द्रष्टि भ्रम


ये इंसानी फिदरत भी अजीब है ,अपने काम की जिंदा आवाज़ इसे सुनाई नहीं पडती और बेकार के शोरगुल पर इसका ध्यान बना रहता है. सच और झूठ की पहचान मे यहाँ अक्सर गलती ही होती है और इन्साफ हंमेशा देर से ही होता है जैसे पुलिस मौका –ए-वारदात पर देर से ही पहुँचती है.

अपनी बात के समर्थन मे इतिहास के पन्नों से कुछ उदहारण पेश करता हूँ –

करीब दो हज़ार साल पहले जीसस क्राइस्ट नाम के एक मरियल से आदमी ने जगह जगह घूम घूम कर कुछ बातें कहने की कोशिश की जिसको सबने अनसुना कर दिया. यही नहीं उसे साधारण गुंडे बदमाशों की श्रेणी मे रखते हुए एक बर्बर तरीके से बदन पर कीलें गाड़ कर क्रोस पर लटका दिया और तिल तिल मरने के लिए छोड़ दिया. उसके मरने के बाद आज करोडो लोग उन बातों को अमूल्य और पवित्र बताते हुए उनका अनुसरण करने का दम भरते है. क्रष्ण हों या कबीर, नानक हों या गांधी ,सभी युग पुरुषों की कथा का कथानक लगभग एक जैसा ही है.

करीब पांच सौ साल पहले स्पेन मे क्रिस्टोफर कोलंबस नाम का नाविक बार बार सबसे यह गुहार लगा रहा था कि अगर उसके साहसिक अभियान की योजना को अमल मे लाने के लिए धन और मदद दी जाय तो वह सोने की चिड़िया माने जाने वाले देश ‘इंडिया’ तक पहुँच सकता है, तब कोई उसकी मदद के लिए आगे नहीं आ रहा था . आज ‘अमेरिका’ के इस खोजकर्ता की तारीफ में हर तरफ कसीदे पढ़े जाते हैं और उसे एक आइकन माना जाता है.

करीब चार सौ साल पहले गलीलियो नामके एक पगले से सनकी आदमी से इटली में सार्वजानिक रूप से अपमानित कर के जबरदस्ती यह कहलवाया गया कि वो जो अपने वैज्ञानिक प्रयोगों के दम पर यह कहता फिरता है कि ‘धरती सूर्य के चारों ओर घूमती है’ वह गलत है और सच यह है कि सूर्य धरती के चक्कर लगता है क्योंकि चर्च के किसी ठेकेदार ने कभी ऐसा कुछ माना था और चर्च जो एक महान संस्था है,वह गलत नहीं हो सकती ,इंसान जरूर गलत हो सकता है. उससे थोड़े ही दिनों पहले ब्रुनो नाम के एक शख्स को तो लगभग इसी तरह के आरोपों पर जिन्दा जला कर मारा गया था. अब जब निर्विवादित रूप से यह सिद्ध हो चूका है कि गलीलियो के निष्कर्ष सही थे हम उसे महान वैज्ञानिक बताते नहीं थकते.

करीब दो सौ साल पहले भाप इंजन के आविष्कर्ता जेम्स वाट और करीब सौ साल पहले हवाई जहाज के आविष्कारक राइट भाइयों के साथ भी कुछ ऐसा ही सलूक हुआ था.

इतिहास के पन्नों को खंगाले तो ऐसे न जाने कितने उदहारण मिल जायेंगे . मेरा इरादा उन सब को गिनाने का नहीं है. मैं तो एक खास इंसानी फिदरत की तरफ आपका ध्यान ले जाने की कोशिश भर कर रहा हूँ. झूठो की भीड़ से हम सच्चे को अलग कर देखने मे जरा सी देर कर देते हैं जो अक्सर घातक होती है. या फिर जान बूझ कर हम बने बनाये ढर्रे पर चलने मे सहज महसूस करते है और किसी नए विचार को तब तक मान्यता नहीं देना चाहते जब तक वह अपने दम से ही संघर्ष कर के स्थापित न हो जाय? घर के बड़े बूढों की सीख को भी हम अकसर उनके जीते जी नजरअंदाज़ करते है पर उनके न रहने पर उनकी तस्वीर पर माला चढ़ा कर उन्हें इज्ज़त देते है.

क्या इस तरक्की और टेक्नोलोजी के दौर में हम कभी इस काबिल हो पाएंगे कि युग पुरुषों को उनके जीते जी इज्ज़त देना सीख लें?

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