बस के इंतजार में

'उन्नीस नंबर की फ़्रीक़ुएन्सी क्या है?', उसी आवाज ने दूसरी बार ये सवाल किया था. शायद सवाल मुझसे ही पूंछा जा रहा था. मैंने काले रंग की उस लम्बी सी कार को घूरना बंद किया   जिसका  ड्राईवर  गुनगुनाते  हुए  उसे  पोंछ रहा  था. गर्दन टेड़ी की तो देखा एक मोटा आदमी  एक हाथ  में सोफ्टी  लिए  आंखे  फाड़े  मेरी  तरफ देख रहा था. 'दो सवारी वाली सीट पर भी बैठा तो कुछ हिस्सा छूट कार लटक जायेगा, इतना मोटू है' ,मैंने सोचा (और ये भी कि 'सीट मिलाने का चांस काम किये दे रहा है') .'बीस मिनट', मैंने लापरवाही से कहा.

सामने से लड़कियों का एक झुण्ड आ रहा था. आंखे अपने आप ही उधर फोकस हो गयीं. कुछ के कपडे उल जलूल थे और मेरी समझ से बाहर. 'ये इस बस स्टैंड पर तो रुकने वाली नहीं दिखती', मैंने सोचा,'कुछ ही सेकंड्स मैं ओझल हो जायेंगी'.निगाहों के घुमाने का path और स्पीड क्या हो ,ये mind के कंप्यूटर ने पहले ही कम्पयूट किया हुआ था जिससे maximum तृप्ति मिले.
तभी एक डबल देकर आकर आँखों के सामने आकर खड़ी हो गयी. खाली सी थी. आनन फानन में भीड़ के झोंके आये और उसे भरने लगे .'अशोक नगर तो ये भी जायेगी और वहां से १२० नंबर मिल जायेगी ,फिर १० मिनट ही तो पैदल चलना होगा. क्यों न इसी से चला जाय ,१९ नंबर का तो कोइ भरोसा नहीं', ये फैसला करने में मैंने गलती से ३-४ सेकंड ले लिए थे और इतने मैं डबल डेकर पूरी भर चुकी थी. अब भी कोशिश करूँ तो अन्दर घुस सकता हूँ पर कसरत अच्छी हो जायेगी जिसका मूड नहीं था.
वो चश्मे वाली बुढ़िया जो छोटे बच्चे  की उंगली पकडे काफी देर से हर बस में जाने की कोशिश कार रही थी ,इस बार भी चढ़ने  में कामयाब नहीं हुई. इस तेज भीड़ के सैलाब को उसकी कमजोर हड्डी कैसे झेलेंगी?
डबल डेकर के जाते ही शांति सी हुई. इसको शांति कहना ठीक है या नहीं,ये तो मुझे नहीं मालूम पर शोर के इस लेविल के कान आदी हो गए हैं इस महानगर में.
आते जाते ऑटो रिक्शा वाले बस स्टैंड के पास आकर धीरे हो जाते और हसरत भरी निगाहों से देखते कि किस सवारी के सब्र का प्याला छलक जाये और वो अपने पर्स से परमीशन लेकर बस का इंतजार छोड़ ऑटो लेने का इरादा कर बैठे.   
काले रंग की लम्बी कार का ड्राईवर अब गुनगुना नहीं रहा था. वो पीछे का दरवाजा खोलने की कोशिश कर रहा था. शायद कार का मालिक आ गया था. मालिक नहीं मालकिन थी. छतरी की वजह से चेहरा पूरा नहीं दिखाई दे रहा था. पर छतरी को बड़ी नफासत से पकड़ा था. स्लीवलेस से जो गोरी बाहें झांक  रही थी शायद उन्हें हमेशा  गोरा रखने की चाह  में  इस मामूली धूप में भी छतरी के इस्तेमाल का फैसला किया होगा. काले रंग की background , सुनहरा बदन और गुलाबी कपड़े  . कैमरा  होता तो फोटो लेता -exhibition  में रखने लायक होता. मैं सोचता ही रह गया और काली कार मैडम को लेकर चली भी गयी.
फिर वही चिर परिचित शोर ,वही बोझिल इंतजार के पल जो रोज आफिस आने और जाने पर आते थे. वही बस का इंतजार जो कभी कभी पलों से घंटों में बदल जाता था, जैसा आज होने जा रहा था. लंच के बाद छुट्टी का क्या फायदा हुआ?  घर पहुँचते  पहुँचते वही टाइम हो जायेगा.  लंच अवर में बसें  कितना कम  चलती हैं, ये मुझे पहले सोचना चाहिए था और प्लाज़ा में 'आजा मेरे साथ' देख कार ही जाना चाहिए था. टिकट भी मिल रहे थे और हरीश और अमिता जिद भी कर रहे थे. पर मुझे तो नहा धो कर ३/४ घंटे की नींद की तलब थी. पिछले पूरे हफ्ते किसी न किसी वजह से नींद पूरी नहीं हुई थी. आज के हाफ डे को नींद के नाम रखा था पर हाय री किस्मत, बस का इंतजार क्या रंग दिखलायेगा. इससे तो पिक्चर हाल में ही सो लेता , AC में रहता और पैसे भी ऑटो के किराये से आधे ही लगते. पर आइडिये मुझे लेट ही आते थे. शायद इस दुनिया में मैं लेट ही पैदा हुआ था. पर इसमे मैं क्या कर सकता हूँ. गलती जरूर नर्स की रही होगी.

