छोटी पैकिंग बड़ा दिमाग

हफ्ते भर में गोरा बनाने की क्रीम हो या बालों को लम्बा और मजबूत बनाने का शेम्पू , आज हर चीज आपको छोटे से शेशे में मिल जायेगी, एक-दो या पांच रूपये भर में. ये सुविधा सिर्फ महानगरों के शोरूम या मॉल में नहीं बल्कि छोटे से छोटे गोंव या कसबे में और आपके गली मोहल्ले के नुक्कड़ में भी आसानी से मिल जायेगी.
अगर पैकिंग को देखें तो उम्दा दर्जे की मिलेगी जिस पर अच्छा खासा खर्चा आता होगा. और इस एक दो रूपये के उत्पाद को आपको अपने  मनपसंद  सितारे  टेलीविजन , मैगजीन या बड़ी बड़ी होर्डिंग्स पर बेचते नजर आएंगे. सुना है इसके लिए वो करोडो रुपये लेते हैं. देश के कोने कोने में फैले हजारों या कभी कभी लाखों दुकानों और शोरूम तक रातों रात पहुँचने में कितना खर्चा आता होगा? और कंपनी के कितने ही अधिकारी जो लाखों रुपये (कभी कभी करोड़ों ) की तनखा वसूलते हैं इस उत्पाद को सफल बनाने में अपना समय देते होंगे. महंगे और नामी विशेषज्ञों की राय भी जरूर ली जाती होगी तगड़ी फीस अदा कर के.  इन सब के आलावा उसके बनाने में भी कुछ न कुछ तो खर्च होता ही होगा?

इन सब के बाद क्या एक रुपये की बिक्री में दस बीस पैसे बच जाता होगा,सरकार को सारे टैक्स देने के बाद?

विज्ञान ,तकनीक और नेटवर्किंग की इस आधुनिक दुनिया का ये अदभुद महागाणित है.

अपनी बात

एक छोटी सी कहानी से अपनी बात शुरू करना चाहता हूँ --
काफी पहले के समय की बात है, एक आदमी अपनी मंजिल की तरफ जा रहा था. उसे जल्दी ही एक गाँव में पहुंचना था. गलियों और पगडंडियों से होता वो  तेजी से चल रहा था. उस ज़माने में लोग रास्ता मील या किलोमीटर में नहीं नापते थे. इनका अभी अविष्कार भी नहीं हुआ था.  अब सुनकर शायद अटपट अलगे पर उस वक्त रास्ता नापने के लिए समय के सन्दर्भ में बात की जाती थी - जैसे फलां जगह जाने में २ घंटे लगेंगे या ३ दिन लगेंगे.
खैर, सूनसान रास्ते पर चलते हुए उस आदमी को एक जगह एक आदमी बैठा दिखाई दिया. अपनी मंजिल की दूरी जानने के लिए इसने सवाल किया, भैया ,फलां गाँव कितनी दूर है? पर उसे कोई  जबाब नहीं मिला. 'शायद वो आदमी जिससे उसने रास्ता पूंछा है बहरा होगा',उसने सोचा.
थोड़ी ही देर में उस आदमी ने जिसको वह बहरा समझ रहा था पीछे से आवाज लगाई ,'ओ अजनबी ,आधे घंटे में तुम अपनी मंजिल तक पहुँच जाओगे. ये सुन कर वो बड़ा हैरान हुआ और उसे गुस्सा भी आया. उसने झल्लाकर कहा, 'ये बात तुम पहले नहीं बता सकते थे! '. इसका जो जबाब उसे मिला वह विचारणीय है. उसने कहा ,'जब तक मैं तुम्हारी चाल नहीं देख लेता कैसे बताता कि वहां पहुँचने में कितना समय लगेगा'.  

जमाना चाहे कितना ही बदल गया हो पर उससे इस बात का महत्त्व काम नहीं हो जाता कि हम किसी दूसरे को कुछ बताते समय अपने मापदंडों पर तोल कर बताने की बजाय उन मापदंडों की जानकारी हासिल करें जिसे दूसरा आदमी समझ सके.

