अष्टांग योग : एक परिचय

योग का नाम सुनते ही आपके दिमाग में क्या तस्वीर उभरती है ?

शरीर को अजीब ढंग से तोड़ मरोड़ कर बैठा या जोर जोर से साँस लेता कोई व्यक्ति ?
या फिर आप उन आसनों या  प्राणायाम  के विषय में सोचते हैं जो आपकी जानकारी के दायरे में हों ?

योग असल में इन छोटी छोटी चीज़ो से कहीं ऊपर एक सम्पूर्ण जीवन प्रणाली है जिसे हजारों साल पहले महापुरुषों की उस जमात ने खोजा और रचा था जिन्हें हम ऋषि -मुनी कहते थे.
इस अदभुद  चीज का परिचय मैं अपने ढंग से देने का प्रयास यहाँ कर रहा हूँ.

कौन थे ये लोग और क्यों बनाई ये तकनीक ?

मेडिकल साइंस और इन्फोर्मशन टेक्नोलोजी के अनेको उत्पाद हम अपने दैनिक जीवन में इस्तेमाल करते हैं. एक कैप्सूल या इंजेक्शन लिया और बीमारी गायब. की बोर्ड या माउस पर कुछ बटन दबाये और अपने मनपसंद गाने को सुन लिया या हजारों मील दूर बैठे अपनों से बात कर ली. ये सब जादुई चीजे अपने आप नहीं हो जाती. इन उत्पादों को इस रूप तक लेन के लिए कितने ही प्रयोग किये जाते हैं और दिमाग खपाया जाता है. ये सब करने वाले भी हमारी और आपकी तरह के आम इन्सान हैं पर खोजी प्रवत्ति के. खोज को ही उन्होंने अपना लक्ष्य बना लिया है और मानवता के उत्थान के लिए वे समर्पित है. सरकार और व्यापारी इनको बढ़ावा देते हैं. इन्हें आजकल  हम रिसर्च स्कॉलर या साइंटिस्ट के नाम से जानते हैं.
इसी तरह के लोग हजारों साल पहले भी हुआ करते थे. आबादी से दूर जंगलों में वे अपना रिसर्च का काम करते थे और राजा- महाराजा भी उनका आदर करते थे. आम मान्यता के विपरीत इनमे से कई  लोग  गृहस्थ  जीवन  में रहते हुए ये सब कार्य करते थे. इन्हें ऋषी - मुनी के नाम से जाना जाता था.

इन्ही में से कई लोगो की खोज का विषय था , 'एक आम आदमी को स्वस्थ जीवन जीने की  तकनीक'. इसी को योग या योग विद्या के नाम से जाना गया. मान्यता है कि शिवजी ने पार्वती से योग विद्या का वर्णन सर्वप्रथम किया. यूँ तो पौराणिक ग्रन्थ जैसे वेद ,उपनिषद् और भगवत गीता में योग का उल्लेख  मिलता  है ,पर महर्षि पतंजलि ने अपने  'योग सूत्र'  में आठ अंगों वाले योग का एक मार्ग विस्तार से बताया है.  अष्टांग योग एक आठ अंगों वाली सम्पूर्ण प्रक्रिया है.

योग क्या है -
योग का अर्थ है जोड़ या जुड़ना . (अंग्रजी भाषा ने इसके सही उच्चारण को भी बदलकर 'योगा' के नाम से  परिवर्तित कर डाला है). अब प्रश्न यह है कि योग की तकनीक से हम किससे जुड़ते हैं. और इसका उत्तर यह है कि हम अपने आप से जुड़ते हैं. सुनने में शायद यह आपको अटपटा लगे, पर सच यही है. योग की अंतिम अवस्था को समाधी कहा जाता है. ये अवस्था शब्दों से परे है ,सिर्फ अनुभव की जा सकती है ,भाषा के सिमित दायरे में बताई नहीं जा सकती.

