हिसाब किताब


घर में कल शाम से ही बबाल मचा हुआ था. शाम को सुधा की शादी में जाना था और लेन देन की डायरी कहीं मिल ही नहीं रही थी. इस डायरी में इस बात का हिसाब किताब रखा जाता था कि किसने हमारे घर में हुए किसी समारोह में कितना पैसा भेंट दिया था ताकि उसके घर पर हुए किसी समारोह में भेंट देते समय उतने ही मूल्य की भेंट दी जा सके.

 रूढ़िवादी सोच की शह पर सदियों से चलने वाली परंपरा थी यह हमारे घर में जो शायद जाने कितने ही और घरों में भी अपनायी जाती थी.

उमा नयी उम्र की नयी और प्रगतिवादी सोच पर चलने वाली लड़की थी. वह इस तरह की कई बातें हज़म नहीं कर पाती थी.

उसके विचार से भेंट देते समय वस्तु नहीं बल्कि उसमें निहित भावना का अधिक महत्त्व था. और अगर मान लो कोई हिसाब किताब करना भी था जरूरी है कि वही रकम लौटाई जाय जो उस व्यक्ति नें कभी दी थी जा हे वह पांच साल पहले की बात क्यों हो. आखिर पांच सालों की महंगाई को भी तो इसमें शामिल किया जा सकता था. और दोनों तरफ की आर्थिक स्तिथि को क्या नहीं ध्यान में रखना चाहिये इसमें. सुधा आंटी के पति की तनखाह 40 हज़ार है और पापा की 80 हज़ार तो क्या हमें उनकी रकम से दुगना नहीं लौटना चाहिए.
पर नहीं हमारे घर में तो बस मक्खी के ऊपर मक्खी ही रखना है. अगर डेढ़ हज़ार मिले हैं तो डेढ़ हज़ार ही वापस करने हैं, नहीं तो अनर्थ हो जायेगा.

क्या ये महाभारत की लड़ाई है कि तलवार का जबाब तलवार से और गदा का गदा से देना है. अगर कुछ उन्नीस बीस हो भी गया तो कौन सी आफत  जायेगी ?

उमा ने अपने मोबाइल के कुछ बटन दबाये और सुधा आंटी के अकाउंट में एक अच्छी सी रकम (जो वह ठीक समझती थी) भेज दी. रूढ़िवादी सोच रखने वाले लोगों को इसका कुछ पता भी चला. पर उमा अब निश्चिन्त थी और सुधा आंटी की शादी में जम कर नाचने के लिए तैयार  होने चल दी .उसने यह भी निश्चय किया कि वह अपने घर में इस तरह की किसी डायरी का झंझट नहीं पालेगी.


घड़ी


घड़ी तू क्यों इतना नाप तोल कर चलती है,
क्यों नहीं मेरी ज़िंदगी की तरह कभी रुकती
और कभी मचलती है

छोटे कदमों से लम्बा सफ़र तय करती है
दो पल का भी आराम नहीं करती
तेरे काम की तुझे तनख्वाह भी तुझे
कहाँ मिलती है

ये सही है कि वक्त की धारा
थम नहीं सकती
पर तुझे किस बात की जल्दी है?

बोर होने से अगर बचाना है तो
ज़िंदगी से कुछ सीख ही ले ले
जो हर कदम पर अपना मिजाज़ बदलती है

बहुत आये होंगे तेरे टिक टिक के छलावे में मगर
बात को मेरी गांठ बाँध
ऐसी नसीहत बड़ी मुश्किल से मिलती है

दोषी कौन



आजकल पी एन बी फ्रॉड के मास्टरमाइंड नीरव मोदी को सजा दिलवाने को लेकर मीडिया बेहद चिंतित दिखाई देता है और कैसे उसने बैंक को करोड़ो का चूना लगाया इसकी खबरें चटखारे लेकर परोसी जाती है. ठीक इसी तरह का  माहौल उस वक्त था जब ललित मोदी और विजय माल्या द्वारा किये गए फ्रॉड का पता लगा था.

आम आदमी इस सब में पीड़ित और ठगे हुए व्यक्ति की भूमिका में पाकर राहत महसूस करता है. सारे के सारे पाप का ठीकरा फोड़ने के लिए एक खलनायक का चेहरा तो मिल ही चुका है.

पर ये ताली क्या एक हाथ से ही बजी होगी . क्या बेईमानी की इन घटनाओं के श्रंखला में सिर्फ एक तरफी कार्यवाही ही हुयी होगी. क्या इसमें उन लोगों के लालच का कोई योगदान नहीं है जिन्होनें सारी मर्यादाएं, कायदा कानून और इंसानियत को एक तरफ रख कर फर्जी लोन दिए होंगे (जिससे कारण उस रकम के कई वास्तविक हकदार महरूम भी हो गए होंगे).

इस तरह के सभी पापी जनता की भीड़ में मिल कर किसी एक नीरव मोदी या ललित मोदी को पत्थर मार मार कर बेहद बड़ा बना देते हैं. समाज में दोगलेपन का यह खेल सदियों से मिल जुल कर खेला जाता रहा है. बस खिलाड़ी बदल जाए है.

 राम रहीम और आसाराम के अपराधों के समय भी यही खेल उन लोगों द्वारा खेला गया जिनकी   अंध भक्ति ने इस लोगों को भगवान बना रखा था.

जमाना कितना भी नया क्यों न हो जाय पर गलतियाँ हम वही पुरानी दोहराते हैं.
क्या इससे निजात संभव है?

My new eBook