मुन्नी का आतंक

हमारे घर में अगर कोई वी. आई. पी. है तो वो मेरी पत्नी नहीं है .
जी हाँ , आपने ठीक समझा.
उसकी भी एक बॉस है जो उसे भी अपनी उँगलियों पर नचाती है.

वो है हमारी काम वाली बाई मुन्नी .
इस बात का अनुमान तो मुझे पहले से था पर पिछले एक महीने से जब मेरे पैर में फ्रैक्चर हो गया और मुझे सारा समय घर पर ही बिताना पड़ा तो यह बात ठीक से समझ में आयी.

हर दिन सुबह होने पर श्रीमतीजी का मूड कैसा रहेगा इस बात की कुंजी मुन्नी के ही हाथ में थी.
अगर वह नहीं आई या लेट हो गयी तो श्रीमती जी के मूड को भगवान् भी ठीक नहीं कर सकता था.

अगर वो आ गयी तो घर में सब काम उसकी पसंद और इच्छा के मुताबिक ही होता था.
आते ही चाय और नाश्ते से उसका स्वागत होता था और इस दोरान वह चाय की चुस्कियों के साथ पूरे मोहल्ले का कच्चा-चिठठा श्रीमती जी के सामने खोलती थी और श्रीमतीजी अपने मनपसंद टी वी चेनल की तरह इस बात का भरपूर आनंद लेती है. किसने किसके बारे में क्या कहा और कौन क्या कर रहा है इसकी रनिंग कामेंट्री में दोनों स्त्रियों को जो आनंद मिलाता था शायद उसका अहसास किसी पुरुष के बूते की बात नहीं.
फिर  शुरू होता था झाड़ू-पोंछे का दौर. पहले झाड़ू लगाने के लिए हर जगह पंखे बंद कर दिए जाते थे और इस काम को करने से पहले कोई भी मुझसे पूछने की या बताने की जरूरत नहीं समझता था. जब से घर में इनवेर्टर लगाव लिया था मुझे अचानक ही पंखे के रूक जाने के कष्ट से निजात मिल गयी थी और इसकी आदत भी नहीं रही थी. पर इन दिनों पुराने दिनों की याद ताजा हो गयी जब बिजली कभी भी गुल हो जाया करती थी. मुझे कई दिन लगे आपने आप को इस प्रक्रिया में एडजस्ट करने से. अब जब सुबह शाम पंखा अचानक बंद हो जाता है तो मैं समझ जाता हूँ कि झाड़ू लगाने की रस्म शुरू होने वाली है.
झाड़ू के बाद पोंछे की बारी आती है तो पंखे के साथ इसका उल्टा होता है . इस समय पंखा फुल स्पीड पर दौडाया जाता है चाहे सर्दी हो या गर्मी . कुछ दिनों की ट्रेनिंग के बाद इन सर्दियों में भी पोंछे के बाद फुल स्पीड के पंखे के नीचे सामान्य बने रहने की आदत भी अब मैंने डाल ही ली है.

फिर बर्तन साफ़ करते समय श्रीमती जी उसकी असिस्टेंट की तरह काम करती नज़र आती है .

मुन्नी कहीं काम छोड़ कर चली न जाय इसके लिए श्रीमती द्वारा हर तरह का ख्याल रखा जाता था. उसे खुश रखने के लिए हर त्यौहार या आयोजन पर उसकी इच्छाओं के अनुरूप उपहार दिए जाते हैं .

कोई हमारे घर आयेगा या हमें कहीं बाहर जाना है तो हमारे घर में इसके टाइमिंग मुन्नी के आने और जाने के समय से ही तय होते है.

पिछले हफ्ते सुधा भी बीमार पड़ गयी तो घर पर जैसे मुसीबतों का पहाड़ सा टूट पड़ा. सुधा तो पहले भी कई बार बीमार हुयी थी पर तब उसकी समस्याए मेरी आँखों के सामने नहीं रहती थीं. न जाने कैसे मैनेज करती होगी बिचारी, मुझे आफिस में बैठे बैठे कहाँ पता लगाने वाला था.

घर में भी कितने सारे काम होते हैं ,इसका अंदाजा मुझे अब जाकर लगा था. बच्चों को स्कूल बस के समय से पहले तैयार करने और उनका नाश्ता बनाने में कितनी तैयारी करनी होती थी ये जान कर मैं हैरान था. फिर खाना बनाना और झाड़ू पोंछा भी कोई आसान काम नहीं था. ऊपर से सुबह उठने के साथ ही कचरे वाले, दूध वाले , प्रेस वाले ,सब्जी वाले और न जाने किस किस के आने का ताँता लगा रहता था और हर एक से बड़ी मगजमारी करनी पड़ती थी.
और अगर किसी दिन मुन्नी न आये तो बर्तन मांजने का मुश्किल काम भे खुद के सर था. उसमें थाली/ कटोरी तो एक दो दिन के लिए छोड़ भी सकते हो पर प्रेशर कुकर और कढ़ाही तो हर हालत में अगले खाने से पहले धुलना मांगता है. 

अब मुझे धीरे धीरे मुन्नी की उपयोगिता और सुधा का दर्द समझ में आने लगा था .

इधर सुधा को भी धीरे धीरे समझ में आने लगा कि मुन्नी से मदद तो बहुत मिलती है पर ऐसा नहीं कि उसके न होने पर घर का सारा काम ही रुक जाय. उसके बिना भी जीने के रास्ते निकले जा सकते है.

