर बस ही मिस न हो जाये उसके चक्कर में. पेकेट से निकाल कर देखा तो २ सिगरेट शहीद हो चुकीं थी और एक में कुछ जान बाकी थी. थोड़ी मालिश से कामचलाऊ खड़ी हो जायेगी. बस हो गया काम. उसे जला कर  lighter जेब में डाल ही रहा था कि  पीछे से कोई कन्धा हिला रहा था इसे मांगने के लिए . मुंह में अधजली सिगरेट लगाये कोई अधेड़ था. 'मुंह से बोल कर भी तो मांग सकते थे', मैंने हाथ झटक दिया उसका.
५ या ६ कश ही लगा पाया था कि उन्नीस नंबर की झलक दिखाई दी.  अधजली सिगरेट को बुझा कर जेब में रख लूं या नहीं ये सोच ही रहा था कि बराबर से जाते हुए एक भीमकाय सज्जन नहीं दुर्जन की कोहनी हाथ में  लगी और सिगरेट पकड़ से निकल गयी. अब बस न निकल जाये. मैंने मन ही मन अंदाजा लगाया कि ड्राइवर बस को कहाँ रोकेगा और भीड़ में शामिल हो गया लपक कर चड़ने के लिए.   पर नहीं. खोटी किस्मत .ये तो लेडीज स्पेशल निकली. स्टैंड पर २/३ ही लेडीज थी. चलो उस बुढ़िया को को जगह मिल गयी इस बस में.
पर शेड में मेरी सीट छीन चुकी थी. अब तो खड़े रह कर ही करना होगा बस का इंतजार. उफ़,ये मिश्रा कहाँ से आ गया. वही घिसा पिटा रिकॉर्ड लेकर बैठ जायेगा अपने बॉस के बारे में. मिश्रा कुछ कह रहा है पर मैं न कुछ सुन रहा हूँ न  सुनना  चाहता हूँ.  नींद भी हावी हो रही है. ये बस क्यों नहीं आ रही. चलो आज ऑटो ही सही. पर अब कोई ऑटो भी नहीं दिखाई देता. कोई ऑटो आते ही लपक लूँगा, भाड़ में जाय बस.  हाँ ये आ गया एक.  पर मेरी कालोनी में जाने से मना कर रहा है. आखिर मैं उसे पैसे दे रहा हूँ- इंकार कैसे कर सकता है.  मैं बहसियाना चाहता हूँ कि फिर एक उन्नीस नंबर दिखाई दी. छोडू इस ऑटो को ,पैसे भी बचेंगे. इस बस को अब नहीं छोड़ना.
अच्छी हाथापाई के बाद,चलने से पहले पायदान पर लटकने वालों में से मैं भी एक था. क्या सुकून मिला.  चलो अब बस ३५ मिनट की तो बात है.हाँ अब धीरे धीरे जगह भी बनती जा रही थी अन्दर जाने की. अन्दर कुछ बबल हो रहा था. शायद किसी की जेब कट गयी थी और वो कंडक्टर से झगड़ रहा था.
मैं ये अंदाजा लगाने की कोशिश कर रहा हूँ कि कौन सी सीट पहले खाली हो सकती है.पर face reading नहीं कर पा  रहा हूँ. लगता है आज ऐसे ही खड़े होकर जाना होगा. 'बेस्ट हॉस्पिटल कब आयेगा?'. एक लड़का किसी से पूंछ रहा है. पर जिससे पूंछा जा रहा है वो शायद सो रहा है .मैं आस पास धकियाते हुए उधर पहुंचता हूँ और उस लडके से बोलता हूँ, 'बस अभी खड़े हो जाओ और जब तक तुम गेट तक पहुंचोगे तुम्हारा स्टॉप आ जायेगा. लड़का झिझकते हुए उठता है  और उसके उठने से पहले ही  मैं उसकी सीट हथिया चुका होता हूँ.  पास खड़े जो दो लोग भी इसी सीट पर बैठेने की कोशिश कर रहे थे उनके मुंह लटक जाते हैं. मैं सोने की कोशिश करता हूँ -बस के झटकों के बाबजूद . अब कोई चिंता नहीं है. अपना तो वैसे भी लास्ट स्टॉप है. मैंने आंखे बंद कर ली हैं . हवा के झोंके अच्छे लग रहे हैं.न जाने कब नींद आ गयी.

