किसका साथ : किसका विकास ?


आज से 72 साल पहले जब अंग्रेजों को इस देश से जाना पड़ा, तो विभाजन के दंश के साथ वे हमारे लिए एक लुटी-पिटी अर्थव्यवस्था छोड़ कर गए थे । स्वतंत्र भारत की विभिन्न सरकारों ने अपने-अपने तरीके से विभिन्न समय में इसका उत्थान करके आज हमें विश्व की सातवीं अर्थव्यवस्था तक पहुंचा दिया है। वर्ल्ड-बैंक के ताजा आंकड़ों के अनुसार भारत में गरीबों की संख्या 33.8 प्रतिशत है। अब सबको अपेक्षा है इस संख्या को और कम करने की। पर जिस देश में 7% से भी कम कर-दाता हों वहां ये एक बहुत बड़ी चुनौती है।
यूँ तो हमारे देश में गरीबी दूर करने की सरकारी योजनाओं की कोई कमी नहीं है पर इनमें से अधिकतर योजनाएं कागजों पर ही सिमट कर रह जाती हैं और असली हकदार  उनकी पहुँच से बहुत दूर रह जाते हैं जबकि अनेक शरारती तत्व उनका हक़ येन-केन-प्रकरेण छीन लेते है।
ये सब होता इसलिए है कि जिन लोगों को  गरीबों के लिए इन सुविधाओं / धन या संसाधन के वितरण की जिम्मेदारी दी जाती है वे लालच के वशीभूत होकर अपने समीपस्थ लोगों को लाभ पहुंचा देते हैं, योग्य या उसके असली हकदार के बजाय। इस पर किसी ने खूब कहा है-
"अँधा बाँटे रेवड़ी, फिर-फिर- अपनो ही देय "
एक लम्बे अरसे से बन्दर-बाँट की यह प्रक्रिया बदस्तूर जारी है। हमारे एक पूर्व प्रधान मंत्री के अनुसार तो सरकारी योजनाओं के लाभ का सिर्फ पंद्रह प्रति-शत ही उसके असली लाभार्थियों को मिल पाता है4 और बाकी बन्दर-बाँट का शिकार हो जाता है। नरेंद्र मोदी सरकार  द्वारा लाभ की रकम सीधे लाभार्थी के बैंक खाते में देने के निर्णय से एक हद तक लगाम तो कसी गयी है पर यह काफी नहीं है। भ्रष्टाचार की जड़ें हमारे देश में बहुत गहरी है और यह हर स्तर पर मौजूद है। जानकारी का अभाव हो या अपना नाम सरकारी रिकॉर्ड में शामिल करने योग्य धन न खर्च करने की विवशता या फिर सरकारी आंकड़ा बनानेवालों की संवेदन-हीनता, यह सत्य किसी से छिपा नहीं है कि एक बड़ी संख्या में वंचित वर्ग सरकारी आंकड़ों में शामिल ही नहीं है। और बहुत से लोगों ने वास्तव में लाभार्थी न होने के बावजूद भी कुछ पैसा खर्च करके अपना नाम उस सूची में डलवा रखा है।
हमारे देश में 'सब चलता है' दृष्टिकोण रखने के कारण अमीरों ओर गरीबों (साधन-संपन्न और वंचितों) के बीच की खाई को पाटना एक दुर्गम लक्ष्य है जो आसानी से प्राप्त नहीं होने वाला । इस लक्ष्य के ऊपर बातें बहुत हो गयीं पर अब तक कोई भी तरकीब उम्मीदों के अनुरूप प्रभावी नहीं हो सकी है। शायद अब  तक के सारे  के प्रयास आधे-अधूरे और बनावटी अधिक रहे हैं जिनको प्रभावशाली लोगों ने अपने हिसाब से तोड़ा-मरोड़ा है और फायदा उठाया है। अब आवश्यकता है एक समग्र चेष्टा की, जिसके लिए कोई मूल मंत्र या सिद्धांत भी चाहिए।
इस स्थिति से उबरने के लिए हमें कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि इस सदी के अद्भुत व्यक्तित्व और प्रेरणा-श्रोत हमारे राष्ट्र पिता महात्मा गाँधी के एक सिद्धांत को समझने की कोशिश भर करनी है। गाँधी का वह मूल मंत्र इस सम्बन्ध में हमारी सहायता कर सकता है जिसमें उन्होंने कहा था, “जब वह किसी काम को हाथ में लेते हैं तो उनकी आँखों के सामने सबसे गरीब और दुखी व्यक्ति का चेहरा होता है और वह यह देखते हैं कि उस काम का असर उस व्यक्ति पर क्या होगा।
