अपनी बात

एक छोटी सी कहानी से अपनी बात शुरू करना चाहता हूँ --
काफी पहले के समय की बात है, एक आदमी अपनी मंजिल की तरफ जा रहा था. उसे जल्दी ही एक गाँव में पहुंचना था. गलियों और पगडंडियों से होता वो  तेजी से चल रहा था. उस ज़माने में लोग रास्ता मील या किलोमीटर में नहीं नापते थे. इनका अभी अविष्कार भी नहीं हुआ था.  अब सुनकर शायद अटपट अलगे पर उस वक्त रास्ता नापने के लिए समय के सन्दर्भ में बात की जाती थी - जैसे फलां जगह जाने में २ घंटे लगेंगे या ३ दिन लगेंगे.
खैर, सूनसान रास्ते पर चलते हुए उस आदमी को एक जगह एक आदमी बैठा दिखाई दिया. अपनी मंजिल की दूरी जानने के लिए इसने सवाल किया, भैया ,फलां गाँव कितनी दूर है? पर उसे कोई  जबाब नहीं मिला. 'शायद वो आदमी जिससे उसने रास्ता पूंछा है बहरा होगा',उसने सोचा.
थोड़ी ही देर में उस आदमी ने जिसको वह बहरा समझ रहा था पीछे से आवाज लगाई ,'ओ अजनबी ,आधे घंटे में तुम अपनी मंजिल तक पहुँच जाओगे. ये सुन कर वो बड़ा हैरान हुआ और उसे गुस्सा भी आया. उसने झल्लाकर कहा, 'ये बात तुम पहले नहीं बता सकते थे! '. इसका जो जबाब उसे मिला वह विचारणीय है. उसने कहा ,'जब तक मैं तुम्हारी चाल नहीं देख लेता कैसे बताता कि वहां पहुँचने में कितना समय लगेगा'.  

जमाना चाहे कितना ही बदल गया हो पर उससे इस बात का महत्त्व काम नहीं हो जाता कि हम किसी दूसरे को कुछ बताते समय अपने मापदंडों पर तोल कर बताने की बजाय उन मापदंडों की जानकारी हासिल करें जिसे दूसरा आदमी समझ सके.

आज जमाना बहुत तरक्की कर चुका है पर दूसरे क्या हम अपनी बात दूसरों के सामने रखते हुए इस पर विचार करते हैं कि उनके सन्दर्भ में हमारे पास अपनी बात रखने के लिए सामर्थ्य है या नहीं. मैंने बड़े बड़े मंचों से कई लोगों को लम्बी लम्बी बातें करते सुना है. पर वो ये भूल जाते हैं कि उनकी बातों का सटीक असर तभी हो सकता है जब वे  उसी  भाषा और सन्दर्भ में बात करे जिसमें सुनने वाले लोगों की समझ में आसानी से आ जाये. 

क्या मेरी ये बात आपकी समझ में आयी?
 या मैं भी उसी दोष से पीड़ित हूँ जिसकी मैं आलोचना कर रहा हूँ?

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