फिल्म और योगी


योग को फिल्मो के माध्यम से भी समझा जा सकता है. कई फिल्में एक योगी का द्रष्टिकोण समझाने का अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करती है.

जैसे पिछले दिन रिलीज़ हुई सलमान खान की फिल्म बजरंगी भाई जान को ही लें. इसमें बताया है कि देश की सीमाओं से परे जाकर भी सोचा जा सकता है. एक योगी दो विरोधी से दिखने वाली शक्तियों को पूर्णता की द्रष्टि से देखते हुए सम्द्रष्टि का भाव रखता है. दूसरों /समाज द्वारा बनाई गयी सीमाओं का वह आदर तो करता है पर उनके मकडजाल में फंस कर इंसानियत को नहीं भूलता.

 हालांकि इसमें निर्देशक ने अपना द्रष्टिकोण एक गूंगी बहरी बच्ची के माध्यम से रखा है जो निरीह जनता का प्रतिनिधित्व करती है, परंतु एक योगी भी इसी तरह की सोच रखता है. अंतर इतना है कि योगी मूक बघिर नहीं होता वह तो स्वतंत्र होता है अपने जीवन में हर तरह के चुनाव करने का और  हर परिस्थिति में सहज  चुनाव कर आनंद से रहने का.

देश की सीमाएं हमें बांधती है और इनका एक दायरा है, हालांकि इनसे बहुत से लाभ भी है. देश के कई सरकारी अफसर हुक्मारान  और देशवासी अपनी सीमाओं में बंधे होते है जिनका शरारती तत्व हमेशा फायदा उठाते है इन्हें भड़का कर अपना उल्लू सीधा करते हैं.

क्या वह दिन आएगा जब देश की सीमाएं हमें अतिवादी  ना बना कर जीवन में सहयोग करेंगी? विज्ञान और टेक्नोलॉजी तथा नई उम्र की नई सोच और आजके बच्चे इनमें शायद इस संभावना को सत्य करने की सामर्थ्य है.

 इसी तरह आमिर खान द्वारा अभिनीत फिल्म पीके इसी तरह धार्मिक विचारों से ऊपर उठकर सोचने को मजबूर कर देती है. इसमे निर्देशक ने एक एलियन (दूसरे गृह का वासी) के माध्यम से अपने विचारों को प्रकट किया है और हार धर्म में फ़ैली कुरूतियों पर आघात किया है .
एक योगी की सोच भी इससे मिलाती जुलती होती है. वह हर धर्म का आदर तो करता है पर धर्म के नाम पर दकियानूसी और बेतुकी परम्पराओं में नहीं उलझता . उसके लिए सबसे बड़ा धर्म मानवता होता है जिसे वह हर हाल में निभाता है.


धन्य है हिन्दुस्तानी फिल्मे जो हमें ग्लैमर के तड़के के साथ बड़ी चतुराई से एक योगी का द्रष्टिकोण भी परोस देती हैं . अब हमें इसमे से क्या ग्रहण करना है यह तो हमारी इच्छा पर ही निर्भर करेगा.

तोते में जान

बचपन में एक कहानी सुनी थी कि एक राजकुमार राक्षस के चंगुल से एक राजकुमारी को बचाने जाता है पर हर बार मात खा जाता है. अंत में राजकुमारी उसे बताती है कि उस राक्षस की जान एक तोते में है और अगर उस तोते को मार दिया जाय तो राक्षस अपने आप मर जायेगा और फिर राजकुमार वैसा ही करके राजकुमारी को आज़ाद करता है.

कल की काल्पनिक कथा आज के जमाने मे सच होती सी दिखाई देती है, बस अंतर इतना है कि राक्षस और राजकुमार का रोल अदल बदल हो गया है.

आज हम सब की जान एक छोटे से स्मार्ट फोन में अटकी रहती है. कलेंडर, केलकुलेटर, रेडियो, डायरी, फ़ाइल् आदि चीजों को तो ये यंत्र कबका रिटायर कर चुका था और अब तो बैंक , सिनेमा ,टीवी ,आफिस और खरीदारी और मेल-मिलाप के आधे से ज्यादा काम इसके माध्यम से होने लगे हैं. इसके बिना हम असहाय और अस्तित्वहीन लगाने लगते हैं.