आज जमाना बहुत तरक्की कर चुका है पर दूसरे क्या हम अपनी बात दूसरों के सामने रखते हुए इस पर विचार करते हैं कि उनके सन्दर्भ में हमारे पास अपनी बात रखने के लिए सामर्थ्य है या नहीं. मैंने बड़े बड़े मंचों से कई लोगों को लम्बी लम्बी बातें करते सुना है. पर वो ये भूल जाते हैं कि उनकी बातों का सटीक असर तभी हो सकता है जब वे  उसी  भाषा और सन्दर्भ में बात करे जिसमें सुनने वाले लोगों की समझ में आसानी से आ जाये. 

क्या मेरी ये बात आपकी समझ में आयी?
 या मैं भी उसी दोष से पीड़ित हूँ जिसकी मैं आलोचना कर रहा हूँ?

भूख

छोटू और लम्बू एक छोटे से गाँव में रहते थे और अक्सर शहर जाकर पैसा कमाने की बातें किया करते थे. एक दिन दोनों ने आपस में सलाह कर शहर जाने का फैसला किया. छोटू ने खूब घी डाल कर १०० लड्डू बनाये तो लम्बू भी कहाँ पीछे रहने वाला था, उसने १०० पेड़े बना डाले.
अपनी अपनी  मिठाई को एक एक टोकरी मैं डाल कर दोनों ने अपने अपने सर पर रख लिया और सुबह सुबह चल पड़े शहर के रास्ते पर. रास्ता लम्बा था,थोड़ी देर चल कर दोनों को भूख लग आइ. दोनों ने पहले पहले सोचा ,'क्यों न अपनी मिठाई से कुछ खा लिया जाय'. पर हिम्मत नहीं कर सके अपने ही माल को हाथ लगाने की ,जो ग्राहकों के वास्ते रखा था और जिससे कमाई होनी थी. आखिर धंधा करना और पैसा जो कमाना था.
छोटू की जेब में एक रूपया पड़ा था. पर रास्ते में कोई दुकान नहीं थी. उसे एक तरकीब  सूझी. उसने एक रुपया लम्बू को देते हुए कहा , 'एक रूपये के पेड़े देना'. लम्बू ने रुपया जेब में रख कर एक पेढा  उसे दे दिया. आखिर उसकी कमाई तो शहर पहुँचने से पहले ही शुरू हो गयी.
थोड़ी देर बाद लम्बू ने सोचा,'जो काम छोटू ने किया वो तो मैं भी कर सकता हूँ.  इससे भूख भे कुछ काम को जायेगी.' उसने वही रुपया वापस करते हुए छोटू से एक लड्डू खरीदकर खा लिया.
एक रास्ता दिखाई दे जाने पर आदमी उस पर आंख मीच कर चलने लगता है. छोटू और लम्बू के बीच मिठाई खरीदकर खाने का जो सिलसिला शुरू हुआ असकी भेंट उन दोनों के १०० -१०० लड्डू और पेड़े चढ़ गए.
जब दोपहर को वो दोनों शहर पहुंचे तो दोनों की टोकरी खाली थी.
दोनों तब से इस पहेली का हल निकालने के लिए लड़ रहे है कि कमाई तो सिर्फ एक रूपये की (वो भी एक को ही )  हुई ,पर माल सारा ख़त्म कैसे हो गया और बईमानी किसकी थी .
छोटू - लम्बू को छोडिये ,क्या हम लोगों के साथ भी कई बार ऐसा नहीं होता? जिन्दगी में कुछ कमाने के लिए थोड़ी सी पूंजी जुटाते है और बड़ी कमाई के ख्वाब भी देख लेते हैं. पर इससे पहले कि हम पहले ग्राहक के दर्शन कर सके, दूसरों के उकसाने पर और अपनी खुद की भूख को शांत करने के चक्कर में कब अपनी पूंजी लुटा  बैठते  हैं, इसका  पता लगते लगते देर हो जाती है. और भूख का भी कुछ ठिकाना नहीं. न मिले  तो थोड़े में गुजरा हो जाता है और मिल जाय तो भूख भी बढ जाती है. शायद इसी लिए पेट को पापी पेट कह कर भी याद किया जाता है.
जिन्दगी में इस बात का फैसला बड़ा अहम् है कि जो कुछ हमें उपलब्ध है उसका कितना हिस्सा हम अपनी भूख मिटाने के लिए इस्तेमाल करें और कितना अपने व्यवसाय में लगाये जिससे हमारे आगे आने वाला समय खुशहाल हो सके.
           

