मोबाइल की घंटी



मेरे एक मित्र अपने मोबाइल के घंटी बार बार बजने से परेशान है. उनकी जानकारी का दायरा इतना बड़ा है कि उनसे बात करने वालों का ताँता लगा रहता है. हर कोई बिना बक्त की परवाह किये हुए उनसे अपनी समस्याए साझा करना चाहता है या सुझाव लेना/देना चाहता है. अक्सर लोगों को इस बात का बिलकुल भी अंदाजा नहीं होता कि उनकी बातचीत के बाद उन पर क्या बीतती होगी. 

वहीं मेरे एक दूसरे मित्र अपने मोबाईल के बिलकुल न बजने से परेशान रहते है. उन्हें लगता है कि लोग उन्हें याद ही नहीं करते , बस किसी जरूरी कम के लिए ही फ़ोन करते है.

ये मोबाइल भी अजीब चीज है ,बार बार बजे तो आफत ,न बजे तो भी आफत .

दरसल ये कसूर मोबाईल का न होकर इंसान की फिदरत का है. हम चाहते तो हैं कि लोग हमसे बात करें पर सिर्फ वो लोग ही वैसी बातें करें जो हमें अच्छी लगती है वो भी तब जब हम इस काम के लिए (बातें करने के लिए)उपलब्ध हों.

पर अफ़सोस दुनियां हमारे सोचने भर से नहीं चलती.

और जले पर नमक छिड़कने वाले होते हैं वो दुष्ट लोग जो अपनी कंपनी के उत्पाद के बारे में बताने के लिए या फिर उन्हें बेचने के लिए हमारे मोबाईल की घंटी बजा डालते हैं जैसे कोई भक्त मंदिर की घंटी बजा कर भगवान को प्रसन्न करने का जतन करता है. और इस काम के लिए कम्पनियाँ पैसा खर्च करके अपने काम के ग्राहकों के मोबाइल नम्बर जुटाती हैं.

इस सब के बाबजूद सबको अपने मोबाईल पर उस घंटी का इंतज़ार रहता है जो हमारे दिल के तारों को झनझना दे.


आपको नहीं है क्या??

इन्टरनेट और संयम

फेसबुक की फ्री-बेसिक मुहिम को नकारने का फैसला बड़ा हिम्मत भरा था  जिसके लिए भारतीय जनता और TRAI धन्यवाद के पात्र हैं.

पैसे के दम पर बड़ी ताकतें ग्राहक के अधिकारों का हनन और निजता पर अतिक्रमण अक्सर करती रही हैं.

इन्टरनेट एक सार्वजनिक संस्था है जिसका उपयाग सबके कल्याण के लिए होना चाहिये. इसकी ताकत इसका सार्वजानिक होना और इसका खुलापन इसलिए हर किसी की इस तक पहुँच है.

पर यही खुलापन इसकी कमजोरी भी बन जाता है अत: आये दिन हम साइबर क्राइम और ठगी के किस्से सुनते रहते है.

अब इसमे और जागरूकता की आवशयकता है. समय की मांग है कि नागरिक इसकी क्षमताओं का अधिक से अधिक दोहन करें. पर साथ ही सावधानी भी बरते. हमें अब सूचनाओ के समुद्र से मंथन कर के अपने काम की चीज निकाल लेने की महारथ भी हासिल करनी होगी.

भारत एक बड़ा बहुत बड़ा बाजार है और हर बड़ी वैश्विक ताकत की इस पर नज़र है. जैसे जैसे टेली मार्केटिंग , टीवी और प्रिंट मीडिया की आक्रामक मार्केटिंग के बाबजूद भी हमारे यहाँ के आमजन अपना संयम नहीं खोते ओर उनकी जेब से पैसे निकालने में अच्छे अच्छों को पसीना आ जाता है वैसे ही इन्टरनेट की मार्केटिंग के मकड़ जाल से भी हमें निकलना सीखना होगा.

इन्टरनेट पर खुलेपन का फायदा उठाकर कोई भी बड़ी आसानी से झूठ को बड़ी मासूमियत से ऐसे पेश कर सकता है की वह सच लगे. हम तब इस जाल में फंसते हैं जब भावनाओ और आवेश में आकर हर किसी चीज को आगे बढ़ा देते हैं बस एक बटन ही तो दबाना होता है. हमारे संयम का इम्तहान तब होता है जब हम बताई गयी बात की सच्चाई की पड़ताल करते हैं या इमानदारी से उसका विश्लेषण करते हैं.

अनजाने में अफवाहें फ़ैलाने और लोगों की भावनाओं को आहत करने से बचें. ये इतना मुश्किल भी नहीं है जितना लगता है. बस क्रोध आने पर दस तक की गिनती करने जैसा है.