आज जब मुन्नी नही आयी तो सुधा ने दोनों मुस्कुराते हुए मेरी तरफ देखा और मैंने जैसे टेलीपैथी से उसका दिमाग पढ़ते हुए कहा, ‘ चलो आज पिक्चर देखने चलते हैं और डिनर भी बाहर करेंगे.

सुधा ने खुशी खुशी मेरा हाथ अपने हाथ में लिया और मुझे अपनी जवानी के दिन याद आ गए.

छुपाना भी नहीं आता

नोटबंदी में जो लोग येन-केन-प्रकारेण अपने काले धन को टुकड़ों- टुकड़ों मैं और कुछ लालची मददगारों के दम पर सफ़ेद कर लेंगे उन्हें पकड़ पाना सरकार के लिए भी मुश्किल ही होगा.

जिन लोगों ने विदेशी बेंकों या कंपनियों के माध्यम से पहले ही सुरक्षा कवच पहन लिया है उसे तोड़ना भी टेढ़ी खीर है. शायद बेनामी जमीन या मकान पर सरकार का शिकंजा कुछ कस जाय.

इसमें मारे जायेंगे भोले और अज्ञानी जो अपने पैसे को न छुपाना जानते हैं और ना ही सबूत तैयार कर अपना हक जाता सकते है . एक प्रसिद्द फिल्म का बहुचर्चित गाने के बोल इन पर ठीक बैठते है-

छुपाना भी नहीं आता
      जाताना भी नहीं आता
हमें तुमसे मोहब्बत है
       बताना भी नहीं आता

क्या आप ऐसे लोगों में से तो नहीं ??


अमीर-गरीब

हमारे देश/समाज में व्यक्तियों के बीच आर्थिक विषमताओं की बड़ी लम्बी खाई है. एक तरफ थोड़े से  धन-कुबेर तो दूसरी तरफ पैसे पैसे को तरसती बड़ी तादात में आम जनता. इन दोनों के बीच में झूलता है माध्यम वर्ग

यात्रा करते समय आदमी की अमीरी –गरीबी की पहचान आसानी से हो जाती है.

सही मायने में अमीर लोग हवाई जहाज़ का इंतज़ार नहीं करते बल्कि उनकी पसंद से सजाया गया जहाज उनका इन्तजार करता है. हां कुछ गरीब किस्म के अमीर अपनी हैसियत के हिसाब से और एम्प्लोयर के पैसे से बिसनिस क्लास या इकॉनमी क्लास में हवाई सफ़र करते हैं . रेल का सफ़र इन्हे कुछ ख़ास पसंद नहीं आता और इसका इस्तेमाल ये सिर्फ विदेशों में ही करते है. सड़क पर लाक्सरी कारों का बेडा हमेशा इनके इशारे का इंतज़ार करता रहता है.

माध्यम वर्ग के कुछ अमीर लोग अब इकोनोमी क्लास में हवाई सफ़र भी करने लगे हैं वर्ना ये लोग अपनी हैसियत के अनुसार रेल की सुविधा संपन्न एसी(1/2/3) क्लास में चलाना पसंद करते हैं. सड़क पर ये लोग तरह तरह की कार और कभी कभी वाल्वो बस या ऑटो रिक्शा का आनंद लेते देखे जा सकते है. 

गरीब लोग रेल के स्लीपर क्लास या अनारक्षित बोगी को आबाद करते हैं. सड़क पर ये कभी पैदल , कभी साईकिल पर और कभी (सरकारी) बस के अन्दर तो कभी उसके पीछे भागते मिलते है.

आइये देखते हैं नोट बन्दी से विभिन्न वर्ग के लोगों पर क्या असर होगा.

गरीब लगभग बीस हजार से कम मासिक आय वाले लोग ही इस देश की गरीब जनता है ( सरकारी आंकड़ों के हिसाब से 20 रुपये रोज़ या 600 महीने से कम कमाने वाला ही गरीब है). इन लोगों को 500 या 1000 का नोट वैसे ही कभी कभाद देखने को मिलता है इसलिए उन पर कोई ख़ास असर पड़ने वाला नहीं. ये लोग सरकारी मदद के आधार पर जिन्दगी जीते हैं और आयकर की सीमा में नहीं आते हैं. इनमें से अधिकतर को स्मार्ट फ़ोन और इन्टरनेट की सुविधा उपलब्ध नहीं है या उसका उपयोग करने में ये हिचकते है. बाज़ार में कैश की किल्लत और सरकारी दबाब के चलते इनमें से कुछ लोग बेंक और इलेक्ट्रोनिक माध्यमों का उपयोग करना शुरू कर देंगें. आने वाले समय में पानवाले/ गोलगप्पे वाले को paytm से खुले पैसे देना और काम वाली बाई / दूधवाले के बेंक खाते में पैसा जमा करना घर घर की कहानी बन जायेगी. इनमें से कुछ लोग लालच या मजबूरी के चलते अमीरों का काला धन सफ़ेद करने का माध्यम बनेगें. असंगठित क्षेत्र के व्यापार नियमों में बड़े बदलाव की संभावनाएं अब खुल गयी है.

माध्यम वर्ग बीस हज़ार और एक लाख के बीच महीने में कमाने वाले बीच के वर्ग पर इसकी मार सबसे अधिक होगी. इसमें भी बैंक द्वारा सैलरी लेने वाले लोग तो अप्रभावित रहेंगे पर मंझोले व्यापारी और ख़ास कर दो नंबर का हिसाब रखने वालों को खासी दिक्कत आयेगी. उन्हें मजबूरन बैंक / कार्ड या ऑन लाइन धंदा करना सीखना ही पड़ेगा. सरकार को इनके द्वारा अच्छे टेक्स की आमदनी होगी.


