समानता –क्रेडिट कार्ड और प्रेमिका में












• दोनों का खास ख़याल रखना पडता है.

• दोनों को लोगों की बुरी नज़र से बचा कर रखना पडता है.

• दोनों के ना होने पर ज़िंदगी में कमी का अहसास होता है

• दोनों के होने की वजह से बड़ा खर्चा होता है.

• दोनों को किसी के पास देख कर लोग जलते है.

• दोनों का सेक्रेट नंबर सब जानना चाहते है.

• दोनों के आपके साथ होने पर बाज़ार में आपको इज्ज़त मिलती है.

• दोनों ही खोने पर आपको अपनी औकात याद दिला देते है.

• दोनों को ही दूसरों के पास अपने से बेहतर देख कर किस्मत याद आती है.

• दोनों का कब दूसरे ने इस्तेमाल कर लिया पता ही नही चलता, जब जानते है तो टूट जाने का अहसास होता है.

• दोनों का खास इस्तेमाल बस कुछ ही पलों का होता है जिसके बाद तृप्ति का अहसास होता है.

त्रिदोष



पिछले साल मैंने अपना मकान बनवाया. उसमे लगाने के लिए बाज़ार से ५ ceiling fan लाया. Electrician व्यस्त था इसलिए उसने अपने चेलों का एक झुण्ड भेज दिया ताकि पहले चरण का कम यानी assembling पूरा हो सके. सभी लोगों ने हॉल में बैठ कर पैकेट खोलना शुरू कर दिया. तभी हमारे प्रिय मित्र श्री विजय कुमार तायल जी का आगमन हुआ .वे इंजीनियरिंग के पंडित हैं. आते ही उन्होंने सभी लोगों को एक एक fan का सामान लेकर अलग अलग कमरे में भेज दिया जहाँ वो fan लगने थे. मैं बोला, ‘भाई बच्चे अगर मिल कर काम कर लेते तो तुम्हारा क्या जाता ,रौनक भी लगी रहती. क्यों उन्हें अलग कर दिया ? ’ उन्होंने fan की ३ पंखुड़ियों का एक सेट लिया और मुझसे पूंछा , ‘क्या ये तीनो बिलकुल एक जैसी है ?’ मैंने कहा , ‘लगता तो ऐसा ही है’. इस पर वो बोले, मित्र ,इन तीनोँ के आकार में मामूली सा फर्क है. इस फर्क को aerodynamics के सिद्धांतों के अनुसार डाला जाता है ताकि पूरा सेट dynamically balanced रहे. इस तरह design किये गए पंखे की हवा असरदार रहती है और कमरे के कोने कोने तक पहुँचती है. अगर पंखुडियों का सेट ठीक से design नहीं है तो बस उसकी पंखुडियां घूमती दिखाई देंगी पर हवा का लुत्फ़ सब तरफ ठीक से नहीं मिलेगा. इसे सुन कर हमारे जहन में कुछ TV Ad घूम गए जो अपने अपने ब्रांड के पंखों की खासियत इसी फर्क के आधार पर बताते हैं.

अब हमारी समझ में आ चुका था कि किस तरह तायल जी नें हमें सभी पंखुड़ियों के गलती से मिक्स हो जाने के खतरे से हमें बचने के लिए ही उन लोगों को अलग किया था.

हजारों साल पहले इसी तरह का ज्ञान इंसानी जीवन के सन्दर्भ में अपनाकर आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति का अविष्कार हुआ था . आयुर्वेद में माना गया है कि इंसानी शरीर तीन दोषों से युक्त है- पित्त ,कफ और वात. हर इंसान के लिए इन तीनो दोषों का एक natural composition होता है. जब तक शरीर में यह composition बना रहता है शरीर अपने काम (चाहे कोई भी हो) आसानी से करता रहता है और वांछित फल मिलते रहते है. इस composition के बिगडते ही जीवन में स्वास्थ्य और सहजता भी बिगड़ जाती है. ऐसी स्थिति में मामूली से काम के लिए भी अथक प्रयास के बाद भी वांछित फल नहीं मिलते.