चमचा

मै एक चमचा हूँ.
कई लोग कहते हैं कि में सबसे अलग हूँ. पर मै अपने को औरों जैसा ही महसूस करता हूँ.
निस्वार्थ सेवा ही मेरा धर्म है जो मैंने अपने पुरखों से सीखा है.

सेवा के लिए मै अपने से काफी बड़ा एक और बर्तन ढून्ढ लेता हूँ जैसे कढ़ाई ,परात या हांडी. (एक बड़े बर्तन से जुड़ने से  सेवा मैं आसानी रहते है ऐसा हमारे पूर्वजों ने बताया है).  बस उसके चरणों को बार बार छूता हूँ अपने सर के बल लेट कर. यह समर्पण का महानतम भाव है जिसे साष्टांग प्रणाम भी कहा जाता है. ये प्रणाम मैं बार बार लगातार करता रहता हूँ. इसमे मुझे कोई थकान नहीं होती बल्कि मजा आता है. इस बड़े बर्तन को मैं अपना स्वामी मानता हूँ.

सेवा का भाव मुझमे इतना कूट कूट कर भरा है कि मेरा हर काम अपने लिए न होकर उन जरुअतों  के लिए होता है जो मेरे स्वामी को होती  हैं. जब भी मेरे स्वामी को मेरी सेवाओं की जरूरत होती है मैं दोड़ पड़ता हूँ. मेरे स्वामी के पास जो भी माल होता है उसे मैं अपना ही समझता हूँ और उसकी हिफाजत के लिए  जान लगा देता हूँ. माल के जिस हिस्से में आग से जलने का खतरा हो उसे सूंघ कर मैं पहले से वहां पहुँच कर उसे दूसरी तरफ पहुंचा देता हूँ. माल के साथ लोट पोट कर मैं बड़ा सकूं महसूस करता हूँ.

अपने स्वामी की सेवा का कोई मौका मैं नहीं छोड़ता. पर अगर दूसरा कई ये गुस्ताखी करे तो मुझे बर्दाश्त नहीं. चमचागिरी हमारा पुश्तेनी काम है और अपने कार्य-क्षेत्र में किसी दूसरे को ये हक़ मैं नहीं लेने दे सकता.

मेरे स्वामी भी इतने भले हैं कि उन्हें जब भी किसी को कुछ देना होता है तो वो इस काम को मेरे माध्यम से ही करते हैं. पर बहुत से लोग इस बात को लेकर जलते हैं कि जो माल मेरा नहीं है उसे मैं ऐसे बांटता हूँ जैसे मेरा ही हो. अपने स्वामी के साथ मेरे रिश्तों को लेकर भी टुच्चे लोग वाहियात बातें किया करते हैं पर मैं उन पर ध्यान नहीं देता.

हालांकी मेरे माध्यम से सबको कुछ न कुछ मिलता ही है पर इस पर भी लोग पीठ पीछे  मेरी  बुराइयाँ   करते रहते हैं. मेरी सेवा का महत्त्व आम दुनियादार लोगों को समझ में आने से रहा.

इश्वर मुझे और सेवा की शक्ति दे.