'उतरना नहीं है क्या,ये लास्ट स्टॉप है' ,कंडक्टर मुझे जगा कर कह रहा है.
मैं अंगडाई लेकर बस छोड़ देता हूँ.


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सितारा

पैक अप होते ही भीड़ का एक रेला उसकी एक झलक पाने को सारे बंधन तोड़ कर उस तक पहुँचना चाहता था, मगर कार के दक्ष ड्राइवर ने सधे हुए नपे तुले हाथों से एक पल में ही गाड़ी ठीक उसके सामने लगा  दी,फिर लपक कर बड़ी नफासत से दरवाजा खोल कर खड़ा हो गया. पलक झपकते ही कार चल दी. वही बेजान सी सड़क. ट्रेफिक का वही चित परिचित शोर. करीने से लगी हुई वही स्ट्रीट लाइट की लाइन .ड्राइवर ने उसकी पसन्द का गाना लगा रखा था पर उसका मन उचट  हुआ था एक और बोझिल और यंत्रवत दिन की शूटिंग के बाद.
ऊपर असमान सितारों से भरा था ,मगर सितारों को देखा कर उसकी आँखों में वो चमक नहीं होती थी जो बचपन में हुआ करती थी. अब उसे रोशनी में जीने की आदत हो गयी थी.
बचपन में उसे कितना अच्छा लगता था  गर्मियों की शाम को जब खुले आँगन में वो चारपाई पर पड़े पड़े अनगिनत सितारे देखा करती थी. कितने सपने कितने ख़यालात बनते थे उन सितारों के आस पास. सोच कहाँ कहाँ दोड़ती थी. दिन में फ़िल्मी सितारों के आसपास और रात में आसमान के सितारों के आसपास- एक एक से वो घंटों बातें किया करती थी.
तब वो सोचती थी कि फ़िल्मी सितारों की जिन्दगी कितनी आरामदायक होती होगी. उनको कोई उलझन , कोई परेशानी नहीं होती होगी. पर कितना गलत थी वो. फ़िल्मी सितारा बनकर उसकी उलझने कितनी बढ गयी थी. हमेशा उलझनों में ही रहती थी वो तो अब. हाँ , पर उसे अपनी उलझाने छुपा कर बनावटी बातें बनाना आ गया था अब.  वो मस्ती, वो तफरी ,सब हवा हो गयी. जीवन में जो उमंग, जो रस था वो न जाने कहाँ चला गया था . अब तो एक निष्प्राण दिनचर्या थी.
आज कितने हे लोगों के ख्यालों में वो बसी थी ,राज कर रही थी. वो उसके बारे में न जाने क्या क्या सोचते होंगे, उसे सितारा समझ कर मचलते होंगे ,बच्चे भी ,बूढ़े भी. पर उसकी अपनी भावनाए कहाँ चली गयी? जिन्दगी कितनी ही नपी  तुली और बनावटी घटनाओं से भर गयी थी.
कितने ही clippings  flash back   की तरह से उसके आँखों के सामने से निकल गयीं  . उसका कमरा भरा हुआ फ़िल्मी पोस्टरों से. हर चेहरा एक नयी जिन्दगी की उमंग जगाता था , एक कहानी कहता था. हर नई फिल्म को पहले शो में  जाने को मचलना और तड़पना . टिकेट के लिए घंटों लाइन में खड़े रहना .कालेज से मीलों भाग कर घर से छुप छुप कर फिल्म देखने जाना. किसी फ़िल्मी सितारे को देख कर औटोग्राफ के लिए भागना. दिन भर कालेज में फिल्मों के बारे में बातें करना ,बहस करना.एक अजीब मस्ती ,नशा , खुमार सा था.

अब वो   ढूँढती  थी उस जीवन को रोज रोज की पार्टियों में ,जहाँ वहीघिसी पिटी बातें और वही   घिसे पिटे  charecters मिलते थे , चेहरे पर बनावटी मुस्कान लिए . शूटिंग में जहाँ सब कुछ पहले से ही तय होता है और भावनाएं  भी नकली होती  हैं .
क्या कुछ नहीं पा लिया उसने जीवन में - यश, धन. अब जो वो चाहती थी वही हाजिर हो जाता था पलक झपकते ही ,पर सारी चाहतें न जाने कहाँ गुम  होती जा रही थी.

सारे ख्यालों को एक तरफ झटक कर वो चल दी रात की पार्टी के लिए तैयार होने.

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