एक आयुर्वेदिक चिकित्सक पहले अपने मरीज के त्रिदोष के natural composition का पता लगता है और फिर उसे वापस संतुलन में लाने के उपाय करता है.

नयी सभ्यता के दौर में ये अनूठी चिकित्सा विधि कही गुम होती जा रही है. पर बाबा रामदेव ,डाक्टर दीपक चोपड़ा ,श्री श्री रविशंकर जैसे लोगों ने इसकी तरफ काफी लोगों का ध्यान खीचने में सफलता पाई है.

क्या आपने कभी इस तकनीक से इलाज करने के बारे में सोचा है?

ये कैसी आज़ादी ?



‘फूट डालो और राज करो’ की नीति पर अँगरेज़ तो दो सौ साल राज करके चले गए पर उनकी इस नीति को आजादी के बाद जिन देसी लोगों ने बड़ी चतुराई के साथ अपना लिया वो आज राज और मौज कर रहे हैं. राज करने वाली ये शक्तियाँ छोटे मोटे मुद्दों को हवा देकर लोगों के बीच की दूरियों को कम नहीं होने देती. धर्म ,जाति, समुदाय ,वर्ग या और किसी बात की आड़ लेकर लोगों के बीच फूट डालने का कोई मौका ये नहीं गंवाती. अंग्रेजो के जमाने के लोगों से पूछोगे तो कहेंगे ज्यादा कुछ नहीं बदला है सिर्फ फर्क इतना है कि राज करने वालों की चमड़ी अब काली है.

आजादी के इतने सालों के बाद भी हमारे यहाँ-

व्यवस्थाए तो हैं पर काम नहीं करती सिर्फ रस्म अदाई भर हो जाती है.

जेब में पैसा हो तो कोई भी झूठ सच साबित हो सकता है और बिना पैसे के सच भी साबित करना दूभर है.

न्याय मिलते मिलते इतनी देर लग जाती है और इतना दर्द मिल जाता है कि आदमी जीत कर भी हारा हुआ महसूस करता है.

सरकार भी एक व्यापार के तरह चलती है.

व्यापार भी एक सरकार सी ताकत रखता है और अपने नियम बनाता है.



यहाँ हर कोई आपको बांटने पर लगा है. चाहे वो राजनीति में हों ,कार्यपालिका में हों ,न्यापालिका में हों मीडिया में हो या व्यापारी हों. जब तक हम बंटे रहेंगे ,कमज़ोर रहेंगे और अपना ही नुक्सान करते रहेंगे. कभी कभी कुछ घटनाएँ जब हम छोटे छोटे मुद्दों से ऊपर उठ कर एक हो जाते हैं ,हमें अपनी ताकत का अहसास करा जाती हैं – चाहे वह वर्ल्ड कप की जीत हो या अन्ना हजारे का अनशन.

क्या इस देश में आम आदमी ताकतवर लोगों के इस दुष्चक्र से कभी उबर पायेगा? या अपनी ही ताकत पहचानने के लिए किसी बहाने का इंतज़ार करता रहेगा?

ब्रह्मचारी



ब्रह्मचर्य या ब्रह्मचारी का नाम सुनते ही दिमाग में अक्सर एक ऐसे शख्स की तस्वीर उभरती है जिसने अपनी काम इच्छाओं को मार डाला हो.

समाज में काम-वासना के प्रति छुपाने का जो रवैया रहता है उसके चक्कर में कुछ लोगों ने इस शब्द को बदनाम कर डाला है. पतंजलि द्वारा बताये अष्टांग योग का एक अंग है यम है और उस यम में से एक है ब्रह्मचर्य जिसका अर्थ है अपने व्यव्हार में संयम या अनुशासन को शामिल करना. जीवन को सहज रूप से जीने का यह एक गूढ़ सूत्र है.

