अन्नदाता


नरेश ने एक बार रस्सी के फंदे को हल्का सा खींच कर देखा. क्या वो उसका बोझ उठा लेगी? या फिर उसके भाग्य की तरह धोका दे जायेगी?
तीन साल पहले महाजन से लिया हुआ बीस हजार का कर्ज कैसे बढ़ कर साढ़े तीन लाख का हो गया था उसके मोटे दिमाग की समझ से परे था.
उसके दिमाग में हजारों चलचित्र दौड़ रहे थे. उनमें झांकते हुए उसने आखिरी बार फिर ढूंडने की कोशिश की . क्या कोई तरीका है जिससे कर्ज उसके सर से उतर सके. उसे कहीं कोई आशा की किरण दिखाई नहीं दी.
फिर उसने अपनी पत्नी और बच्चों के बारे में सोचा जो पिछले कई दिनों से भूख से बिलबिला बिलबिला कर खाली पेट सो रहे थे पर फिर भी उसके लिए घर पर आने पर थोडा सा खाना कैसे ने कैसे बना कर रख देते थे ये झूठ बोल कर कि उन्होंने खाना खा लिया है. अब से घर में एक पेट कम हो जायेगा और उन सब को भी कुछ अन्नं नसीब होगा. उसकी मौत के बाद शायद कोई सरकारी मदद भी मिल जाय.
अपने भगवान् को याद करते हुए उसने अपनी टांगों के नीचे रखे स्टूल को धक्का दे दिया.
एक अन्नदाता इस धरती से कम हो गया.
ये मौत कल स्थानीय समाचार पत्रों में एक छोटी सी खबर बनकर उभरेगी और टी वी पर बहस करते विशिष्ठ जनो के कम्पुटर और दिमाग में आंकड़ो की गिनती को किसी और तरफ झुका देगी ये मकडजाल और उलझ जायेगा.
फिर मीडिया को कोई और सुलगती हुयी खबर मिल जायेगी और इस अन्नदाता की मौत बासी खबरों के कचरे में घुल जायेगी. इस कचरे से भी कोई न कोई व्यापारी धंदा बना कर अपने फायदे का जुगाड़ कर लेगा जिसका श्रेय कोई राजनेता चुराने के चक्कर में रहेगा. 
समय का वही चक्र बार बार चलता है .
आखिर कौन  उसे रोकेगा?

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