ये खरखराती सी आवाज क्या है? ओह, वो मरियल ठिगना देहाती उस पानी वाले से झगड़ रहा है पैसों को लेकर.रमेश ठीक ही कहता है ,'पैसा और औरत अगर अपने पास हों तो सुख मिलता है और  दूसरों के पास देख कर आँखों में चुभते हैं.'
ये दिमाग सोचना बंद क्यों नहीं कर देता थोड़ी देर के लिए.इस शहर में ,इस भागती सी दुनियां में मिनट भर में सेकड़ो चेहरे और कितने हादसे गुजर जाते हैं आँखों के सामने से .क्यों हर चीस भेजे में भरी किसी याद को ठोकर  मारती सी लगती है. मैंने क्या ठेका ले रखा है सारी दुनियां के बारे में सोचने का. मुझे बस नींद चाहिए अभी.लगता है ऑटो ही कर लेना चाहिए. नहीं, थोडा और इंतजार करता हूँ बस का.
'माचिस होगी क्या?', कोई मेरा कन्धा हिला कर पूंछ रहा था पीछे  से. हाँ ,क्यों न सिगरेट पी जाये. नींद के झोंको पर भी काबू आ जायेगा. जेबें टटोली तो मुड़ा तुड़ा पेकेट हाथ में आया. और सिगरेट लेने के लिए उस नुक्कड़ की दुकान तक जाना होगापर सीट चली जायेगी  इस शेड के नीचे से या फिर बस ही मिस न हो जाये उसके चक्कर में. पेकेट से निकाल कर देखा तो २ सिगरेट शहीद हो चुकीं थी और एक में कुछ जान बाकी थी. थोड़ी मालिश से कामचलाऊ खड़ी हो जायेगी. बस हो गया काम. उसे जला कर  lighter जेब में डाल ही रहा था कि  पीछे से कोई कन्धा हिला रहा था इसे मांगने के लिए . मुंह में अधजली सिगरेट लगाये कोई अधेड़ था. 'मुंह से बोल कर भी तो मांग सकते थे', मैंने हाथ झटक दिया उसका.
५ या ६ कश ही लगा पाया था कि उन्नीस नंबर की झलक दिखाई दी.  अधजली सिगरेट को बुझा कर जेब में रख लूं या नहीं ये सोच ही रहा था कि बराबर से जाते हुए एक भीमकाय सज्जन नहीं दुर्जन की कोहनी हाथ में  लगी और सिगरेट पकड़ से निकल गयी. अब बस न निकल जाये. मैंने मन ही मन अंदाजा लगाया कि ड्राइवर बस को कहाँ रोकेगा और भीड़ में शामिल हो गया लपक कर चड़ने के लिए.   पर नहीं. खोटी किस्मत .ये तो लेडीज स्पेशल निकली. स्टैंड पर २/३ ही लेडीज थी. चलो उस बुढ़िया को को जगह मिल गयी इस बस में.
पर शेड में मेरी सीट छीन चुकी थी. अब तो खड़े रह कर ही करना होगा बस का इंतजार. उफ़,ये मिश्रा कहाँ से आ गया. वही घिसा पिटा रिकॉर्ड लेकर बैठ जायेगा अपने बॉस के बारे में. मिश्रा कुछ कह रहा है पर मैं न कुछ सुन रहा हूँ न  सुनना  चाहता हूँ.  नींद भी हावी हो रही है. ये बस क्यों नहीं आ रही. चलो आज ऑटो ही सही. पर अब कोई ऑटो भी नहीं दिखाई देता. कोई ऑटो आते ही लपक लूँगा, भाड़ में जाय बस.  हाँ ये आ गया एक.  पर मेरी कालोनी में जाने से मना कर रहा है. आखिर मैं उसे पैसे दे रहा हूँ- इंकार कैसे कर सकता है.  मैं बहसियाना चाहता हूँ कि फिर एक उन्नीस नंबर दिखाई दी. छोडू इस ऑटो को ,पैसे भी बचेंगे. इस बस को अब नहीं छोड़ना.
अच्छी हाथापाई के बाद,चलने से पहले पायदान पर लटकने वालों में से मैं भी एक था. क्या सुकून मिला.  चलो अब बस ३५ मिनट की तो बात है.हाँ अब धीरे धीरे जगह भी बनती जा रही थी अन्दर जाने की. अन्दर कुछ बबल हो रहा था. शायद किसी की जेब कट गयी थी और वो कंडक्टर से झगड़ रहा था.
मैं ये अंदाजा लगाने की कोशिश कर रहा हूँ कि कौन सी सीट पहले खाली हो सकती है.पर face reading नहीं कर पा  रहा हूँ. लगता है आज ऐसे ही खड़े होकर जाना होगा. 'बेस्ट हॉस्पिटल कब आयेगा?'. एक लड़का किसी से पूंछ रहा है. पर जिससे पूंछा जा रहा है वो शायद सो रहा है .मैं आस पास धकियाते हुए उधर पहुंचता हूँ और उस लडके से बोलता हूँ, 'बस अभी खड़े हो जाओ और जब तक तुम गेट तक पहुंचोगे तुम्हारा स्टॉप आ जायेगा. लड़का झिझकते हुए उठता है  और उसके उठने से पहले ही  मैं उसकी सीट हथिया चुका होता हूँ.  पास खड़े जो दो लोग भी इसी सीट पर बैठेने की कोशिश कर रहे थे उनके मुंह लटक जाते हैं. मैं सोने की कोशिश करता हूँ -बस के झटकों के बाबजूद . अब कोई चिंता नहीं है. अपना तो वैसे भी लास्ट स्टॉप है. मैंने आंखे बंद कर ली हैं . हवा के झोंके अच्छे लग रहे हैं.न जाने कब नींद आ गयी.

'उतरना नहीं है क्या,ये लास्ट स्टॉप है' ,कंडक्टर मुझे जगा कर कह रहा है.
मैं अंगडाई लेकर बस छोड़ देता हूँ.


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