ये महंगाई क्या हमें मार डालेगी ?

आजकल मंगाई का मुद्दा गरमाया हुआ है.
विरोधी पार्टी हों या मीडिया, कोई भी इस मोके पर सरकार को उंगली कर के  इस गर्म तवे पर अपनी रोटियां सेकने से बाज नहीं आ रहा.
क्यों न हो , जब प्याज के भाव पर एक सरकार गिराई जा  सकती है तो दाल और गैस पर दूसरी को गिराने  की  कोशिश  करने में क्या हर्ज है.

इस सारे प्रकरण में हमेशा की तरह जो ठगा जा रहा है वो है आम आदमी.

 उदारीकरण की झोंक में सरकार ने हर चीज के दाम को बाजार के रहमोकरम पर छोड़ दिया और खुद को बेबस और लाचार बना डाला. मुनाफाखोरों ने जम कर इसका फायदा उठाया है.

पर जहाँ सरकार बेबस नहीं है वहां भी कुछ नहीं कर रही.  बद-इन्तजामी का ये आलम है कि हजारों टन अनाज जहाँ सरकारी गोदामों में सड़ रहा है , वहीं करोडो लोग दो वक्त की रोटी भी नहीं जुटा पाते और सैकड़ो गरीब किसान भूख और कर्ज से तंग आकर आत्महत्या कर रहे है.

आजादी के बासठ साल बाद भी अगर सरकार जनता को बुनियादी हक़ नहीं दे पा रही तो ऐसी आजादी के क्या म़ाइने     ? मकान तो छोडिये ,पेट भर रोटी और तन ढापने लायक  कपड़ा तो सबका हक़ बनता ही है ,चाहे कोई कितना भी नाकारा या गंभीर अपराधी ही क्यों न  हो.

लचर न्याय व्यवस्था पर आस जगाये बैठे तथा  भ्रष्ट राजनीतिज्ञों और अफसरों  को ढोते हुए आम आदमी के लिए महंगाई कोई मुद्दा भर ही नहीं है जिस पर बहस कर उसे टला जा सके. ये तो एक सच्चाई है जिसका सामना उसे दिन रात करना पड़ता है.

ऐसे कई सच्चाइयों को  झेलते - झेलते भारतवासी अब काफी मजबूत हो चुका है उस मच्छर की तरह जिस पर अब किसी भी मच्छरमार तरीके का अब असर नहीं होता.

महंगाई के कड़वे घूँट को गरीब आदमी तो चुपचाप पी जायेगा ,पर हमारे राजनेताओं और मीडिया को बहत ज्यादा दिन इससे खेला नहीं जायेगा . हमेशा की तरह वो कुछ दिन बाद कुछ और मुद्दा पकड़ लेंगे चर्चा और बहस के लिए.  अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए उन्हें तो मुद्दे चाहिए गर्म गर्म और नए नए. उन मुद्दों का हल निकले या नहीं इससे उन्हें कोई खास फर्क नहीं पड़ता.

चित्र जिफैनीमेशन द्वारा

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