परोक्ष रूप से इसे 'आत्मा या जीवात्मा का परमात्मा से मिलन बताया गया है' पर परमात्मा कोई हम से अलग चीज नहीं है. ये एक परिकल्पना है. हमारे पास दिमाग जैसा सुपर कंप्यूटर और शरीर जैसा अदभुद संसाधन मौजूद है जिसके इसतेमाल से हम जो चाहे वह प्राप्त कर सकते है. पर इस जीवन की भाग दौड़ में हमारे मन की ट्यूनिंग कहीं बिगड़ जाती है बल्की कई बार तो ये भी ठीक से समझ में नहीं आता कि हम चाहते क्या हैं . हमारी हालत उस सरकार की सी होती है जिसके पास कानून बनाने की क्षमता तो होती है और अधिकतर लोग इन कानून को आसानी से मानाने को भी तैयार भी रहते हैं पर वो फिर भी अपना काम ठीक से नहीं कर पाती. इसका कारण यह होता है कि सरकार जिसका काम जनता के लिए निर्णय लेने का होता है वह अधिकतर अपने खुद के फायदे के लिए निर्णय लेने लगती है और ऐसा करना उसकी आदत बन जाती है. ऐसे में सरकार अपनी पहचान जनता से अलग समझने लगती है. अब यहाँ जरूरत सिर्फ इस सरकार से उसका सही परिचय भर करने की होती है.इस एक बोध के होते ही सब कुछ ठीक से चलने लगता है. बाहर से देखने में चीजे वही रहती है पर अन्दर से  महसूस  होता है एक खुशहाली और आनंद का अनुभव.

योग से भी  हमें बाहर से कोई भगवान आकर हमें कुछ अनूठा नहीं दे जाता. बस हमारा  अपने आप के  वास्तविक रूप से परिचय भर हो जाता है और एक बोध हो जाता है कि हे करना क्या है अपने जीवन में . फिर  उसके लिए जो भी करते हैं हम ही करते हैं पर उसमे आनंद  आता है और पूरा जीवन ही एक उत्सव बन जाता  है .

अष्टांग योग
अष्टांग योग के आठ अंग बताये गए हैं -

१. यम
२. नियम
३.आसन
४.प्राणायाम
५.प्रत्याहार
६.धारणा
७.ध्यान
८.समाधी

यम-  यम वह व्यवस्था है जिसके द्वारा सभी व्यक्तियों का समाज में रहना आसान  हो जाता है.  ये general guidelines है जिसका आचरण सामूहिक रूप से एक हमें व्यवस्थित रखता है. इनका आकलन निजी स्वार्थ की कसोटी पर नहीं किया जा सकता. ये हमारे सामाजिक  दायित्व है. 
उदहारण के लिए एक व्यवस्थित सड़क यातायात के लिए हम इन दो   व्यवस्थाओ  का प्रयोग करते है-

१. सभी वाहन चालक अपन बाये (यूरोप और अमेरिका में दायें) चलते है.
२. मुड़ने या रुकने से पहले इशारा करते है.

इनका महत्त्व अपने फायदे के लिए नहीं पर सबके फायदे में है. कुछ लोग (खास कर युवा वाहन चालक) इन छोटी छोटी और मामूली सी दिखती बातो के बारे में बात या विचार करना भी अपनी तौहीन समझते है. पर अगर हम किसी भी सड़क दुर्घटना का विश्लेषण करे तो उसके मूल में किसी एक पक्ष का ऐसी ही किसी मामूली सी बात की अनदेखी करना ही होता है.
 जिस समाज में उनके द्वारा बनाई गयी व्यवस्थ का पालन लोग इमादारी और मन से करेंगे वहां का traffic व्यवस्थित    तो होगा ही.

 इसी तरह यम भी एक स्वस्थ समाज के लिए  व्यवस्थाये है. ये है -       

(क) अहिंसा - शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को हानि नहीं पहुँचाना
(ख) सत्य - विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना
(ग) अस्तेय - जिस  चीज पर किसी दूसरे का हक़ है  उसे अपना न समझाना ,ये चोरी है
(घ) ब्रह्मचर्य - सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम और अनुशासन बरतना
(च) अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना

हममे से अधिकतर लोग इनके महत्त्व को समझते है पर शायद सब लोग मन से और इमानदारी से इनका पालन नहीं कर पाते हर बार. कुछ तार्किक प्रवत्ति के लोग सोचेंगे ,ये सब तो vague है -इन सब बातों का फैसला कौन   करेगा  कि  सच  क्या है और झूठ क्या? आवशयकता कितनी है? अनुशासन क्या है? अदि अदि. दरअसल ये प्रश्न इतने व्यापक है कि इनका जबाब किसी फिक्स्ड  फ़ॉर्मूला से नहीं निकला जा सकता .समय और परिस्थिति के अनुसार इनके अर्थ इतने बदलते रहते है कि इन्हें शब्दों में बांध हर परिभाषित नहीं कर सकते . योग में इन सवालों का जबाब  ढूँढने  की  जिम्मेदारी  भी  साधक पर ही छोडी गयी है. असल में जैसे ही हमें इन सवालों का सही जबाब (अपने परिप्रेक्ष में) मिलता है हम योगी हो जाते है और अपने सच्चे स्वरुप से हमारा परिचय हो जाता है.

नियम:  यम में जहाँ हमारे सामाजिक दायित्यों का बोध कराया गया है,वहीं नियम के द्वारा हमें व्यक्तिगत रूप से  अनुशासित   और स्वस्थ रखने का प्रयास किया गया है.  नियम कोई खास ढंग से काम करने की हिदायत नहीं है और इसे बंधन या मजबूरी के रूप में नहीं देखना चाहिए. ये हमारी चेतना को उन व्यवस्थाओं से  जोड़ने  का प्रयास है जो हमें स्वस्थ रखने में सहायक हो सकती हैं. इस बारे में हम अपनी परिस्थति और सीमाओं में रह कर जो भी श्रेष्ठतम  कर सकते है उसका प्रयास करना चाहिए.
पतंजलि ने ये नियम बताये है -

 (क) शौच - शरीर और मन की शुद्धि
(ख) संतोष - संतुष्ट और प्रसन्न रहना
(ग) तप - स्वयं से अनुशाषित रहना
(घ) स्वाध्याय - आत्मचिंतन करना
(च) इश्वर-प्रणिधान - इश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा

आसन और प्राणायाम
आसन और प्राणायाम तो योग के काफी प्रचलित अंग हैं. धीरेन्द्र ब्रह्मचारी, ओशो, रवि शंकर (आर्ट ऑफ़ लिविंग ), बी के एस  ऐयेंगेर अदि ऐसी अनेक शख्सियत हैं जिन्होंने इनको जन जन तक पहुँचने का कार्य किया है. और बाबा रामदेव (पतंजली योगपीठ ) ने तो प्राणायाम को नए आयाम दिए हैं . बड़ी सरलता से उन्होंने योग को साँस से जोड़ा है और वज्ञानिक रूप से परिणाम सामने लाये हैं.
मूल रूप से इनका परिचय इस तरह से है-

आसन:  आसन या योगासनों research  द्वारा स्थापित वो शारीरिक मुद्राये या posture  है जो एक स्वस्थ शरीर को maintain  करने में सहायक है. इन्हें जबरदस्ती करके अपने शरीर को कष्ट नहीं पहुंचना चाहिए जैसा कि कुछ लोग करते है, हर व्यक्ति को हर आसन करने की कोई जरूरत नहीं है. हमें वह आसन प्रक्टिस के लिए चुनना चाहिए जो हमारे जीवन में वांछित बदलाव ला सके. चुने गए आसन की अवस्था में हमें तब तक रहने चाहिए जब तक हमारा शरीर इसे प्रसन्नतापूर्वक करने की इजाजत देता है - फिर धीरे धीरे इस अवधी को बढ़ाना चाहिए.

प्राणायाम:  श्वास हमारे जीवन की डोर है. साँस अन्दर लेने पर एक उर्जा/ शक्ती और पदार्थ (हवा) कही बाहर से आकर  हमारे खून बनने की प्रक्रिया के लिए उपलब्ध होती है. इसका जितना हिस्सा हम ग्रहण कर लेते है वो हमारा हिस्सा बन जाता है.इस तरह हम हर स्वांस के साथ बदलते रहते है. ये वायु तो वास्तव में माध्यम है ,इसके साथ बहुत से सूक्ष्म पदार्थ न जाने कहाँ कहाँ से आकर जुड़ जाते है और साँस द्वारा  अंततः हमें मोका देते है अपने आपको बदलने का. जाने या अनजाने में हम हवा के माध्यम से इस विराट संसार की कितनी ही चेतनाओ और पदार्थों के गुण ग्रहण करते रहते है साँस लेकर. प्राणायाम की तकनीक द्वारा जहाँ के ओर हम लम्बी और गहरी साँस लेकर अपने लिए अधिक प्राण उर्जा उपलब्ध करते है वहीं दूसरी ओर उर्जा के इस विशाल भंडार से वही तत्व ग्रहण करने की कला सीखते है जो हमारे स्वस्थ जीवन में सहायक हो सके.