अमीर लाख रुपये से अधिक महीने में कमाने वालों में से अधिकतर लोगों पर विशेष असर नहीं पड़ेगा. कुछ तो इनमें से बैंक में तनख्वाह लेते है और टैक्स देते ही हैं. बाकी लोग भी चार्टेड एकाउंटेंट्स और बैंक कर्मचारियों या सरकारी कर्मचारियों के मदद से और गरीब लोगों के पहचान पत्रों के माध्यम से  अपना अधिकतर काला पैसा सफ़ेद कर ही लेंगें (या अबतक कर चुके होंगे). पिसेगे तो सिर्फ भोंदू ,आलसी और पैसे नशे में खोये हुए या उधेड़बुन में डूबे हुए वो लोग जिन्होंने बेहताशा नोट जमा कर रखे है.

हिसाब किताब

अधिकतर गरीब और मध्यम वर्गीय व्यक्ति यह सोचते है कि काला धन तो सिर्फ अमीरों के पास ही होगा.

वे शायद यह समझ नहीं पाते (या समझना नहीं चाहते) कि काला धन कोई अलग तरह का धन नहीं है. ये तो बस वह पैसा है जिस पर सरकार को टेक्स नहीं दिया गया है.

ये वही पैसा है जो हमने थोडा सा पैसा बचाने या असुविधा से बचने की खातिर में किसी होटल /हलवाई /टेंट वाले /किराना वाले या दवाई की दुकान पर दिया है और रसीद नहीं मांगी (और बेचने वाले ने यह रकम अपने दो नंबर के खाते में लिख कर टैक्स बचाया). या फिर जमीन खरीदते समय सरकार को बताई गयी रकम (रजिस्ट्री) से ज्यादा कैश में लिया जिससे थोडा सा टेक्स बच सके. इसी तरह सोना खरीदते समय बड़ी खरीदारी को छोटी छोटी कई खरीदारी में दिखाकर सरकार की नज़रों से बचकर टेक्स की चोरी कर डाली.

गोया थोड़ी थोड़ी कालिख हम सब के मुहं पर पुती है. इस काली कमाई को हमने अब तक खूब बनाया और उडाया है. अब नोट बंदी होने पर पहली बार तो एक सीमा तक हम इस काली कमाई को भी अपनी पिछले कई सालों की बचत बता कर बच निकालेंगे. पर सरकार की कैश लेनदेन पर कसती लगाम के चलते हमें अपनी आदतें भी बदलनी होंगीं. 


अब तो सबको अपनी आमदनी और खर्चे का पाई पाई का हिसाब किताब रखना होगा तभी जिन्दगी से कलोंच जायेगी और सफेदी का उजाला आएगा.

हमारी सरकार

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विमुद्रीकरण के साहसिक फैसले से भ्रष्टाचार और जमाखोरी पर कुछ दिनों के लिए लगाम तो लगेगी पर जल्दी ही चालाक लोग नयी नयी तरकीब इजाद कर फिर कला धन पैदा करना शुरू कर देंगे.

मोदी जी की असली चुनौती है लोगों का सरकार में विश्वास जगाना. कोई भी व्यक्ति जब जाने अनजाने में टेक्स चोरी की राह पर चल पड़ता है तो उसके मूल में यह भावना होती है कि अगर सरकार को टेक्स दे भी दिया तो वह उसका इस्तेमाल देश की भलाई से ज्यादा अपने अफसर/मंत्री और उनके चहेतों का पेट भरने के लिए करेगी.

इस फैसले से बैंकों के या इलेक्ट्रोनिक माध्यमों के द्वारा खरीद-फरोख्त का चलन बढेगा जिससे हर सौदे के निशान मिटाए नहीं जा सकेंगे और सरकार को टेक्स वसूलने में आसानी होगी. अगर सरकार मजबूती से डटी रही और इस फैसले को सही अंजाम तक पहुंचा दिया तो लोगों की धंदा करने की आदतें बदल जायेंगी. इसके बाद जहाँ एक तरफ अनेकों छोटे और मंझले व्यापारी टेक्स नेट में आएंगे वहीं करोड़ो आमजन जो सरकारी रिकार्ड में गरीबी रेखा से नीचे बता कर अनेकों सुविधों का लाभ उठा रहे हैं शायद अधिकतर से वह अधिकार छीन जाय और उन्हें कुछ टेक्स भी देना पड़ जाय.

क्या मोदी इस काम को अंजाम दे पाएंगे और लोगों को सरकार पर विशवास करना सिखा पाएंगे ?


शायद वक्त ही इसका जबाब दे पाए !!

महाशक्तियों का योग


8 दिसंबर 2016 की रात जहाँ भारत ने अचानक अपनी आर्थिक व्यवस्था से कला धन को निकालने के लिए 500 और 1000 रूपये के करेंसी नोटों को बदलने का साहसिक फैलासला लिया वही अमेरिका ने पहली बार एक व्यापारी डोनाल्ड ट्रंप का राष्ट्रपति के रूप में चुनाव किया. विश्व के दो सबसे बड़े लोकतंत्र में दोनों ही फैसले अप्रत्याशित थे.
आज विश्व में जहाँ भारत सबसे बड़ा बाजार है तो अमेरिका सबसे बड़ा निर्यातक. दोनों को ही एक दूसरे की जरूरत है और इसलिए दोनों ही एक दूसरे पर नज़र भी बनाये हुए हैं. अब जहाँ दोनों देशों के मुखिया पैनी आर्थिक बुद्धि वाले लोग होने जा रहे है , नयी आर्थिक नीतियों और व्यवस्थों का निर्माण संभव है. पर जरूरत इस बात की है कि दोनों मिलकर हथियरों के बाज़ार को बढाने से ज्यादा सोचें. मोदी जी के नारे ‘सबका साथ सबका विकास’ के मूलमंत्र में ही आने वाले सुनहरे कल का भेद छुपा है .चीन शायद पकिस्तान के  सामरिक महत्त्व का फायदा उठाकर इस व्यवस्था में सेंध लगाने का प्रयास करे  .