बस के इंतजार में

'उन्नीस नंबर की फ़्रीक़ुएन्सी क्या है?', उसी आवाज ने दूसरी बार ये सवाल किया था. शायद सवाल मुझसे ही पूंछा जा रहा था. मैंने काले रंग की उस लम्बी सी कार को घूरना बंद किया   जिसका  ड्राईवर  गुनगुनाते  हुए  उसे  पोंछ रहा  था. गर्दन टेड़ी की तो देखा एक मोटा आदमी  एक हाथ  में सोफ्टी  लिए  आंखे  फाड़े  मेरी  तरफ देख रहा था. 'दो सवारी वाली सीट पर भी बैठा तो कुछ हिस्सा छूट कार लटक जायेगा, इतना मोटू है' ,मैंने सोचा (और ये भी कि 'सीट मिलाने का चांस काम किये दे रहा है') .'बीस मिनट', मैंने लापरवाही से कहा.

सामने से लड़कियों का एक झुण्ड आ रहा था. आंखे अपने आप ही उधर फोकस हो गयीं. कुछ के कपडे उल जलूल थे और मेरी समझ से बाहर. 'ये इस बस स्टैंड पर तो रुकने वाली नहीं दिखती', मैंने सोचा,'कुछ ही सेकंड्स मैं ओझल हो जायेंगी'.निगाहों के घुमाने का path और स्पीड क्या हो ,ये mind के कंप्यूटर ने पहले ही कम्पयूट किया हुआ था जिससे maximum तृप्ति मिले.
तभी एक डबल देकर आकर आँखों के सामने आकर खड़ी हो गयी. खाली सी थी. आनन फानन में भीड़ के झोंके आये और उसे भरने लगे .'अशोक नगर तो ये भी जायेगी और वहां से १२० नंबर मिल जायेगी ,फिर १० मिनट ही तो पैदल चलना होगा. क्यों न इसी से चला जाय ,१९ नंबर का तो कोइ भरोसा नहीं', ये फैसला करने में मैंने गलती से ३-४ सेकंड ले लिए थे और इतने मैं डबल डेकर पूरी भर चुकी थी. अब भी कोशिश करूँ तो अन्दर घुस सकता हूँ पर कसरत अच्छी हो जायेगी जिसका मूड नहीं था.
वो चश्मे वाली बुढ़िया जो छोटे बच्चे  की उंगली पकडे काफी देर से हर बस में जाने की कोशिश कार रही थी ,इस बार भी चढ़ने  में कामयाब नहीं हुई. इस तेज भीड़ के सैलाब को उसकी कमजोर हड्डी कैसे झेलेंगी?
डबल डेकर के जाते ही शांति सी हुई. इसको शांति कहना ठीक है या नहीं,ये तो मुझे नहीं मालूम पर शोर के इस लेविल के कान आदी हो गए हैं इस महानगर में.
आते जाते ऑटो रिक्शा वाले बस स्टैंड के पास आकर धीरे हो जाते और हसरत भरी निगाहों से देखते कि किस सवारी के सब्र का प्याला छलक जाये और वो अपने पर्स से परमीशन लेकर बस का इंतजार छोड़ ऑटो लेने का इरादा कर बैठे.   
काले रंग की लम्बी कार का ड्राईवर अब गुनगुना नहीं रहा था. वो पीछे का दरवाजा खोलने की कोशिश कर रहा था. शायद कार का मालिक आ गया था. मालिक नहीं मालकिन थी. छतरी की वजह से चेहरा पूरा नहीं दिखाई दे रहा था. पर छतरी को बड़ी नफासत से पकड़ा था. स्लीवलेस से जो गोरी बाहें झांक  रही थी शायद उन्हें हमेशा  गोरा रखने की चाह  में  इस मामूली धूप में भी छतरी के इस्तेमाल का फैसला किया होगा. काले रंग की background , सुनहरा बदन और गुलाबी कपड़े  . कैमरा  होता तो फोटो लेता -exhibition  में रखने लायक होता. मैं सोचता ही रह गया और काली कार मैडम को लेकर चली भी गयी.
फिर वही चिर परिचित शोर ,वही बोझिल इंतजार के पल जो रोज आफिस आने और जाने पर आते थे. वही बस का इंतजार जो कभी कभी पलों से घंटों में बदल जाता था, जैसा आज होने जा रहा था. लंच के बाद छुट्टी का क्या फायदा हुआ?  घर पहुँचते  पहुँचते वही टाइम हो जायेगा.  लंच अवर में बसें  कितना कम  चलती हैं, ये मुझे पहले सोचना चाहिए था और प्लाज़ा में 'आजा मेरे साथ' देख कार ही जाना चाहिए था. टिकट भी मिल रहे थे और हरीश और अमिता जिद भी कर रहे थे. पर मुझे तो नहा धो कर ३/४ घंटे की नींद की तलब थी. पिछले पूरे हफ्ते किसी न किसी वजह से नींद पूरी नहीं हुई थी. आज के हाफ डे को नींद के नाम रखा था पर हाय री किस्मत, बस का इंतजार क्या रंग दिखलायेगा. इससे तो पिक्चर हाल में ही सो लेता , AC में रहता और पैसे भी ऑटो के किराये से आधे ही लगते. पर आइडिये मुझे लेट ही आते थे. शायद इस दुनिया में मैं लेट ही पैदा हुआ था. पर इसमे मैं क्या कर सकता हूँ. गलती जरूर नर्स की रही होगी.