यह कोई साधारण जीवन दर्शन नहीं है। अगर हम सब अपने-अपने व्यक्तिगत स्तर पर और सरकार तथा सामाजिक संस्थाएं अपने स्तर पर मिल कर इस मूल धारणा के अनुसार कार्य करें तो गरीबी उन्मूलन का लक्ष्य हासिल करना कोई बड़ी बात नहीं। इससे हमें एक नयी दिशा मिलेगी।
गाँधी का यह मंत्र हमारे प्रयासों को सबसे वंचित व्यक्ति पर केंद्रित कर देता है जो  कार्य शैली का  एक आधारभूत परिवर्तन  है। अब तक के किये गए सभी प्रयास जहाँ मात्र रस्म अदायगी ही थे, वहां इस तरह का प्रयास एक आत्मीय पहल होगी।
कुछ लोग आज के समय की मांग की दुहाई देकर इसे अप्रासंगिक करार देने की हिमायत करेंगे।
यह सही है कि हमारा रहन सहन, मान्यताएं और कार्य शैली  पिछले कुछ वर्षों में तेजी से बदली है पर जीवन के मूल सिद्धांत नहीं बदले हैं। लालच ने हमारी सोच पर घर जमा लिया है जो हमारे प्रयासों को कमजोर कर देता है जीवन शैली को विकृत। ऐसी स्थिति में यह मंत्र राम-वाण का सा काम करता है और आधुनिक जीवन शैली के लिए न सिर्फ प्रासंगिक है बल्कि पहले से अधिक उपयुक्त और प्रभावकारी है।
बहुत से लोग समझते हैं कि किसी वंचित की सहायता के लिए उसे  तत्काल आर्थिक सहायता या विकास प्रक्रिया में वरीयता देकर उनका कर्तव्य पूर्ण हो गया पर अकसर देखा गया है कि इस प्रकार की सहायता के बाद भी वंचित अपने दुष्चक्र से नहीं निकल पाते बल्कि उसमें और उलझ जाते है। वास्तव में वंचितों को तत्काल सहायता की बैसाखी  के साथ  ही उन्हें चुनौतियों का सामना करने के लिए सक्षम बनाए की भी आवश्यकता है। अत: गाँधी  के अंतिम जन के मंत्र को हमें गाँधी के ही एक और मंत्र के साथ मिला कर देखना होगा जो था 'आत्मनिर्भरता' का। गाँधी चाहते थे की इस देश का हर व्यक्ति आत्मनिर्भर हो। अंग्रेजों से उनके विरोध का मूल कारण भी यही था की उन्होंने विकास में सहायता तो की पर बस एक भीख के रूप में और हमसे हमारी सम्पन्नता, स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता छीन ली।
हमें वंचितों की यथोचित सहायता के साथ ही  उन्हें आत्मनिर्भर बनाने में भी मदद करनी होगी तभी गाँधी का सपना सजीव होगा।
गाँधी के अंतिम जन  और आत्मनिर्भरता के मन्त्रों की प्रासंगिकता का इससे बड़ा प्रमाण की हो सकता है कि  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका बार-बार अनेक स्थानों पर उल्लेख किया है। इसके अलावा एक प्रमाण यह भी है की इस सिद्धांत को रेखांकित करता “सबका-साथ, सबका- विकास” का नारा न सिर्फ गढ़ा गया और अत्यंत प्रचलित हुआ और हर किसी की जुबान पर आया बल्कि एक सरकार के दुबारा सत्ता में आने का कारण भी बना।
इस नारे का इतना प्रचलित होना और अपर जन समूह का इस पर विश्वास यह दर्शाता है कि हमारी सरकार और उसके मुखिया बिलकुल सही सोच के मार्ग पर हैं। पर सोच को जमीनी हकीकत में बदलने के लिए अथक प्रयास और संयम की आवश्यकता है।
इस नारे को जिसमें गाँधी के अंतिम जन और आत्मनिर्भरता का मंत्र छुपा है, मनसा-वाचा- कर्मणा से संचालित करने की अपेक्षा है, अन्यथा यह और कई नारों की ही तरह बस एक खोखला नारा ही बन कर रह जायेगा।

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