इस बात को धन के सन्दर्भ में समझने में आसानी होगी. अगर किसी व्यक्ति या संस्था की वित्तीय स्तिथि का सही ब्यौरा लेना हो हमें उसके खर्चे और आमदनी की तुलना करनी होगी. अगर आमदनी खर्चे से अधिक है तो वह व्यवस्था स्वस्थ नहीं होगी चाहे बाहर से उसका रूप कैसा भी दिखे. पर जिस व्यक्ति या संस्था द्वारा खर्चों को आमदनी के अंदर रखा जाता है उनके पास बचत के रूप में अर्जित पूंजी होती है. इसका यह अर्थ नहीं कि खर्चा करना कोई बुरी बात है या खर्चा नहीं करना चाहिए. एक स्वस्थ्य व्यवस्था के लिए बस खर्चे और आमदनी में तालमेल बिठाना जरूरी है. कुछ लोग सोचते होंगे कि क़र्ज़ लेकर स्तिथि को सुधार जा सकता है और क़र्ज़ लेना एक आम बात है. पर क़र्ज़ के बोझ तले दबे व्यक्ति या संस्था की काम करने की अपनी स्वतंत्रता तो घट जाती है और उसे मजबूरन ऐसे काम और फैसले करने पड़ते है जिसमे उसका नहीं बल्कि कर्जदाता का फायदा छुपा होता है. कर्ज लेना जब एक आदत और मजबूरी बन जाती है तो स्तिथि और नाजुक बन जाती है. इसी बात को लेकर शायद ये मुहावरे प्रचिलित हुए होंगे-

‘आमदनी अठन्नी खर्च रुपय्या’ .

‘अपनी चादर देख कर ही पैर फेलाना चाहिए’.

अगर इमानदारी और निष्पक्षता से तथ्यों को देखें तो गिने चुने व्यक्ति ,संस्था या देश आर्थिक रूप से स्वस्थ दिखेंगे. इसका एक कारण यह है कि हम संयम या अनुशासन जैसी ताकतवर तकनीक का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए नहीं कर पा रहे हैं.

प्राचीन काल में साधू संत और योगी जीवन के गूढ़ रहस्यों को जानकर उनका पालन करते हुए स्वस्थ और मर्यादित जीवन जीते थे. अपनी इच्छओं और शरीर की जरूरतों के प्रति उनका द्रष्टिकोण सहज था. काम वासना को आंख मीच कर रोकने की वकालत शायद ही किसी संत या योगी ने की होगी. अगर ऐसा होता तो अजंता ,एलोरा और खजुराहो के मंदिर न बनते और काम सूत्र जैसा महा ग्रन्थ न रचा जाता और न ही हमारे अधिकांश ऋषि मुनी विवाहित होते. समय के साथ महापुरुषों के वचनों को सन्दर्भ से परे जाकर तोड़ा मरोड़ा जाने लगा होगा जिससे कई चीजों के बारे में भ्रांतिपूर्ण धारणाये बनती गयी और ऐसा ही संभवत: ब्रह्मचर्य शब्द के साथ हुआ होगा.

अपनी बात के पक्ष में एक और तर्क देना चाहूँगा. हमारा शरीर प्रकृति की अनूठी कलाकृति है. अगर हम ध्यान से कुछ अंगों की बनावट और कार्य को देखें तो वो भी संयमित जीवन की ओर इशारा करते है-

* आंख और कान प्रकर्ति ने दो दो दिए है –जहाँ एक तरफ इससे हमारे सुनने और देखने की गुणवत्ता बढ़ जाती है वहीं आपातकालीन स्तिथि में एक अंग नष्ट होने पर भी हमारी देखने या सुनने की क्षमता नहीं नष्ट होती. प्रकृती शायद हमसे ये चाहती है कि हम इस संसार के नजारों और औरो की बातों का भरपूर लुत्फ़ लें.

* मुंह और गुप्तांग बस एक एक दिए है और उनपर भी दो दो कार्य करने का भार सोंपा है- मुंह से हम न सिर्फ बात करते है बल्कि भोजन भी ग्रहण करते है. गुप्तांगो का उपयोग न सिर्फ सहवास का आनंद लेने के लिए किया जाता है बल्कि इसी रास्ते से हम मल- मूत्र का त्याग करते है. प्रकृती शायद हमसे ये चाहती है कि हम इन सब क्रियाओ (बोलना, खाना, सहवास और मल विसर्जन) पर संयम और अनुशासन रखें.