ये खरखराती सी आवाज क्या है? ओह, वो मरियल ठिगना देहाती उस पानी वाले से झगड़ रहा है पैसों को लेकर.रमेश ठीक ही कहता है ,'पैसा और औरत अगर अपने पास हों तो सुख मिलता है और  दूसरों के पास देख कर आँखों में चुभते हैं.'
ये दिमाग सोचना बंद क्यों नहीं कर देता थोड़ी देर के लिए.इस शहर में ,इस भागती सी दुनियां में मिनट भर में सेकड़ो चेहरे और कितने हादसे गुजर जाते हैं आँखों के सामने से .क्यों हर चीस भेजे में भरी किसी याद को ठोकर  मारती सी लगती है. मैंने क्या ठेका ले रखा है सारी दुनियां के बारे में सोचने का. मुझे बस नींद चाहिए अभी.लगता है ऑटो ही कर लेना चाहिए. नहीं, थोडा और इंतजार करता हूँ बस का.
'माचिस होगी क्या?', कोई मेरा कन्धा हिला कर पूंछ रहा था पीछे  से. हाँ ,क्यों न सिगरेट पी जाये. नींद के झोंको पर भी काबू आ जायेगा. जेबें टटोली तो मुड़ा तुड़ा पेकेट हाथ में आया. और सिगरेट लेने के लिए उस नुक्कड़ की दुकान तक जाना होगापर सीट चली जायेगी  इस शेड के नीचे से या फिर बस ही मिस न हो जाये उसके चक्कर में. पेकेट से निकाल कर देखा तो २ सिगरेट शहीद हो चुकीं थी और एक में कुछ जान बाकी थी. थोड़ी मालिश से कामचलाऊ खड़ी हो जायेगी. बस हो गया काम. उसे जला कर  lighter जेब में डाल ही रहा था कि  पीछे से कोई कन्धा हिला रहा था इसे मांगने के लिए . मुंह में अधजली सिगरेट लगाये कोई अधेड़ था. 'मुंह से बोल कर भी तो मांग सकते थे', मैंने हाथ झटक दिया उसका.
५ या ६ कश ही लगा पाया था कि उन्नीस नंबर की झलक दिखाई दी.  अधजली सिगरेट को बुझा कर जेब में रख लूं या नहीं ये सोच ही रहा था कि बराबर से जाते हुए एक भीमकाय सज्जन नहीं दुर्जन की कोहनी हाथ में  लगी और सिगरेट पकड़ से निकल गयी. अब बस न निकल जाये. मैंने मन ही मन अंदाजा लगाया कि ड्राइवर बस को कहाँ रोकेगा और भीड़ में शामिल हो गया लपक कर चड़ने के लिए.   पर नहीं. खोटी किस्मत .ये तो लेडीज स्पेशल निकली. स्टैंड पर २/३ ही लेडीज थी. चलो उस बुढ़िया को को जगह मिल गयी इस बस में.