क्या दो महाशक्तियों के योग से विश्व कल्याण संभव है ?

बारगेन बार बार

मैं अक्सर अपनी पत्नी को बारगेन  करते हुए पाता हूँ. कभी सब्जीवाले से, कभी धोबी से, कभी दूध वाले से और कभी किसी और दुकानदार से.

मुझे लगता था की यह एक उबाऊ , थकाने वाली और गैर जरूरी हरकत है जिसमें मगजमारी से उतना हासिल नहीं होता जितना कि दिमाग खर्च हो जाता है.

पर अपनी पत्नी के नज़रिए से देखने पर इसका एक और ही रूप देखने को मिलता है. यह पूरी प्रक्रिया आपकी वाक्यपटुता और दूसरे व्यक्ति को अपनी बात मनवाने की कला का प्रदर्शन है जिसे आप बार बार रियाज़ करके उन्नत बनाते जाते है और एक कलाकार के रूप में अपना लोहा दूसरों से मनवाते है.
फिर इसमें अपनी गांठ से जाता ही क्या है. बस जरा सी जबान ही तो हिलानी है. हर तरह से फायदे का ही सौदा है. ये कहावत यहाँ बिलकुल ठीक बैठती है- हींग लगे न फिटकरी और रंग भी चोखा आता है .

इस खेल के हर खिलाड़ी के पास एक अजेय शक्ति होती है . उस बिचारे दूकानदार के लिए तो ग्राहक भगवान् है और अपने भगवान् को नाराज़ करने के बारे में तो वह सोच भी नहीं सकता . इसलिए आप जो भी मर्जी कह सकते हैं , मर्यादाओं को तोड़ भी डालें तो कोई बात नहीं , इस ज़ुबानी जंग में आपके लिए सब जायज़ है पर दुश्मन  के हाथ बंधे है

इस कलात्मक  व्यापार में आपको एक मोटी बचत की रकम हासिल होती है. और फिर बचत तो एक तरह की कमाई ही है.


इस कला में आपकी सफलता आपकी दूसरों को झांसा देने की क्षमता पर आधारित है. आप सामने वाले को यह विश्वास दिलाने में सफल होने चाहिए कि आपसे किया गया सौदा उसके लिए किसी न किसी तरह से फायदे का सौदा है चाहे इस बार वह आपको लागत से भी कम दाम में सामान दे रहा/रही है .

इंशाअल्लाह



कुछ मुस्लिम देशों / संस्कारों में जब आप किसी से आगे होने वाली किसी घटना का जिक्र करते हुए अगर किसी बात की पुष्टि करना चाहें तो हाँ या ना की बजाय जो शब्द आपको अक्सर सुनने को मिलेगा वह है इंशाल्लाह.
जैसे अगर आप किसी से पूंछे , ‘क्या हम कल १० बजे अमुक होटल में मिल रहे है?’ तो जबाब हैं या ना में न होकर होगा ‘इंशाल्लाह’.
यहाँ भाव यह है कि अगर अल्लाह की मर्जी रही तो ऐसा होगा (और  अगर उसकी मर्जी नहीं हुई तो फिर ऐसा नहीं होगा). हम तो इंसान है बस कोशिश ही कर सकते है पर जरूरी नहीं कि इनका फल हमारे मन के मुताबिक ही हों.

गीता में भी यही बात दूसरे ढंग से कही गयी है जहाँ भगवान् कृष्ण अर्जुन को युद्ध क्षेत्र में समझाते हुए कहते हैं - ‘सिर्फ कर्म करो फल की आशा न रखो. फल मुझ पर छोड़ दो’.

बाइबिल में भी इसी तरह की बात को कई जगह कहा गया है. उदाहरण के लिए में  Proberb 3:5-6  उद्धत करना चाहूँगा -

 Trust in the LORD with all your heart and lean not on your own understanding; 
in all your ways submit to him, and he will make your paths straight.

कितने मिलते जुलते हैं हमारे धर्मग्रन्थ !

पर अफ़सोस अपने मतलब से कुछ लोग उनकी गलत व्याख्या करके लोगों को भड़काया करते हैं और अपना उल्लू सीधा करते है.


ईश्वर/अल्लाह/यीशु उन्हें सद्बुद्धि दे. 
मेरी पुस्तक ‘योग मत करो , योगी बनो’ का लोकार्पण मंगलवार 21 जून 2016 को अंतर्राष्ट्रीययोग दिवस पर  माननीय गृह मंत्री , मध्य प्रदेश श्री बाबूलाल गौर के कर कमलों से हिन्दी भवन, भोपाल में  हुआ .

भोपाल के सभी समाचार पत्रों में इस समाचार को प्रमुखता से प्रकाशित किया. 

यह पुस्तक आम आदमी को योग के बारे में सरल भाषा में तर्कपूर्ण और वैज्ञानिक ढंग से एक ही स्थान पर व्यवहारिक जानकारी देने के इरादे से लिखी गयी है.

पुस्तक को ‘भाल्व पब्लिशिंग कंपनी प्राइवेट लिमिटेड (0755-2529169), बी-24, सिद्धार्थ लेक सिटी, आनंद नगर , भोपाल ने प्रकाशित किया है.

