भ्रूण-हत्या




आयर-लेंड में सविता  हलप्पनवर की हत्या ने मानव भ्रूण के प्रति भारतीयों के नज़रिए को गहरा आघात पहुँचाया है. सामाजिक जागरण के अथक प्रयासों के बाबजूद भ्रूण-हत्या हमारे देश में एक आम घटना बनी हुयी है. और ये हत्या की जाती है उस नन्हे जीव के अपने ही माता पिता द्वारा जो इस पुरुष प्रधान समाज से प्रभावित होकर अपने कन्या भ्रूण को (अपनी समझ से) स्त्री जाति की दयनीय स्थिति में आने से शायद बचा रहे हैं. उनकी नारी संतान को पुरुषों के बराबरी का दर्जा उसके अपने जीवनकाल में मिलेगा इसमें उनको संदेह है और नारी उत्थान महज उनकी नज़र में एक खोखला कागजी जुमला और नारा भर है.

दूसरी और उस बेचारे आयरिश डाक्टर का द्रष्टिकोण है जो पेट में पल रहे मानव भ्रूण को एक जीवित प्राणी मानते हुए उसे उसकी ही माँ के बराबर का दर्जा देता है और बिना उसे (माँ को) बचाने की कोशिश किये बिना मरने देता है सिर्फ इस डर से कि उसकी इस कोशिश से कहीं उस पर भ्रूण-हत्या का इलजाम साबित ना हो जाय.

दोनों नज़रिए भले ही एक दूसरे के विरोधी नज़र आते हों पर दोनों के मूल में एक बात एक जैसी है-दोनों ही फैसले डर कर लिए गए है. एक जगह समाज का डर है तो दूसरे तरफ सरकार का.

भारतीय समाज हमेशा से व्यक्तिवादी रहा है. व्यक्ति पूजा कर कभी हम उसे भगवान बना कर पूजते है और कभी राक्षस मान कर मार डालते है. व्यवस्था इतनी लचर है कि इन भावनाओ की आड़ में किये गए अपराधों के अपराधी हमेशा बच निकलते है.

दूसरी तरफ पश्चिम का व्यवस्था वादी चलन है जहाँ व्यवस्था को व्यक्ति से ऊपर रखने का प्रयास किया जाता है.असाधारण स्तिथियों में भी नियमों को अहमियत दी जाती है भावनाओ /व्यक्तियों को नहीं.

अगर दर के बदले विवेकपूर्ण भाव से किये जायं तो दोनों ही नज़रिए एक स्वस्थ समाज के निर्माण में सहायक हो सकते है.

क्या इन दो विरोधी नज़र आते नज़रियो का समन्वय एक ही समाज में संभव है?

ये कब सुधरेंगे ?




अन्ना हजारे और बाबा रामदेव की कोशिशों ने तीसरे मोर्चे की सम्भावनाये एक बार फिर जिंदा कर दी है. वर्ना हम तो दो अतियों के बीच में झूलने-झुलाने के आदी हो गए थे.

मायावती या मुलायम सिंह ,अम्मा जयललिता या करुनानिधी, मनमोहन या मोदी –शायद हमें बीच में कुछ भी दिखाई देता ही नहीं –चाहे धरातल देश का हो या क्षेत्रीय.

मायावती की माया से परेशान हाकर हम मुलायम की तरफ भागते है जो मुलायम ना रहकर और सख्त हो जाता है.

करूणानिधि की (अपने परिवार के लिए) करूणा से परेशान होकर हम अम्मा को लाते है पर वह तो जय के लिए इतनी ललित कलाये करती है कि करूणानिधि भी करूण हो जाते है.

मनमोहन की चुप्पी ताडने के लिए हम मोदी में विकल्प ढूँढते है जिसके खुद के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह है.

ये शायद ऐसी कयावाद है कि एक थका हुआ मुसाफिर अपने कंधे का भारी बैग एक कंधे से उतारकर दूसरे पर रख कर (थोड़ी देर के लिए) सोचता है कि चलो अब कुछ आराम मिला. पर इस बार बार के बदलाव में सारा का सारा बोझ उसे ही ढोना पडता है चाहे इस कंधे पर या उस पर.



सरकार जनता को अपनी सेवाये देती है और उसके बदले ‘कर’ लेती है पर इस दूकानदारी में इन सेवाओ की कीमत ग्राहक (जनता) की जगह दूकानदार(सरकार) तय करती है.



पक्ष हो या विपक्ष, सत्ता आते ही एक सा व्यवहार करने लगते है . इस व्यवहार की वजह से तो अब सरकार शब्द ही एक गाली की तरह इस्तेमाल होने लगा है.