पर शेड में मेरी सीट छीन चुकी थी. अब तो खड़े रह कर ही करना होगा बस का इंतजार. उफ़,ये मिश्रा कहाँ से आ गया. वही घिसा पिटा रिकॉर्ड लेकर बैठ जायेगा अपने बॉस के बारे में. मिश्रा कुछ कह रहा है पर मैं न कुछ सुन रहा हूँ न  सुनना  चाहता हूँ.  नींद भी हावी हो रही है. ये बस क्यों नहीं आ रही. चलो आज ऑटो ही सही. पर अब कोई ऑटो भी नहीं दिखाई देता. कोई ऑटो आते ही लपक लूँगा, भाड़ में जाय बस.  हाँ ये आ गया एक.  पर मेरी कालोनी में जाने से मना कर रहा है. आखिर मैं उसे पैसे दे रहा हूँ- इंकार कैसे कर सकता है.  मैं बहसियाना चाहता हूँ कि फिर एक उन्नीस नंबर दिखाई दी. छोडू इस ऑटो को ,पैसे भी बचेंगे. इस बस को अब नहीं छोड़ना.
अच्छी हाथापाई के बाद,चलने से पहले पायदान पर लटकने वालों में से मैं भी एक था. क्या सुकून मिला.  चलो अब बस ३५ मिनट की तो बात है.हाँ अब धीरे धीरे जगह भी बनती जा रही थी अन्दर जाने की. अन्दर कुछ बबल हो रहा था. शायद किसी की जेब कट गयी थी और वो कंडक्टर से झगड़ रहा था.
मैं ये अंदाजा लगाने की कोशिश कर रहा हूँ कि कौन सी सीट पहले खाली हो सकती है.पर face reading नहीं कर पा  रहा हूँ. लगता है आज ऐसे ही खड़े होकर जाना होगा. 'बेस्ट हॉस्पिटल कब आयेगा?'. एक लड़का किसी से पूंछ रहा है. पर जिससे पूंछा जा रहा है वो शायद सो रहा है .मैं आस पास धकियाते हुए उधर पहुंचता हूँ और उस लडके से बोलता हूँ, 'बस अभी खड़े हो जाओ और जब तक तुम गेट तक पहुंचोगे तुम्हारा स्टॉप आ जायेगा. लड़का झिझकते हुए उठता है  और उसके उठने से पहले ही  मैं उसकी सीट हथिया चुका होता हूँ.  पास खड़े जो दो लोग भी इसी सीट पर बैठेने की कोशिश कर रहे थे उनके मुंह लटक जाते हैं. मैं सोने की कोशिश करता हूँ -बस के झटकों के बाबजूद . अब कोई चिंता नहीं है. अपना तो वैसे भी लास्ट स्टॉप है. मैंने आंखे बंद कर ली हैं . हवा के झोंके अच्छे लग रहे हैं.न जाने कब नींद आ गयी.