पुस्तक की प्रति, प्रकाशक / भोपाल के प्रमुख बुक स्टाल से या फिर amazon.in से प्राप्त की जा सकती है. अगले सप्ताह से यह पुस्तक ई-बुक के रूप में pothi.कॉम पर भी उपलब्ध होगी.

इच्छुक व्यक्ति मुझ से सीधे संपर्क भी कर सकते हैं या फिर 8719817866 पर sms या whatsapp के माध्यम से सूचित कर सकते है.









विश्वास

जब ह्रदय प्रेम और विशवास से भरा होता है तो जैसा है वैसा ही सुन्दर दिखाई देता है. इसीलिये अक्सर हमें अपने प्रेमी/प्रेमिका या माँ की कमी नज़र नहीं आती.

जब ह्रदय में घ्रणा हो तो कमियां नज़र आनी शुरू हो जाती हैं. ऐसे लोग जिसे आप बिलकुल ही पसंद  नहीं करते उसके बारे में सोच कर देखिये. शायद इस बात पर कुछ लोगों को अपना बॉस या प्रतिद्वंदी याद आ जायेगा .

हमें लगता है कि इन बातों का trigger बाहर है. पर क्या वास्तव में ऐसा है?
क्या हमारी भावनाओं को दूसरे लोग या परिस्थितियाँ निर्धारित करती हैं?

अपने आपको पीड़ित दिखा कर और उससे मिलनेवाली सहानुभूति पाने के लालच में शायद हम इसका जबाब हाँ में दे दें पर ईमानदारी से सोचने पर मानना पड़ेगा कि हमारे मन में क्या भाव या भावनाएं रहे इसका निर्धारण हम स्वयं ही करते हैं.

विश्वास की कमी से ही घ्रणा का जन्म होता है. इन दोनों में से एक समय में सिर्फ एक ही चीज हमारे मन में रह सकती है जैसे अँधेरे और रोशनी में से सिर्फ एक ही चीज एक समय में उपलब्ध हो सकती है.


जब चुनाव हमारे ही हाथ में है तो हम वह क्यों न चुने जो बेहतर है?

अर्ध-नारीश्वर

सेना  की  यूनिट  दो तरह की होती हैं.

एक तो वह जो भूगोलीय स्थान के आधार पर होती हैं जिन्हें  static यूनिट कहा जाता है. इसमें यूनिट के कार्य क्षेत्र का दायरा एक भूगोलीय सीमा के आधार पर होता है. यह विभाजन ठीक वैसे ही होता है जैसे पुलिस में हर थाना किसी पुलिस जिले से, हर रहवासी किसी न किसी प्रशासनिक जिले से, और हर लैंड लाइन फ़ोन उपभोक्ता किसी न किसी टेलीकोम जिले से जुड़ा होता है.

पर इसके अलावा एक और तरह की यूनिट भी होती हैं जो किसी विशेष भूगोलीय क्षेत्र से बंधी नहीं होती हैं. इन्हें mobile यूनिट कहा जाता है. हालांकि परोक्ष रूप से ये भी किसी न किसी static यूनिट से जुडी होती हैं पर यह जुड़ाव स्थायी नहीं होता और कभी भी बदला जा सकता है. इनका स्थान सेना के उच्चाधिकारी अपने विवेक से और सेना की जरूरतों के हिसाब से तय करते है. इस तरह केवल यूनिट ही नहीं बल्कि से के मुख्यालय (headquqrters) भी मोबाईल होते हैं. उदाहरण के लिए कारगिल युद्ध होने पर सेना की पंद्रहवीं कोर का मुख्यालय श्रीनगर से कारगिल स्थापित किया गया था.

इसे लैंड लाइन फ़ोन और मोबाईल फ़ोन की कार्यशैली के उदाहरण से भी समझा जा सकता है. लैंड लाइन फ़ोन में जहाँ उपभोक्ता एक स्थान विशेष पर ही कार्यरत हो सकता है वहीं मोबाईल उपभोक्ता किसी भी स्थान से सेवा का उपयोग कर सकता है क्योंकि वह अस्थायी तौर पर अपने पास की किसी भी फोन टावर से जुड़ सकता है और जहाँ भी वह जाना चाहता है उसे फोन की सुविधा मिल जाती है (बशर्ते वहाँ फोन का नेटवर्क हो). 

कुछ इसी तरह की कार्यशेली हमारे खुद के काम करने की भी है. हमारी भोतिक शक्तियां हमारे शरीर या तन से बंधी होती हैं और हमारी आध्यात्मिक शक्तियां (हालाँकि हमारे शरीर में ही निवास करती हैं ) हमारी आत्मा या मन के आधार पर कहीं से भी काम कर सकती हैं और शारीरिक सीमाओ से परे होती हैं.

योग की तकनीक हमें अपनी ही इन दो धाराओं में बाती शक्ति का समन्वय करके श्रेष्ठ उपयोग के लिए तैयार करती है. अक्सार अज्ञान वश हम अपनी इन दो शक्तियों को (कई स्थान पर इन दो शक्तियों को सांकेतिक रूप से नर और नारी शक्ति कहा जाता है) एक दूसरे के विरोध में उपयोग कर अपना ही नुक्सान करते हैं बजाय इसके कि इन दोनों के सहयोग से एक टीम के रूप में इनका उपयोग करें.


शायद इसी लिए आदि योगी शिव का एक नाम अर्ध-नारीश्वर भी है.

