ये कब सुधरेंगे ?




अन्ना हजारे और बाबा रामदेव की कोशिशों ने तीसरे मोर्चे की सम्भावनाये एक बार फिर जिंदा कर दी है. वर्ना हम तो दो अतियों के बीच में झूलने-झुलाने के आदी हो गए थे.

मायावती या मुलायम सिंह ,अम्मा जयललिता या करुनानिधी, मनमोहन या मोदी –शायद हमें बीच में कुछ भी दिखाई देता ही नहीं –चाहे धरातल देश का हो या क्षेत्रीय.

मायावती की माया से परेशान हाकर हम मुलायम की तरफ भागते है जो मुलायम ना रहकर और सख्त हो जाता है.

करूणानिधि की (अपने परिवार के लिए) करूणा से परेशान होकर हम अम्मा को लाते है पर वह तो जय के लिए इतनी ललित कलाये करती है कि करूणानिधि भी करूण हो जाते है.

मनमोहन की चुप्पी ताडने के लिए हम मोदी में विकल्प ढूँढते है जिसके खुद के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह है.

ये शायद ऐसी कयावाद है कि एक थका हुआ मुसाफिर अपने कंधे का भारी बैग एक कंधे से उतारकर दूसरे पर रख कर (थोड़ी देर के लिए) सोचता है कि चलो अब कुछ आराम मिला. पर इस बार बार के बदलाव में सारा का सारा बोझ उसे ही ढोना पडता है चाहे इस कंधे पर या उस पर.



सरकार जनता को अपनी सेवाये देती है और उसके बदले ‘कर’ लेती है पर इस दूकानदारी में इन सेवाओ की कीमत ग्राहक (जनता) की जगह दूकानदार(सरकार) तय करती है.



पक्ष हो या विपक्ष, सत्ता आते ही एक सा व्यवहार करने लगते है . इस व्यवहार की वजह से तो अब सरकार शब्द ही एक गाली की तरह इस्तेमाल होने लगा है.



इसी देश के राम राज्य में एक धोबी के कहने मात्र से राम ने अपनी पतिव्रता पत्नी सीता का जानते हुए भी त्याग कर अपने राज्य धर्म को व्यक्तिगत लाभ के ऊपर रख कर एक उदाहरण पेश किया था. और आज प्रधानमंत्री कोयला घोटाले के सबूत सामने आने पर भी इस्तीफ़ा देने से बच रहे है.



क्या सरकार नाम की ये संस्था कभी सुधर पायेगी?

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