इसी देश के राम राज्य में एक धोबी के कहने मात्र से राम ने अपनी पतिव्रता पत्नी सीता का जानते हुए भी त्याग कर अपने राज्य धर्म को व्यक्तिगत लाभ के ऊपर रख कर एक उदाहरण पेश किया था. और आज प्रधानमंत्री कोयला घोटाले के सबूत सामने आने पर भी इस्तीफ़ा देने से बच रहे है.



क्या सरकार नाम की ये संस्था कभी सुधर पायेगी?

परदे की आड़ में








पिछले दशक में भारत के राजनैतिक और सामाजिक धरातल पर तीन सितारों का उदय हुआ है - सोनिया गांधी ,अन्ना हजारे और बाबा रामदेव .

इन तीनो में एक समानता है . तीनों को महान बनाया है उनके त्याग ने .

सोनिया ने प्रधानमंत्री पद का, रामदेव ने भोतिक सुख और संस्थागत पद का वहीं अन्ना ने धन संम्पति और रिश्ते नातों का त्याग किया.

शायद भावावेश में आकर या फिर परिस्तिथि से समझोता कर के इन लोगों ने कुर्बानी तो डे डाली पर अपना मोह नहीं छोड़ पाए और उन चीजों से अपने आप को बहुत दूर नहीं कर पाए जिनका उन्होंने त्याग किया था.

सोनिया ने प्रधान मंत्री का पद छोडने के बाद इस पद को ही बौना बना दिया. इस पद की शक्तियों और सुविधों का ऊपयोग उन्होंने परोक्ष रूप से बिना पद हासिल करे ही किया.

बाबा जी ने तो किसी व्यावसयिक पद पर ना होते हुए भी ऐसा व्यवसाय चलाया कि अच्छे अच्छों को पीछे छोड़ दिया.

अन्ना ने अपने आंदोलनों के माध्यम से एक लोकप्रिय सितारे का दर्जा पाया और उनकी इस छवि को उनकी टीम और कुछ संस्थओं ने खूब भुनाया पर हठ धर्मिता के चलते और अपनों के हाथो मजबूर होकर वे लोकपाल बनवा ना सके.

परदे के पीछे तो इन तीनो ने अपना कमाल खूब दिखया पर क्या सामने रहते वे ऐसा कर पाते?

अगर सोनिया प्रधान मंत्री होती, बाबा रामदेव अपनी योग पीठ संस्था के अध्यक्ष होते और अन्ना हजारे विपक्ष के नेता तो इनकी स्तिथि क्या होती ??

अनुशासन






हाल ही में बिजली के ग्रिड फेल हुए और करोड़ो लोगो को उसका खामयाजा भुगतना पड़ा. सुनते है कि कुछ राज्यों के तय सीमा से ज्यादा बिजली खींचने से ऐसी स्थिति का निर्माण हुआ .

अगर ध्यान से देखें तो इस तरह की घटनाये हमारे यहाँ आम बात है. किसी संस्था के

परीक्षा फल के समय उस संस्था की वेब-साईट क्रेश हो जाती है , ‘तत्काल’ के समय रेलवे की वेब-साईट क्रेश हो जाती है, किसी अच्छी नोकरी के इश्तेहार भर से इतने उम्मीदवार आ जाते है कि साक्षात्कार के समय भगदड़ मच जाती है, बस के आने तक तो लोग लाइन में लगे रहते है पर बस के आते ही लाइन तोड़ कर दरवाजे पर झपटते है, मोबाइल ऑपरेटर क्षमता से अधिक कन्नेक्शन दे डालते है और उपभोक्ताओ की बात ठीक से नहीं हो पाती, व्यस्त बाज़ार में पार्किंग और मूत्रालय सीमित होने से लोग अपनी मर्जी से किसी भी जगह को पार्किंग और मूत्रालय में बदल डालते है.



व्यवस्था तो बनी होती है पर समय पर काम नहीं आती.

इसका कारण क्या है ?



‘व्यवस्था ही लचर है’, ऐसा कहकर क्या अपनी जिम्मेदारी से बचा जा सकता है? ये सही है कि हमारे देश में व्यवस्था बनाते समय अधिकतर किताबी ज्ञान का उपयोग किया जाता है व्यावहारिक का नहीं. समय के अनुसार पुरानी व्यवस्थाओ के पुनर्विचार में भी हम लोग कंजूसी बरतते है.

पर क्या उस व्यवस्था का पालन करने वाले नागरिको की कोई जिम्मेदारी नहीं?

क्यांकि अक्सर हममें व्यवस्था के प्रति विश्वास की कमी होती है और असली समय पर

हम अमर्यादित होकर व्यवस्था को की अव्यवस्था में बदल डालते है इसलिए जरूरत अनुशासन की है. थोडा थोडा इन्तजार कर लें, बेसब्र और असभ्य ना बनें अपनी पारी का इंतजार कर लें.

क्या आपके आस पास ही एसी कोई घटना घट रही है ?

ऐसे में क्या आप जरा सा अनुशासान दिखने की हिम्मत रखते है ?



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