योग और कला

अगर हम किसी प्रकति के द्वारा स्व-निर्मित और साथ ही मानव निर्मित रचनाओं को ध्यान से देखें तो असली नकली का फर्क तुरंत समझ आ जाता है. मशीनों से बनाई चीजें काम की हो सकती हैं, कुछ हद तक सुन्दर भी पर शायद सम्पूर्णता के भाव का अभाव रहता है. समय के विरूद्ध जाकर बनाई गयी चीजें समय के साथ बनी चीजों से भला क्या मुकाबला कर सकती हैं.

पर मानव द्वारा ही निर्मित कुछ रचनायें ऐसी भी होती हैं जिन्हें देख कर अन्दर से प्रशंसा का भाव उदय होता है. ये किसी कलाकार द्वारा बनाई कलाकृती हो सकती हैं किसी भी रूप में –चित्र, शिल्प, गीत, फिल्म या पुस्तक आदि.

अक्सर देखा गया है कि इन्हें बनाने वाले कलाकार को उस समय सराहना या प्रोत्साहन बड़ी मुश्किल से मिलता है जब व उन रचनाओं के सर्जन में व्यस्त होते है. अक्सर उनके काम को अनुपयोगी और उनके व्यवहार को सनकीपन  कह कर मजाक उड़ाया जाता है फिर चाहे वह पाब्लो पिकासो हों या लिओनिओ अर्डियोडीविन्ची .

अपनी आलोचनाओं को नज़रंदाज़ करते हुए रचनाकार अक्सर अपनी रचनाओं के सृजन के आनंद में ही डूबा रहता है. उसए लिए उसका काम एक पूजा एक आराधना होती है. संकीर्ण सामजिक मान्यताओं के बंधन में उसे बंधा नहीं जा सकता. न ही समय सीमाओं में उसकी आत्मा को कैद किया जा सकता है.


क्योंकि वह आनंदपूर्ण स्तिथि में रह कर अपना काम करता है इसलिए हर सच्चा कलाकार एक योगी हुआ क्योंकि योग का उद्देश्य ही जीवन में आनंद प्राप्त करना है.

सूरज या चंदा

मेरा जन्म नवम्बर माह में हुआ है. जन्म की तारीख को अगर अंगरेजी कलेंडर के हिसाब से निकाला जाय तो मेरी राशी धनु (Sagittarius) बनती है . मगर यदि हिन्दी पत्रे के हिसाब से इसी तारीख को देखा जाय तो मेरी राशी बनाती है वृषभ (Taurus).
ये दोनों राशियें दो अलग अलग तरह के व्यक्तित्व का बयान करती है.
मोटे तौर पर जब में अलग अलग इन राशी के लोगों के व्यक्तित्व वाले आदमियों के बारे में पढ़ता हूँ तो उसमें मुझे अपने व्यक्तित्व की झलक मिलती है. पर दोनों में अनेकों विरोधाभास भी हैं.
तो क्या अँगरेज़ और हिंदी ज्योतिषी मुझे अलग अलग तरह से परिभाषित करेंगे?
इनमें सच्चा कौन होगा?
मेरा असल व्यक्तित्व तो कोई भी एक ही होगा, दो नहीं.
जब इस तरह के सवाल मेरे मन में उठे तो मैं अपने एक काबिल मित्र के पास गया जो इस विषय के जानकार हैं. उन्होंने मेरी जिज्ञासा शांत करने के लिए जो मुझे बताया वह में आपसे साझा करता हूँ ताकि और किसी के मन में उठी इस तरह की जिज्ञासा भी शांत की जा सके.

दोनों ही तरह के ज्यातिष उन्ही बारह राशियों को आधार बना कर निष्कर्ष निकलते हैं पर जहाँ अँगरेज़ लोग सूर्य की स्तिथियों के आधार पर गणना करते हैं वहीं देसी लोगों की गणना का आधार चन्द्रमा होता है. इसलिए एक ही व्यक्ति की मूल राशी जो जन्म के समय व स्थान से निकाली जाती है वह अलग अलग हो सकती है.
सूर्य पर आधारित व्यवस्था का राशिफल व्यक्ति के भौतिक यो जैविक शरीर और व्यक्तित्व (जैसा वह है या होने की सम्भावना है ) के बारे में गणना और अनुमान लगता है वहीं चन्द्रमा पर आधारित गणना और अनुमान व्यक्ति के भाव शरीर या मन के व्यक्तित्व (जैसा वह होना चाहता है अपने मन में).
इसी तरह एक ही व्यक्ति में दो व्यक्तित्व छिपे होते हैं. उदाहरण के लिए शरीर से बलशाली होने के बाबजूद कोई व्यक्ति मन से बड़ा दुर्बल हो सकता है या फिर ऊपर से चंचल दिखने वाला व्यक्ति अन्दर से बेहद शांत और गंभीर हो सकता है.
क्या आप अपने व्यक्तित्व के दो रूपों से परिचित हैं?
अगर अब कभी किसी ज्योतिष से कोई सलाह मिलाती है तो एक बार पता जरूर कर लीजिये की उसकी गणना का आधार क्या है सूर्य या चाँद.

इस तरह ज्योतिषफल को समझने और उसकी जाँच करने में आसानी होगी.  

मोबाइल की घंटी



मेरे एक मित्र अपने मोबाइल के घंटी बार बार बजने से परेशान है. उनकी जानकारी का दायरा इतना बड़ा है कि उनसे बात करने वालों का ताँता लगा रहता है. हर कोई बिना बक्त की परवाह किये हुए उनसे अपनी समस्याए साझा करना चाहता है या सुझाव लेना/देना चाहता है. अक्सर लोगों को इस बात का बिलकुल भी अंदाजा नहीं होता कि उनकी बातचीत के बाद उन पर क्या बीतती होगी. 

