ब्रह्मचारी



ब्रह्मचर्य या ब्रह्मचारी का नाम सुनते ही दिमाग में अक्सर एक ऐसे शख्स की तस्वीर उभरती है जिसने अपनी काम इच्छाओं को मार डाला हो.

समाज में काम-वासना के प्रति छुपाने का जो रवैया रहता है उसके चक्कर में कुछ लोगों ने इस शब्द को बदनाम कर डाला है. पतंजलि द्वारा बताये अष्टांग योग का एक अंग है यम है और उस यम में से एक है ब्रह्मचर्य जिसका अर्थ है अपने व्यव्हार में संयम या अनुशासन को शामिल करना. जीवन को सहज रूप से जीने का यह एक गूढ़ सूत्र है.

इस बात को धन के सन्दर्भ में समझने में आसानी होगी. अगर किसी व्यक्ति या संस्था की वित्तीय स्तिथि का सही ब्यौरा लेना हो हमें उसके खर्चे और आमदनी की तुलना करनी होगी. अगर आमदनी खर्चे से अधिक है तो वह व्यवस्था स्वस्थ नहीं होगी चाहे बाहर से उसका रूप कैसा भी दिखे. पर जिस व्यक्ति या संस्था द्वारा खर्चों को आमदनी के अंदर रखा जाता है उनके पास बचत के रूप में अर्जित पूंजी होती है. इसका यह अर्थ नहीं कि खर्चा करना कोई बुरी बात है या खर्चा नहीं करना चाहिए. एक स्वस्थ्य व्यवस्था के लिए बस खर्चे और आमदनी में तालमेल बिठाना जरूरी है. कुछ लोग सोचते होंगे कि क़र्ज़ लेकर स्तिथि को सुधार जा सकता है और क़र्ज़ लेना एक आम बात है. पर क़र्ज़ के बोझ तले दबे व्यक्ति या संस्था की काम करने की अपनी स्वतंत्रता तो घट जाती है और उसे मजबूरन ऐसे काम और फैसले करने पड़ते है जिसमे उसका नहीं बल्कि कर्जदाता का फायदा छुपा होता है. कर्ज लेना जब एक आदत और मजबूरी बन जाती है तो स्तिथि और नाजुक बन जाती है. इसी बात को लेकर शायद ये मुहावरे प्रचिलित हुए होंगे-

‘आमदनी अठन्नी खर्च रुपय्या’ .

‘अपनी चादर देख कर ही पैर फेलाना चाहिए’.

अगर इमानदारी और निष्पक्षता से तथ्यों को देखें तो गिने चुने व्यक्ति ,संस्था या देश आर्थिक रूप से स्वस्थ दिखेंगे. इसका एक कारण यह है कि हम संयम या अनुशासन जैसी ताकतवर तकनीक का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए नहीं कर पा रहे हैं.

प्राचीन काल में साधू संत और योगी जीवन के गूढ़ रहस्यों को जानकर उनका पालन करते हुए स्वस्थ और मर्यादित जीवन जीते थे. अपनी इच्छओं और शरीर की जरूरतों के प्रति उनका द्रष्टिकोण सहज था. काम वासना को आंख मीच कर रोकने की वकालत शायद ही किसी संत या योगी ने की होगी. अगर ऐसा होता तो अजंता ,एलोरा और खजुराहो के मंदिर न बनते और काम सूत्र जैसा महा ग्रन्थ न रचा जाता और न ही हमारे अधिकांश ऋषि मुनी विवाहित होते. समय के साथ महापुरुषों के वचनों को सन्दर्भ से परे जाकर तोड़ा मरोड़ा जाने लगा होगा जिससे कई चीजों के बारे में भ्रांतिपूर्ण धारणाये बनती गयी और ऐसा ही संभवत: ब्रह्मचर्य शब्द के साथ हुआ होगा.

अपनी बात के पक्ष में एक और तर्क देना चाहूँगा. हमारा शरीर प्रकृति की अनूठी कलाकृति है. अगर हम ध्यान से कुछ अंगों की बनावट और कार्य को देखें तो वो भी संयमित जीवन की ओर इशारा करते है-

* आंख और कान प्रकर्ति ने दो दो दिए है –जहाँ एक तरफ इससे हमारे सुनने और देखने की गुणवत्ता बढ़ जाती है वहीं आपातकालीन स्तिथि में एक अंग नष्ट होने पर भी हमारी देखने या सुनने की क्षमता नहीं नष्ट होती. प्रकृती शायद हमसे ये चाहती है कि हम इस संसार के नजारों और औरो की बातों का भरपूर लुत्फ़ लें.

* मुंह और गुप्तांग बस एक एक दिए है और उनपर भी दो दो कार्य करने का भार सोंपा है- मुंह से हम न सिर्फ बात करते है बल्कि भोजन भी ग्रहण करते है. गुप्तांगो का उपयोग न सिर्फ सहवास का आनंद लेने के लिए किया जाता है बल्कि इसी रास्ते से हम मल- मूत्र का त्याग करते है. प्रकृती शायद हमसे ये चाहती है कि हम इन सब क्रियाओ (बोलना, खाना, सहवास और मल विसर्जन) पर संयम और अनुशासन रखें.

अनुशासन की तकनीक का इस्तेमाल करते हुए सेनाएँ महान विजय प्राप्त करती है. इसी तरह एक आम आदमी भी अपने जीवन में इस तकनीक का लाभ उठाकर ब्रह्मचर्य धारण कर सकता है.

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