योग विद्या के सिधान्तों के पालन से ये काम बड़ी आसानी के साथ किया जा सकता है.

असहिष्णुता और लोकतंत्र

जब भी मुझे ‘भीड़भाड़ वाले और घिचपिच गली मोहल्लों से गुजरते घुमावदार रास्ते’ और ‘खुले हुए , चौड़ी सड़क वाले सीधे रास्ते’ में से किसी एक का चुनाव करना हो  तो में दूसरा विकल्प ही चुनूंगा चाहे इसके लिए मुझे ज्यादा दूरी ही क्यूँ न चलाना पड़े. मुझे लगता है कि इस तरह से मैं उच्च गीयर पर गाडी चला  सकूँगा और  मार्ग में कम अवरोधों के कारण मुझे कम ब्रेक लगाने पड़ेंगे. इस तरह मैं न सिर्फ समय की बल्कि पेट्रोल की भी बचत कर सकूंगा.

पर यह एक व्यक्तिगत चुनाव है. मेरी पत्नी का दिमाग ठीक इससे उलट चलता है. उसे अगर पता चले कि भीड़ भाड़ वाला रास्ता एक मीटर भी कम है तो वह उसे शौर्ट-कट मानते हुए उसे ही चुनेगी. बाकी सब बारीकियों को वह नजरअंदाज कर देगी (उसके पास ऑटोमोबाइल इन्जीरिंग की समझ और डिग्री नहीं है).
पर उस पर तुर्रा ये कि वह भी यही सोचती है कि वह शौर्ट-कट लेकर समय और पेट्रोल की बचत कर रही है.

देखा जाय तो अपने अपने द्रष्टिकोण से हम दोनों ही सही हैं. व्यवहारिक दुनिया में यह कभी ठीक ठीक कहा नहीं जा सकता कि कौन सो द्रष्टिकोण हमेशा मानने से वास्तव में बचत होगी और कितनी.
हालाँकि दोनों द्रष्टिकोण एक दूसरे के ठीक उलट जान पड़ते हैं पर किसी एक को सही साबित करने के लिए दूसरे को गलत ठहराना जरूरी नहीं है.

हम दोनों एक दूअसरे से लड़ने की बजाय आपसी तालमेल और समझदारी से कभी एक और कभी दूसरा विकल्प चुन सकते है और हंसी खुशी सफ़र तय कर सकते है.

ये सिर्फ (मेरे) परिवार की कहानी नहीं है. ध्यान से देखें तो हर समाज में हार काल में इस तरह की दो विरोधी सी लगाने वाली सोच रखनेवाले लोग मिल जाते है.

एक तो वो जिनको अक्सर रुढ़िवादी कहा जाता है. ये लोग किसी बात को लेकर अधिक सोचविचार और गणना करने के बजाय भूतकाल में सफल रही पुरानी विचारधारा के पक्षधर होते हैं और कुछ भी नया सोचने से कतराते है.

दूसरी तरफ उदारवादी सोच रखनेवाले लोगों की भी कमी नहीं है जो हर बार नए नए प्रयोग करते नहीं थकते. जोखिम उठाने में इन्हें जैसे मज़ा आता है.

आजकल देश में असहिष्णुता के नाम पर जो वातावरण बना हुआ है वह इसी तरह की अलग अलग सोच रखने वाली विचारधाराओं का टकराव है.

यहाँ प्रश्न ये नहीं होना चाहिए कि , ‘देखें कौन जीतता है?’ बल्कि हमारी कोशिश यह रहनी चाहिए कि बिना एक दूसरे को नीचा दिखाए या गलत साबित करे दोनों विचारधारा के लोग एक दूसरे के साथ सम्मान के साथ जी सकें.

हमारा दायाँ पैर अगर ये कहने लगे कि शरीर का सारा वजन वह ही उठाता है और बाएँ पैर का इसमें कई योगदान नही है ,तो क्या हम उसकी बात सुनकर अपने बाएँ पैर को ही काट डालेंगे ?

या फिर हमारे फेफड़े ये कहने लग जायें कि साँस बाहर छोड़ना एक हानिकारक काम है जिससे कोई फाय दा नहीं होता इसलिए इसे बाँट कर देना चाहिए , तो क्या हम सिर्फ सांस अन्दर खीचना जारी रख कर फेंफडों को फाड़ डालेंगे?

दो विरोधी विचारधाराएं लोकतंत्र की बुनयादी जरूरत है.
क्या हम इस बुनयादी जरूरत को पूरा करने में सफल होंगे ?

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