कुछ मुस्लिम देशों / संस्कारों में जब आप किसी से आगे होने वाली किसी घटना का
जिक्र करते हुए अगर किसी बात की पुष्टि करना चाहें तो हाँ या ना की बजाय जो शब्द
आपको अक्सर सुनने को मिलेगा वह है इंशाल्लाह.
जैसे अगर आप किसी से पूंछे , ‘क्या हम कल १० बजे अमुक होटल में मिल रहे है?’
तो जबाब हैं या ना में न होकर होगा ‘इंशाल्लाह’.
यहाँ भाव यह है कि अगर अल्लाह की मर्जी रही तो ऐसा होगा (और अगर उसकी मर्जी नहीं हुई तो फिर ऐसा नहीं होगा).
हम तो इंसान है बस कोशिश ही कर सकते है पर जरूरी नहीं कि इनका फल हमारे मन के
मुताबिक ही हों.
गीता में भी यही बात दूसरे ढंग से कही गयी है जहाँ भगवान् कृष्ण अर्जुन को
युद्ध क्षेत्र में समझाते हुए कहते हैं - ‘सिर्फ कर्म करो फल की आशा न रखो. फल मुझ
पर छोड़ दो’.
बाइबिल में भी इसी तरह की बात को कई जगह कहा गया है. उदाहरण के लिए में Proberb
3:5-6 उद्धत करना चाहूँगा -
Trust in the LORD with all your heart and lean
not on your own understanding;
in all your ways submit to him, and he will
make your paths straight.
कितने मिलते जुलते हैं हमारे धर्मग्रन्थ !
पर अफ़सोस अपने मतलब से कुछ लोग उनकी गलत व्याख्या करके लोगों को भड़काया करते
हैं और अपना उल्लू सीधा करते है.
ईश्वर/अल्लाह/यीशु उन्हें सद्बुद्धि दे.
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