अनुशासन की तकनीक का इस्तेमाल करते हुए सेनाएँ महान विजय प्राप्त करती है. इसी तरह एक आम आदमी भी अपने जीवन में इस तकनीक का लाभ उठाकर ब्रह्मचर्य धारण कर सकता है.

चमत्कार की आस



प्रधान मंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह को विपक्ष और मीडिया द्वारा ‘सबसे कमज़ोर प्रधान मंत्री’, ’कठपुतली’, ‘बेईमान नेताओं का ईमानदार नेता’ आदि की पदवियों से नवाज़ा जाता रहा है. अगर इनके अंदर ताकत का इंजेक्शन डाल कर उन्हें हिटलर सरीखा ताकतवर भी बना डालें तो क्या कुछ अनहोनी घट जायेगी? इस देश ने इंदिरा गांधी और अटलबिहारी जैसी ताकतवर शक्सियतो को भी अज़माकर बाहर का रास्ता दिखाया है.

समस्या ये है कि सब सोचतें हैं कि देश पर कोई भी समस्या आते ही प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा शख्स जादू की छड़ी घुमा कर सब कुछ ठीक कर देगा और वित्त मंत्री की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति बज़ट नाम का पिटारा खोल कर महगाई के नाग को झट से बस में कर लेगा.

हम व्यक्तिगत रूप से खुद इस दिशा में कुछ नहीं करना चाहते.

इसी मनोदशा के चलते ताज्जुब नहीं अब भी कुछ विकसित देशों में भारत को संपेरो और मदारियों का देश समझते है.

काले धन से क्या होगा बाबा, काले मन का इलाज करो



बाबा रामदेव के नेतृत्व में हजारों करोड़ का काला धन देश में वापस लाने का मुहिम अपने शबाब पर है.

कल्पना कीजिये कि ये मुहिम अपने मकसद में कामयाब हो जाता है और ये हजारों करोड़ रुपया भारत सरकार के पास विदेशी बैंको से वापस आ जाता है. शायद उस साल के बजट में जनता पर कर (टेक्स ) न के बराबर होंगे और हर प्रदेश, हर शहर,हर गांव के खाते में अकल्पनीय धन राशी दे दी जायेगी विकास के लिए. पर इतना भर होने से हर प्रदेश, हर शहर,हर गांव का स्वरुप बदल जायेगा? सरकार के हाथों से ये पैसा निकल कर वास्तविक जरूरतमंदों के हाथों में जायेगा या उनके फायदे के लिए इस्तेमाल किया जायेगा? क्या इस पैसे को उसी सड़े- गले रास्ते से नहीं गुजरना होगा जिसमें हजारों छेद और पेंच है और फिर चोर- बेईमान लोग इसका फायदा उठा कर अपनी जेबें नहीं भर लेंगे?

कुछ लोग सोचते होंगे कि भ्रष्टाचार में लिप्त पकडे गए कुछ लोगों को कठोर सजा देने से बाकी लोग डर जायेंगे और इतने भर से ही भ्रष्टाचार बंद हो जायेगा. पर डर का असर तो आम आदमी पर ही ज्यादा होता है जो छोटी छोटी मछली है, वो मगरमच्छ जिन्हें इस नशे की लत पड़ चुकी है क्या ये डर उन्हें रोक सकेगा? महज डर की बुनियाद पर ज्यादा समय तक कोई व्यवस्था कायम नहीं रखी जा सकती.और अगर रख भी लें तो क्या इस माहौल में वास्तविक तरक्की हो सकती है?

मैं कोई निराशावादी विचार नहीं व्यक्त कर रहा हूँ . काले धन को वापस लाने की पहल मेरी नज़र में एक स्वागत योग्य कदम है, पर अपने आप में ये एक छोटी सी घटना मात्र है. इसके हो जाने और पकडे गए लोगों को सजा देने मात्र से कोई चमत्कार नहीं हो जायेगा. चमत्कार होगा सौ करोड़ लोगों के मिल कर काम करने से, चमत्कार होगा ऐसे अस्पताल, शिक्षा संसथान, कारखाने ,सड़क और रेल बनाने से जहाँ हर जरूरतमंद आसानी से जा सके. चमत्कार तब होगा जब अपनी कमाई का निश्चित हिस्सा सरकार को कर के रूप में देने पर मजबूरी नहीं आनंद और गर्व का अनुभव करे. चमत्कार होगा अगर सरकारी योजनाएं फाइलों में दम न तोड़े और आंकड़ों का मायाजाल लोगों को भ्रमित न करे.