वहीं मेरे एक दूसरे मित्र अपने मोबाईल के बिलकुल न बजने से परेशान रहते है. उन्हें लगता है कि लोग उन्हें याद ही नहीं करते , बस किसी जरूरी कम के लिए ही फ़ोन करते है.

ये मोबाइल भी अजीब चीज है ,बार बार बजे तो आफत ,न बजे तो भी आफत .

दरसल ये कसूर मोबाईल का न होकर इंसान की फिदरत का है. हम चाहते तो हैं कि लोग हमसे बात करें पर सिर्फ वो लोग ही वैसी बातें करें जो हमें अच्छी लगती है वो भी तब जब हम इस काम के लिए (बातें करने के लिए)उपलब्ध हों.

पर अफ़सोस दुनियां हमारे सोचने भर से नहीं चलती.

और जले पर नमक छिड़कने वाले होते हैं वो दुष्ट लोग जो अपनी कंपनी के उत्पाद के बारे में बताने के लिए या फिर उन्हें बेचने के लिए हमारे मोबाईल की घंटी बजा डालते हैं जैसे कोई भक्त मंदिर की घंटी बजा कर भगवान को प्रसन्न करने का जतन करता है. और इस काम के लिए कम्पनियाँ पैसा खर्च करके अपने काम के ग्राहकों के मोबाइल नम्बर जुटाती हैं.

इस सब के बाबजूद सबको अपने मोबाईल पर उस घंटी का इंतज़ार रहता है जो हमारे दिल के तारों को झनझना दे.


आपको नहीं है क्या??

इन्टरनेट और संयम

फेसबुक की फ्री-बेसिक मुहिम को नकारने का फैसला बड़ा हिम्मत भरा था  जिसके लिए भारतीय जनता और TRAI धन्यवाद के पात्र हैं.

पैसे के दम पर बड़ी ताकतें ग्राहक के अधिकारों का हनन और निजता पर अतिक्रमण अक्सर करती रही हैं.

इन्टरनेट एक सार्वजनिक संस्था है जिसका उपयाग सबके कल्याण के लिए होना चाहिये. इसकी ताकत इसका सार्वजानिक होना और इसका खुलापन इसलिए हर किसी की इस तक पहुँच है.

पर यही खुलापन इसकी कमजोरी भी बन जाता है अत: आये दिन हम साइबर क्राइम और ठगी के किस्से सुनते रहते है.

अब इसमे और जागरूकता की आवशयकता है. समय की मांग है कि नागरिक इसकी क्षमताओं का अधिक से अधिक दोहन करें. पर साथ ही सावधानी भी बरते. हमें अब सूचनाओ के समुद्र से मंथन कर के अपने काम की चीज निकाल लेने की महारथ भी हासिल करनी होगी.

भारत एक बड़ा बहुत बड़ा बाजार है और हर बड़ी वैश्विक ताकत की इस पर नज़र है. जैसे जैसे टेली मार्केटिंग , टीवी और प्रिंट मीडिया की आक्रामक मार्केटिंग के बाबजूद भी हमारे यहाँ के आमजन अपना संयम नहीं खोते ओर उनकी जेब से पैसे निकालने में अच्छे अच्छों को पसीना आ जाता है वैसे ही इन्टरनेट की मार्केटिंग के मकड़ जाल से भी हमें निकलना सीखना होगा.

इन्टरनेट पर खुलेपन का फायदा उठाकर कोई भी बड़ी आसानी से झूठ को बड़ी मासूमियत से ऐसे पेश कर सकता है की वह सच लगे. हम तब इस जाल में फंसते हैं जब भावनाओ और आवेश में आकर हर किसी चीज को आगे बढ़ा देते हैं बस एक बटन ही तो दबाना होता है. हमारे संयम का इम्तहान तब होता है जब हम बताई गयी बात की सच्चाई की पड़ताल करते हैं या इमानदारी से उसका विश्लेषण करते हैं.

अनजाने में अफवाहें फ़ैलाने और लोगों की भावनाओं को आहत करने से बचें. ये इतना मुश्किल भी नहीं है जितना लगता है. बस क्रोध आने पर दस तक की गिनती करने जैसा है.


योग विद्या के सिधान्तों के पालन से ये काम बड़ी आसानी के साथ किया जा सकता है.

असहिष्णुता और लोकतंत्र

जब भी मुझे ‘भीड़भाड़ वाले और घिचपिच गली मोहल्लों से गुजरते घुमावदार रास्ते’ और ‘खुले हुए , चौड़ी सड़क वाले सीधे रास्ते’ में से किसी एक का चुनाव करना हो  तो में दूसरा विकल्प ही चुनूंगा चाहे इसके लिए मुझे ज्यादा दूरी ही क्यूँ न चलाना पड़े. मुझे लगता है कि इस तरह से मैं उच्च गीयर पर गाडी चला  सकूँगा और  मार्ग में कम अवरोधों के कारण मुझे कम ब्रेक लगाने पड़ेंगे. इस तरह मैं न सिर्फ समय की बल्कि पेट्रोल की भी बचत कर सकूंगा.

पर यह एक व्यक्तिगत चुनाव है. मेरी पत्नी का दिमाग ठीक इससे उलट चलता है. उसे अगर पता चले कि भीड़ भाड़ वाला रास्ता एक मीटर भी कम है तो वह उसे शौर्ट-कट मानते हुए उसे ही चुनेगी. बाकी सब बारीकियों को वह नजरअंदाज कर देगी (उसके पास ऑटोमोबाइल इन्जीरिंग की समझ और डिग्री नहीं है).
पर उस पर तुर्रा ये कि वह भी यही सोचती है कि वह शौर्ट-कट लेकर समय और पेट्रोल की बचत कर रही है.

