ज्ञान गंगा या गटर ??

हजारों साल पहले गंगोत्री से जब गंगा की पहली धारा फूटी होगी तो कितनी पवित्र रही होगी!

जब ये बढ़ कर एक विशालकाय नदी बनती गयी तो हम इसका आन्नद उठाते रहे फिर इसके जल प्रवाह को आधार बना कर हमने अपने धंधे खड़े कर लिए और मुनाफे के लिए इसका दोहन शुरू कर दिया.

कहने को तो इसे माँ का दर्जा देते रहे पर साथ में हम अपनी सारी गन्दगी सारा कचरा भी इसी की गोद में खाली करते रहे.

इसकी सफाई के बारे में तो हम भूल ही गए थे
लापरवाही की सारी हदें हमने पार कर डाली और एक पवित्र नदी को गटर बनाने में हमने कोई कसर नहीं छोडी और अब ये नौबत आयी है कि सरकार भी असहाय सी दिख रही है.

ऐसा ही एक और धारा है जो आजकल बड़ी तेजी से हमारी जिन्दगी चला रही है
इस धारा का नाम है इन्टरनेट.

और इस ज्ञान गंगा के साथ भी हम ठीक वैसा ही सलूक कर रहे है जैसा हमने अपनी गंगा माँ के साथ किया .
कहीं इसका भी यही हाल न हो जाये...
कृपया इसे मैला होने से बचाएँ....
इसकी गोद में वही डालें जिससे किसी का भला हो सके न की इसे कचराघर समझ कर हर चीज फेंकते जायें.

कुछ भी डालने से पहले एक बार जरूर सोचें कि क्या ये सही है.

इसकी चमत्कारी शक्तियों को आने वाली नस्लों के लिए भी बचा कर रखें .

कर्म योगी

हाल ही में एक महिला मुक्केबाज इस लिए सुर्ख़ियों में थी की वे अपनी भावनाओ को पुरुस्कार लेते समय नहीं संभाल पायीं और रो पड़ी . उनका और बहुत से लोगों का यह मानना था कि निर्णय लेते समय उनके साथ पक्षपात किया गया.

खिलाडियों के साथ पक्षपात होने एक आम सी बात है जिसको झेलने की अक्सर उन्हें आदत सी पड़ जाती है. यदा कदा अनाधिकारिक तौर पर खिलाडियों का गुस्सा भी मीडिया में सुर्खी बटोरता रहता है पर एक आधिकारिक मंच पर इस तरह का व्यवहार बहुत काम देखने को मिलता है(जिसके लिए उन्होंने बाद में माफी मांग ली) .

इस सब से जो चीज आहत होती है वह है ‘खेल भावना’. एक खिलाड़ी को अब खेलने भर से ही किक नहीं मिलाती. उसे बहुत कुछ और चाहिए. खेलो में क्योंकि अब बेशुमार पैसा और नाम है इसलिए इनका सञ्चालन एक व्यवसाय की तरह किया जाने लगा है और खेल अब राजनीती से भी अछूते नहीं है.

युद्ध की तर्ज पर खेले जाने वाले खेलो के खिलाडियों के लिए कृष्ण का अर्जुन को दिया गीता ज्ञान शायद मार्गदर्शन कर सकता है. कर्म योगी कर्म करने में ही जीवन का आनंद लेता है. फल की इच्छा न रखते हुए जो भी परिणाम होता है उसे खुशी से स्वीकार कर लेता है.

गांधी को कोई नोबेल पुरुस्कार नहीं मिला , हालाँकि उन्हें तीन बार इसके लिए नामित किया गया. पर क्या कभी उनके मन में इस निर्णय से कुछ दुर्भावना हुई होगी? क्या उन्होंने अपना कर्म बदला होगा.

क्या आज हम उनसे कुछ सीख ले सकते है?  

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