काला धन मूल समस्या नहीं है. ये तो एक By product मात्र है . मूल समस्या है सरकार और व्यवस्था पर लोगों का विश्वास न होना. व्यवस्था अभी मरी तो नही है पर बस जैसे तैसे जिन्दा भर है और दुर्गन्ध दे रही है.

आदमी टेक्स की चोरी कब करता है? ऐसे हालत तब पैदा होते है जब उसे विश्वास हो कि टैक्स में दिया हुआ पैसा उसके या किसी आम आदमी के किसी काम नहीं आने वाला, फिर देने से क्या फायदा. पारदर्शिता और जबाबदेही (Accountability) में अपने देश का पिछडापन किसी से छुपा नहीं. इन क्षेत्रो में नए मानक मूल्यों के स्थापना की आज जरूरत है. इन क्षेत्रो में आज कारगर उपाय ढूंडने होंगे जिससे जनता का खोया विश्वास वापस आ सके.

बाबा रामदेव नें वर्षों पहले योग और और आयुर्वेद के चमत्कारिक प्रभावों से आम जनता का परिचय कराया था, पर आजकल उनका सारा ध्यान कुछ चोरों और बेईमानों को कोसने में ज्यादा रहता है. चंद लोगों को बलि का बकरा बना कर सजा देने से तमाशा तो खड़ा हो सकता है पर व्यवस्था नहीं बदलती. अगर व्यवस्था बदलना हो तो शायद योग की चमत्कारिक शक्ति के जरिये ये काम हो सके.

पर बाबा जी इस कालेधन के मकडजाल में उलझ कर एक नयी राजनेतिक पार्टी बना कर रह जायेंगे या एक योगीराज की तरह देश को दिशा देकर उसकी दशा बदल पाएंगे?

शायद समय ही इसका सही जबाब दे सके

नव संकल्प



पिछले साल की सुर्ख़ियों पर एक नज़र डालें तो एक से बढ़ कर एक घोटालों ही नज़र आएंगे .सालों दर साल होते आये इन घोटालों से लगता नहीं कि हमने कोई सबक सीखा भी है.

भ्रष्टाचार का मुद्दा इतना बिकाऊ और ज्वलंत है कि सब उस पर अपनी रोटियां सेक लेते है. मीडिया को सनसनी बनाने का और विपक्ष को सरकार की तंग खींचने का एक मोका दे जाता है हर घोटाले का पर्दाफाश. सरकार किसी एक को बलि का बकरा बना कर और जाँच कमेटी बिठा कर जनता के क्रोध से बच निकलती है. और जनता , जनता का क्या ,वो तो सनसनीखेज खबरों के नशे की आदी सी हो गयी है. हर नयी खबर पुरानी सभी सुर्ख़ियों को पीछे धकेल देती है जो जनता की कमजोर याददाश्त में आसानी से गुम हो जाती है और दिमाग फिर से तैयार हो जाता है एक नया झटका खाने के लिए.

क्या इस समस्या से निजात पाने के लिए वास्तव में कोई ठोस कदम उठानेवाला है?

जाँच के नाम पर मुद्दों की चीर-फाढ़ करने और विरोधियोंओ को नुक्सान पहुँचाने , चर्चा के नाम पर आरोप प्रत्यारोप करने या चटखारे लेने या एक बलि का बकरा ढूंढ भर लेने से समस्या का अंत नहीं हो जायेगा. ललित मोदी ,सुरेश कलमाडी या ए रजा को गद्दी से उतार कर क्या भ्रष्टाचार पर लगाम लग सकती है? अगर व्यवस्था जस की तस रहेगी तो कुछ और नए चहरे इनकी जगह ले लेंगे और आने वाले समय में अगर पकडे भी गए तो सुर्खियों बटोर कर फिर से मेले में शामिल हो जायेंगे लालू प्रसाद यादव और शीबू सरेन की तरह.