'उतरना नहीं है क्या,ये लास्ट स्टॉप है' ,कंडक्टर मुझे जगा कर कह रहा है.
मैं अंगडाई लेकर बस छोड़ देता हूँ.


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सितारा

पैक अप होते ही भीड़ का एक रेला उसकी एक झलक पाने को सारे बंधन तोड़ कर उस तक पहुँचना चाहता था, मगर कार के दक्ष ड्राइवर ने सधे हुए नपे तुले हाथों से एक पल में ही गाड़ी ठीक उसके सामने लगा  दी,फिर लपक कर बड़ी नफासत से दरवाजा खोल कर खड़ा हो गया. पलक झपकते ही कार चल दी. वही बेजान सी सड़क. ट्रेफिक का वही चित परिचित शोर. करीने से लगी हुई वही स्ट्रीट लाइट की लाइन .ड्राइवर ने उसकी पसन्द का गाना लगा रखा था पर उसका मन उचट  हुआ था एक और बोझिल और यंत्रवत दिन की शूटिंग के बाद.
ऊपर असमान सितारों से भरा था ,मगर सितारों को देखा कर उसकी आँखों में वो चमक नहीं होती थी जो बचपन में हुआ करती थी. अब उसे रोशनी में जीने की आदत हो गयी थी.
बचपन में उसे कितना अच्छा लगता था  गर्मियों की शाम को जब खुले आँगन में वो चारपाई पर पड़े पड़े अनगिनत सितारे देखा करती थी. कितने सपने कितने ख़यालात बनते थे उन सितारों के आस पास. सोच कहाँ कहाँ दोड़ती थी. दिन में फ़िल्मी सितारों के आसपास और रात में आसमान के सितारों के आसपास- एक एक से वो घंटों बातें किया करती थी.
तब वो सोचती थी कि फ़िल्मी सितारों की जिन्दगी कितनी आरामदायक होती होगी. उनको कोई उलझन , कोई परेशानी नहीं होती होगी. पर कितना गलत थी वो. फ़िल्मी सितारा बनकर उसकी उलझने कितनी बढ गयी थी. हमेशा उलझनों में ही रहती थी वो तो अब. हाँ , पर उसे अपनी उलझाने छुपा कर बनावटी बातें बनाना आ गया था अब.  वो मस्ती, वो तफरी ,सब हवा हो गयी. जीवन में जो उमंग, जो रस था वो न जाने कहाँ चला गया था . अब तो एक निष्प्राण दिनचर्या थी.
आज कितने हे लोगों के ख्यालों में वो बसी थी ,राज कर रही थी. वो उसके बारे में न जाने क्या क्या सोचते होंगे, उसे सितारा समझ कर मचलते होंगे ,बच्चे भी ,बूढ़े भी. पर उसकी अपनी भावनाए कहाँ चली गयी? जिन्दगी कितनी ही नपी  तुली और बनावटी घटनाओं से भर गयी थी.
कितने ही clippings  flash back   की तरह से उसके आँखों के सामने से निकल गयीं  . उसका कमरा भरा हुआ फ़िल्मी पोस्टरों से. हर चेहरा एक नयी जिन्दगी की उमंग जगाता था , एक कहानी कहता था. हर नई फिल्म को पहले शो में  जाने को मचलना और तड़पना . टिकेट के लिए घंटों लाइन में खड़े रहना .कालेज से मीलों भाग कर घर से छुप छुप कर फिल्म देखने जाना. किसी फ़िल्मी सितारे को देख कर औटोग्राफ के लिए भागना. दिन भर कालेज में फिल्मों के बारे में बातें करना ,बहस करना.एक अजीब मस्ती ,नशा , खुमार सा था.

अब वो   ढूँढती  थी उस जीवन को रोज रोज की पार्टियों में ,जहाँ वहीघिसी पिटी बातें और वही   घिसे पिटे  charecters मिलते थे , चेहरे पर बनावटी मुस्कान लिए . शूटिंग में जहाँ सब कुछ पहले से ही तय होता है और भावनाएं  भी नकली होती  हैं .
क्या कुछ नहीं पा लिया उसने जीवन में - यश, धन. अब जो वो चाहती थी वही हाजिर हो जाता था पलक झपकते ही ,पर सारी चाहतें न जाने कहाँ गुम  होती जा रही थी.

सारे ख्यालों को एक तरफ झटक कर वो चल दी रात की पार्टी के लिए तैयार होने.

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