काली दाल


‘खेल खतम पैसा हज़म’. ये कहावत हमने बचपन में सुनी थी, अब कोमन वेल्थ गेम्स के रूप में देख भी ली. सत्तर हज़ार करोड़ रुपये फूंक कर हमने बड़ी अच्छी दीवाली मना ली और देसी- विदेशियों को खुश भी कर दिया. मीडिया द्वारा भ्रष्टाचार के आरोप लगाने पर जो व्यक्ति एक दूसरे पर काम की जिम्मेदारी डाल रहे थे वही बढ चढ़ कर अब खुद इसके सफल होने का क्रेडिट लेते नहीं थकते.


भ्रष्टाचार का मुद्दा बड़ी चतुराई से जनता के हाथों से निकाल कर जाँच कमेटियों के हवाले कर दिया गया है जो हमेशा की तरह राजनैतिक और सरकारी व्यवस्था के आगे घुटने टेक कर घुट घुट कर दम तोड़ देगा .मोटी कमाई करने वाली बड़ी मछलियाँ हमेशा की तरह उस कमाई का कुछ हिस्सा चढ़ा कर किसी न किसी तरह बच निकालेंगे और हमेशा की तरह किसी छोटी मछली को ढूंढ कर उसे ‘बली का बकरा’ बना देंगी . बदइंतजामी और बेईमानी का ठीकरा तो किसी प्यादे के सर पर ही फूटेगा .

सत्तर हजार करोड़ रुपयों से कितने गांवों/ शहरों /लोगों की तकदीर बदल सकती थी ये बात अब ‘नक्कारखाने में तूती’ की आवाज़ की तरह दब जायेगी. आंकडो के मायाजाल में सच हमेशा की तरह कहीं छुप सा जायेगा.

निसंदेह अंततोगत्वा हमने विदेशी मेहमानों का कुछ दिनों के लिए दिल खुश कर दिया पर ‘घर फूंक कर दीवाली करने की जरूरत भला क्या थी ये कौन किसे समझायेगा? हजारों करोड़ रुपयों का खर्च ,प्रधान मंत्री का व्यक्तिगत हस्तक्षेप और भारतीय सेना के सराहनीय योगदान की बदोलत हम सफल तो हो गए पर इसमे जश्न मानाने जैसा क्या है ?

भ्रष्टाचार के नाम पर अब तक आम जनता इतना कुछ देख चुकी है कि अब कितनी ही बड़ी खबर से उसे सनसनी नहीं होती. फिर भी कुछ लोगों के दिमाग में कीडा होता है ये देखने और दिखाने का कि ‘दाल में क्या काला है’ इन बेचारों को शायद यह अहसास नहीं कि यहाँ तो पूरी दाल ही काली है. अब पूरी दाल को तो ये जानने के बाद भी फेंक नहीं सकते कि वह काली है ,नहीं तो खायेंगे क्या?

और फिर गोरी दाल कहीं से मिल भी जाय तो हमारे पाचन तंत्र को शायद रास न आये. किसी ने ठीक ही कहा है-‘ गली गली में बेईमान , फिर भी मेरा भारत महान’.

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