शल्य क्रिया तो वैसे भी सिर्फ आपात्काल से निबटने का एक तरीका है आखिरी उपचार नहीं. बार बार शल्य क्रिया कर के बीमारी का इलाज करते करते शायद एक दिन मरीज का अस्तित्व ही समाप्त हो जाय. और इस तरह के इलाज से हासिल भी क्या होगा?

कुछ करने की बात अगर करें तो ऐसी प्रतिक्रियाएं मिलाती है-

सारा सिस्टम ही भ्रष्ट है, हम क्यों ज़माने से हट कर चलें .

अकेला चना भांड नहीं फोड़ सकता .

कौन पंगा ले?

रिश्वतखोरी का खेल अकेले नहीं खेला जा सकता. इसमें दो टीम होना जरूरी है –एक रिश्वत देने वाला और दूसरा उसे खाने वाला और कानूनन दोनों ही बराबर के जिम्मेदार है. हर नया खिलाड़ी (खास कर रिश्वत देने वालों की टीम में) जब इस खेल में पहली बार शामिल होता है तो अपने को मज़बूर समझता है. बात चाहे रेलवे में टी टी से बर्थ लेने की हो या किसी फेक्ट्री का लाइसेंस लेने की ,थोड़ा सा खर्चा करना आसान लगता है और सीधे रस्ते पर चल कर झंझट या जोखिम लेना मुश्किल लगता है.

रिश्वतखोरी को रोजमर्रा की जिन्दगी का हिस्सा हम सबने मिल कर बनाया है. सौ दो सौ या हजारों की रिश्वत लेते देते कुछ लोग एन केन प्रकरेण घिसट घिसट कर उच्च पदों पर पहुँच ही जाते है.फिर करोडों डकारने में उन्हें कोई परेशानी नहीं होती. बल्कि इस स्तिथि में वे ये काम डंके की चोट करने लगते हैं और अपने पिल्लै भी पाल लेते है. जरूरत और आपूर्ति के इस खेल में देने वाले ज्यादा होते और लेने वाले गिने चुने ,तभी तो उनके भाव बढते ही जाते हैं.

आज के हालातों में रिश्वत देने की स्तिथि में फंसे किसी व्यक्ति से यह उम्मीद रखना तो अव्यवहारिक लगता है कि वह उस वक्त रिश्वत न देने के पक्ष में रखे गए किसी भी तर्क को विशेष महत्त्व देगा. हालाँकि यही आदमी बाद में रिश्वतखोरी पर हुई चर्चा में बढ चढ़ कर हिस्सा लेता है और सिस्टम पर या कुछ लोगों पर दोषारोपण कर के अपना जी हल्का करने में देर नहीं करता.

पर आज भी हमें अपने आस पास कई बार ऐसी शक्सियत मिल ही जाती हैं जिनके पास रिश्वत लेने का मौका तो होता है पर वो उसे भुनाते नहीं बल्कि बड़ी ईमानदारी से वही करते हैं जो उन्हें सही दिखाई देता है.

रिश्वत देते देते हम चाहे कितने ही कमजोर क्यों न हो गए हों ,ऐसे चेहरों से सामना होने पर हम उन्हें सहारा/ बढ़ावा तो दे ही सकते है.

ऐसे लोगों के प्रति , ‘बेबकूफ है’, ‘मूर्ख है ‘, यो ‘कुछ नहीं कर पायेगा ज़िंदगी में बेचारा’ ,ऐसे नज़रिए को त्याग कर अगर इनके प्रति इज्ज़त का भाव ला सकें तो उससे एक नयी व्यवस्था के बदलाव की शुरुआत हो सकती है.

विचार और द्रष्टिकोण बदलने में कोई पैसा नहीं लगता. क्यों न कुछ ऐसे लोगों के मिलने पर उनकी तरफ इज्ज़त का भाव रखें और हो सके तो उनकी खुल कर तारीफ करें तिरिस्कार करने या मजाक बनाने की बजाय.

चित्र  saabhaar   FreeDigitalPhotos.net

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