सम द्रष्टि






मेरे घर के पास एक व्यस्त सड़क है. मैं इस पर कभी कार से तो कभी पैदल चला करता हूँ.

जब मैं कार चला रहा होता हूँ और अक्सर जल्दी में होता हूँ तो लगता है कि क्यों इतने सारे लोग पैदल चल रहे हैं? क्या ये आराम से अपने घर नहीं बैठ सकते? रेंग रेंग कर आखिर ये पहुँच भी कितनी दूर जायेंगे? बिना ज़ेबरा क्रोसिंग के जब कोई अचानक सड़क पार करते हुए कार के सामने आ जाता है तो खलनायक नज़र आता है जिस पर गुस्सा भी आता है और तरस भी. दो चार भद्दी सी गाली भी निकल ही पडती है जो कभी मुंह से बाहर छलक जाती है और कभी दिमाग में अटक कर रह जाती हैं.

पर जब में इसी सड़क पर पैदल चल रहा होता हूँ तब मेरी विचारधारा उलटी तरफ चल रही होती है. इन गाड़ी वालों को जरा भी सब्र नहीं है? ऐसे फर्राटे मार कर कहाँ भागे जा रहे है? क्या दुनिया इनके बिना रुक जायेगी? जब कोई तेज गाड़ी किसी पैदल या खुद को विल्कुल छूती सी निकलती है तो गाड़ीवाला खलनायक बन जाता है और दिमाग से गालियों की यात्रा शुरू होजाती है.



जीवन में भी अकसर ऐसा ही होता है. बाहर कुछ खास नहीं बदलता पर हमारा रोल बदल जाता है. कभी हम सरकार की तरफ होते हैं तो कभी विरोधी पार्टी मैं. प्रश्न यह है कि जीवन के इन दो विरोधाभासी नज़रियों के बीच झूलते हए क्या खद को सही साबित करने के लिए दूसरे के गलत कहना /सोचना जरूरी है?



वैसे तो अगर हम समाज में अपने तरह तरह के रोल को समझें तो इस प्रश्न का उत्तर अपने आप ही मिल जाता है. कही हम बौस तो कही मातहत, कही बेटा / बेटी तो कही पिता/माता, कही दामाद तो कही सास-ससुर,कहीं ग्राहक तो कहीं दुकानदार. समय के साथ समाज की रचना ही हमीं हमारे इस अज्ञान से छुटकारा दिला देती है.



पर अगर यह समस्या हमें परेशान कर रही हो तो योग और अध्यात्म में इसके निदान की विधियाँ बतयी गयी है. इन सभी का मूल यह है कि जब हम साक्षी भाव से बिना पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हुए जीवन की घटनाओ में भाग लेते है तो सब कुछ सही लगने लगता है और किसी को भी गलत साबित करने की जरूरत ही नहीं रहती . जब हम मन वचन और कर्म से इस तरह का व्यवहार करना सीख जाते है तो सही अर्थों में जीवन में रहते हुए भी एक ‘योगी’ या ‘संत’ हो जाते है.

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