"बुंदेलों हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी ,
खूब लड़ी मंर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी "
सुश्री सुभद्रा कुमारी चौहान की जिस वीर रस की कविता को बचपन में अपनी पाठ्य पुस्तक में पढ़ कर पसंद किया था, आज उसी भावनाओं को 'झांसी की रानी' नामक टी वी सीरियल फिर जिन्दा कर रहा है.
टी आर पी के मोह में ऐतिहासिक सत्यों और घटनाओ पर खूब मिर्च मसाला छिड़का गया होगा ,पर इसके लिए हम इस प्रस्तुति के पीछे के लोगों को माफ़ कर ही सकते है क्योंकी ये तो हर टी वी शो की कहानी है और ये उनकी दाल रोटी (या घी पूरी) का भी तो सवाल है.
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई जैसे चरित्र तो हर देश- काल में मिलते है. इंदिरा गांधी ,गोल्डा मायर ,किरण बेदी, सान्या मिर्ज़ा, सोनिया गांधी , मायावती ,कल्पना चावला , इन्द्रा नूई जैसे कुछ नाम उदहारण के लिए याद दिलाना चाहूँगा. वैसे ये lsit काफी लम्बी हो सकती है. और अगर आप अपने आस पास के चरित्रों पर ध्यान दें तो शायद कई नाम इसमे जोड़ सके , भले ही उनको सार्वजानिक रूप से इतनी प्रसिध्धी हासिल न हुई हो. कुछ कर गुजरने का जज्बा अगर दिल में हो तो आपको पेटीकोट और बिंदी के दायरे में समेटकर नहीं रखा जा सकता.
जिस बात की ओर मैं इशारा कर रहा हूँ वह यह है कि कमजोरी या ताकत का सम्बन्ध लिंग से नहीं है. न ही किसी जाति ,वर्ग या समुदाय से है. पर अपने अपने समुदाय,वर्ग और जातियों को कमजोर और पिछड़ा बता कर कुछ ताकतवर लोग आरक्षण के नाम पर वोट बैंक कमाने की जिस गंदी होढ में बेशर्मी से खेल रहे है उससे किसी का भला नहीं होने जा रहा.
महत्मा गाँधी ने अपने समय में अस्पर्श्य लोगों को हरिजन कह कर उनेहं उनका खोया सम्मान दिलाने का प्रयास किया क्योंकि उस समय मनुवादी व्यवस्था पर आधारित कुछ जाति विशेष को स्पर्श के या मंदिर में घुसने के काबिल भी नहीं समझा जाता था . बदलते समय और परिस्थितियों की मांग पर एक आउट ऑफ़ कांटेक्स्ट और आउट डेटेड परिपाटी को बदलने का एक क्रांतिकारी द्वारा किया गया यह एक सराहनीय प्रयास था.
पर जाति या वर्ग को आधार बना कर आरक्षण को बढ़ावा देने से समस्याए सुजझाने की बजाय और उलझ जायेंगी सरकारी योजनाओं द्वारा लागू आरक्षण का फायदा हर बार की तरह सिर्फ ताकत वर को ही मिलेगा. आरक्षण इलाज नहीं खुद एक बीमारी है .
जरूरत किसी उम्मीदवार को सरकारी कागज दिला कर कम पात्रता होने पर भी अधिकार दिलाने कि है ही नहीं. जरूरत इस बात की है कि सभी इंसानों को बुनयादी सुविधाए एक सामान दिलवाई जाये और फिर मेरिट के आधार पर चुनाव की निष्पक्ष और पारदर्शी व्यवस्था हो .
मोजुदा हालत में तो ये एक कल्पना ही लगती है.
क्या जनता के दिए हुए करों पर ऐश करती सरकारों से ये अपेक्षा ही बेमानी है?
या फिर झांसी की रानी के पद चिहों पर चलते हुए एक बीमार व्यवस्था से लड़ने के लिए क्रांति का बिगुल फूंकने का सहस फिर कुछ लोग कर पाएंगे?
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