देखा जाय तो अपने अपने द्रष्टिकोण से हम दोनों ही सही हैं. व्यवहारिक दुनिया में यह कभी ठीक ठीक कहा नहीं जा सकता कि कौन सो द्रष्टिकोण हमेशा मानने से वास्तव में बचत होगी और कितनी.
हालाँकि दोनों द्रष्टिकोण एक दूसरे के ठीक उलट जान पड़ते हैं पर किसी एक को सही साबित करने के लिए दूसरे को गलत ठहराना जरूरी नहीं है.

हम दोनों एक दूअसरे से लड़ने की बजाय आपसी तालमेल और समझदारी से कभी एक और कभी दूसरा विकल्प चुन सकते है और हंसी खुशी सफ़र तय कर सकते है.

ये सिर्फ (मेरे) परिवार की कहानी नहीं है. ध्यान से देखें तो हर समाज में हार काल में इस तरह की दो विरोधी सी लगाने वाली सोच रखनेवाले लोग मिल जाते है.

एक तो वो जिनको अक्सर रुढ़िवादी कहा जाता है. ये लोग किसी बात को लेकर अधिक सोचविचार और गणना करने के बजाय भूतकाल में सफल रही पुरानी विचारधारा के पक्षधर होते हैं और कुछ भी नया सोचने से कतराते है.

दूसरी तरफ उदारवादी सोच रखनेवाले लोगों की भी कमी नहीं है जो हर बार नए नए प्रयोग करते नहीं थकते. जोखिम उठाने में इन्हें जैसे मज़ा आता है.

आजकल देश में असहिष्णुता के नाम पर जो वातावरण बना हुआ है वह इसी तरह की अलग अलग सोच रखने वाली विचारधाराओं का टकराव है.

यहाँ प्रश्न ये नहीं होना चाहिए कि , ‘देखें कौन जीतता है?’ बल्कि हमारी कोशिश यह रहनी चाहिए कि बिना एक दूसरे को नीचा दिखाए या गलत साबित करे दोनों विचारधारा के लोग एक दूसरे के साथ सम्मान के साथ जी सकें.

हमारा दायाँ पैर अगर ये कहने लगे कि शरीर का सारा वजन वह ही उठाता है और बाएँ पैर का इसमें कई योगदान नही है ,तो क्या हम उसकी बात सुनकर अपने बाएँ पैर को ही काट डालेंगे ?

या फिर हमारे फेफड़े ये कहने लग जायें कि साँस बाहर छोड़ना एक हानिकारक काम है जिससे कोई फाय दा नहीं होता इसलिए इसे बाँट कर देना चाहिए , तो क्या हम सिर्फ सांस अन्दर खीचना जारी रख कर फेंफडों को फाड़ डालेंगे?

दो विरोधी विचारधाराएं लोकतंत्र की बुनयादी जरूरत है.
क्या हम इस बुनयादी जरूरत को पूरा करने में सफल होंगे ?

तकनीक और नयी उमर का योग

The spirit of Yog(a)
योग का अर्थ है जोड़ना.

एक योगी दो विरोधी से लगाने वाले एक ही सिक्के के अलग अलग पहलुओं का एक साथ समझ कर पूर्णता का अहसास करता है .अगर हम नयी तकनीक पर आधारित बिज़नस मॉडल को ध्यान से देखे तो वह इस दिशा में ही जा रहा है.

उदाहरण के लिए OYO के बिज़नस मॉडल को लें. पहले भी एक तरफ ग्राहक तलाशते होटल थे और दूसरी तरफ उन में ठहरने की चाह रखने वाले लोग. पर सही मायनों में दोनों का मिलन मुश्किल से होता था. ग्राहक हमेशा आशंकित रहता था कि उसे उसकी जरूरत के मुताबिक सुविधायें मिलेंगी या नहीं और होटल वाले इस डर में जीते थे कि उन्हें कम से कम इतने ग्राहक तो मिल जायं कि उनका अपना खर्चा ही निकल जाय.

एक छोटी सी उद्यमियों की टीम ने बस एक मोबाइल एप और कॉल सेंटर बनाया और दोनों तरफ की समस्याएं अपने आप ही दूर होती चली गयी. जरूर इसके पीछे अथक मेहनत लगी होगी और इस टीम ने सूझबूझ तथा धेर्य का साथ नहीं छोड़ा खासकर पूरे काम में पारदर्शिता लाने और मानक (standards) बनाने में.

अब ग्राहक इस विश्वास के साथ होटल बुक कर सकते हैं कि उन्हें चुनी गयी सुविधा वाजिब दामों पर मिलेगी और खाली पड़े होटल भी यकायक भरने लगे (जिनकी सुविधाओं में कमी थी उन्होंने भी अपना जीर्ण उद्धार कर डाला).

यही बात लागू होती है ओला , उबर जैसी टेक्सी सेवाओं पर. बस एक स्मार्ट फ़ोन होने से किसी भी वक्त  बड़े आराम से और ऑटो रिक्शा से भी कम दाम पर कहीं भी टेक्सी मिल सकती है.

online खरीदारी की स्नेपडील, फ्लिप्कार्ट हों या चश्मों के लिए लेंस्कार्ट का बिजनेस ,सब की यही कहानी है.

टेक्नोलॉजी से लैस नयी पीढ़ी की इस नयी फसल ने शायद योग विद्या की पुरानी किताबें नहीं पढी पर उसका इस्तेमाल खूब किया है.


विकास के चरम सुख को भोग कर आज हर कोई योगी बनता जा रहा है.  

My new eBook