चमचा

मै एक चमचा हूँ.
कई लोग कहते हैं कि में सबसे अलग हूँ. पर मै अपने को औरों जैसा ही महसूस करता हूँ.
निस्वार्थ सेवा ही मेरा धर्म है जो मैंने अपने पुरखों से सीखा है.

सेवा के लिए मै अपने से काफी बड़ा एक और बर्तन ढून्ढ लेता हूँ जैसे कढ़ाई ,परात या हांडी. (एक बड़े बर्तन से जुड़ने से  सेवा मैं आसानी रहते है ऐसा हमारे पूर्वजों ने बताया है).  बस उसके चरणों को बार बार छूता हूँ अपने सर के बल लेट कर. यह समर्पण का महानतम भाव है जिसे साष्टांग प्रणाम भी कहा जाता है. ये प्रणाम मैं बार बार लगातार करता रहता हूँ. इसमे मुझे कोई थकान नहीं होती बल्कि मजा आता है. इस बड़े बर्तन को मैं अपना स्वामी मानता हूँ.

सेवा का भाव मुझमे इतना कूट कूट कर भरा है कि मेरा हर काम अपने लिए न होकर उन जरुअतों  के लिए होता है जो मेरे स्वामी को होती  हैं. जब भी मेरे स्वामी को मेरी सेवाओं की जरूरत होती है मैं दोड़ पड़ता हूँ. मेरे स्वामी के पास जो भी माल होता है उसे मैं अपना ही समझता हूँ और उसकी हिफाजत के लिए  जान लगा देता हूँ. माल के जिस हिस्से में आग से जलने का खतरा हो उसे सूंघ कर मैं पहले से वहां पहुँच कर उसे दूसरी तरफ पहुंचा देता हूँ. माल के साथ लोट पोट कर मैं बड़ा सकूं महसूस करता हूँ.

अपने स्वामी की सेवा का कोई मौका मैं नहीं छोड़ता. पर अगर दूसरा कई ये गुस्ताखी करे तो मुझे बर्दाश्त नहीं. चमचागिरी हमारा पुश्तेनी काम है और अपने कार्य-क्षेत्र में किसी दूसरे को ये हक़ मैं नहीं लेने दे सकता.

मेरे स्वामी भी इतने भले हैं कि उन्हें जब भी किसी को कुछ देना होता है तो वो इस काम को मेरे माध्यम से ही करते हैं. पर बहुत से लोग इस बात को लेकर जलते हैं कि जो माल मेरा नहीं है उसे मैं ऐसे बांटता हूँ जैसे मेरा ही हो. अपने स्वामी के साथ मेरे रिश्तों को लेकर भी टुच्चे लोग वाहियात बातें किया करते हैं पर मैं उन पर ध्यान नहीं देता.

हालांकी मेरे माध्यम से सबको कुछ न कुछ मिलता ही है पर इस पर भी लोग पीठ पीछे  मेरी  बुराइयाँ   करते रहते हैं. मेरी सेवा का महत्त्व आम दुनियादार लोगों को समझ में आने से रहा.

इश्वर मुझे और सेवा की शक्ति दे.

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