प्रत्याहार - इसका अर्थ है इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना. इश्वर ने हमें ५ इन्द्रिया दी है-
१. देखने की शक्ति
२.सुनने की शक्ति
३.छू कर या स्पर्श कर वस्तुओ को महसूस करने की शक्ति
४.स्वाद लेकर या चख कर जाने की शक्ति
५.सूंघ कर पहचानने की शक्ति.

इन सभी शक्तियों का इस्तेमाल हम बाहर की दुनिया को पहचान करने में करते है. पर हमारी अपने बारे में जो जानकारी होती है वह दूसरो द्वारा हमारे बारे में दी गयी सूचनाओ के आधार पर बनी एक image मात्र होती है. इस image को बनने में जहाँ दूसरो की नजरें काम करती है वही उनका नजरिया भी इसे बनाता है जो हमारे नज़रिए से अलग हो सकता है. इस image को अपनी वास्तविक पहचान मान कर हम जो निर्णय लेते है वह हमेशा स्वस्थ  नहीं रह  पाते.  प्रत्याहार की तकनीक द्वारा हम अपने आप को पहचानने के लिए अपनी ही इन्द्रियों या शक्तियों का सहारा लेते है और किसी दूसरे के द्वारा दी कृत्रिम जानकारी के बजाय अपने बारे में स्वयं जानकारी इकठा करना सीखते है.

 धारणा:  धारणा  का अर्थ है एकाग्रचित्त होना. आप पूंछेंगे  , 'किस पर '? तो इसका जबाब है, 'किसी भी चीज पर जो आपको ठीक लगे'. यहाँ महत्त्व इस बात पर नहीं है कि आप कहाँ focus कर रहे है. महत्वपूर्ण यह है कि आप focus करने में समर्थ है. हमारा मन बड़ा चंचल है. ये हमें जगह जगह भटकता रहता है और हम आदतन इसके गुलाम बन जाते है. फिर  हम  किसी   भी चीज पर ज्यादा देर तक ध्यान देने के काबिल ही नहीं रहते. अपने मन को एक मालिक की तरह इस्तेमाल कर पाने के लिए यह तकनीक बनाई है.

 ध्यान:  किसी चीज का ज्ञान भर हो जाने से हम उसे इस्तेमाल में नहीं ला पाते. हमें हर समय इस बात का अहसास भी होना चाहिए कि ये  ज्ञान या विद्या जो  हमारे पास है उसे अपने जीवन में प्रयोग के लिए उतारें.  निरंतर इस बात को ध्यान में रखना ही  ध्यान  है. परोक्ष रूप से इसे इश्वर का ध्यान बताया गया है पर वास्तव में यह विवेकपूर्ण (और विचार शून्य) जीने की कला है. इस अवस्था में रहने पर हमारे अधिकतर कार्य conscious mind से operate  होते  है unconscious mind से नहीं (सामान्य लोगो की तरह)
 समाधि: योग की अंतिम अवस्था समाधी है. यह  शब्दों से परे रक परम-चैतन्य की अवस्था है. स्वयं की आत्मा से जुड़ कर परमात्मा बनने का कार्य यहाँ संपन्न होता है.

अत:  योग शरीर के लिए केवल एक प्रकार का व्यायाम ही नहीं है.यह एक  प्राचीन तकनीक  है जोकि स्वस्थ्य , सुखमय ओर शांतिपूर्ण जीवन का ढंग है जो अंतत स्वयं से मिलाता है !

1 comment:

  1. बहुत बेहतरीन जानकारी दी है आपने.आभार!!

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