गोया ये गेजेट नए ज़माने का तोता हो गया हमारे पास. पर हम सब तो हीरो हैं. विलेन या राक्षस तो वो दुष्ट आत्मा और बाजारी ताकतें हैं जो हमारे इस तोते में छुपी हमारी जान को नुक्सान पहुचाने की फिराक में रहते हैं. ख़ास कर कुछ सनकी जिन्हें हेकर्स के नाम से जाना जाता है या फिर किसी बड़ी सी कंपनी के वो चालाक लोग जो हमारी निजी जानकारी को अपनी कंपनी के फायदे के लिए इस्तेमाल करते है.   

क्या हम अपनी जान इन राक्षसों से बचा पाते है?

या फिर हमारे पास से राजकुमारी (मतलब ‘पैसा’) आज़ाद होकर राक्षसों के कब्जे में चली जाती है? 

प्रत्याहार

हमारी पाँच इंद्री (सुनने, देखने, सूंघने, स्पर्श करने, स्वाद लेने की क्षमाताएं) लगातार हमारे दिमाग पर सूचनाओं का बोझ डालती रहती हैं जिससे हमें पता लगता है की हमारे आस पास के वातावरण में क्या हो रहा है. इन सूचनाओं के आधार पर ही हमारा दिमाग हमारे द्वारा  लिए जाने वाले अगले कदम (या हमारा कर्म) निर्धारित करता है.

अक्सर अपनी आदतों से मजबूर , दुनियादारी निभाने और बाजारी ताकतों के जाल में फंस कर एक आम आदमी हमेशा  एक मकडजाल में उलझा सा रहता है और सूचनाओं का तेज प्रवाह लगातार बिना रुके चलता रहता है. इस तरह दिमाग में चल रहे इस प्रवाह से उपजे कर्म  अक्सर हमें थका डालते हैं.

अगर हम इन इन्द्रियों का प्रयोग कुछ देर के लिए बंद कर दें तो एक तो हमारे शरीर के अंगों को आराम मिलेगा और दिमाग में पैदा हुए तरह तरह के भ्रमों से छुटकारा भी मिलेगा. योग में इस साधना को प्रत्याहार कहते है जो पतंजलि द्वारा बताये गए अष्टांग योग का एक अंग है.

प्रत्याहार का एक उन्नत रूप भी है. इसमें न सिर्फ इंदियों का प्रयोग बाहरी दुनियाँ को देखना हम बंद कर देते हैं बल्कि इन इन्द्रियों को बाहर की बजाय अन्दर की तरफ मोड़ देते है. इस तरह से हम अपने से बाहर की दुनियां को जानने की कोशिश नहीं नहीं करते जैसा आम तौर से लोग करते हैं बल्कि उन्हीं इंदियों की सहायता से यह जानने की कोशिश करते हैं कि  हमारे शरीर के भीतर क्या कुछ चल रहा है. इस तरह से हमें जो जानकारी मिलती है वह अपने बारे में अधिक सटीक और वास्तविक होती है बजाय उस जानकारी के जो हम आम तौर पर और लोगों के माध्यम से जुटाते हैं .

प्रत्याहार हमें अष्टांग योग के तीन मुख्य अंग ध्यान, धारणा और समाधि के लिए तैयार भी करता है. इसके द्वारा साधक का दिमाग शांत और निर्मल होता है. प्रत्याहार का अनुभव करने के लिए शव आसन एक सरल विधि है जो किसी भी व्यक्ति के द्वारा आसानी से की जा सकती है.

प्रत्याहार योग साधना का महाद्वार है. इससे शरीर की सहायता से मन को साधना के लिए तैयार किया जाता है.

ये कैसी भीड़ ?

उस दिन से पहले मैं भगवान् से हमेशा मन्नत माँगता था कि मेरे खोमचे पर भी खूब भीड़ हो.
वैसी ही भीड़ जैसी नंदू और राधे के खोमचों पर अक्सर हुआ करती है. इसी भीड़ के दम पर वो लोग अक्सर मेरा  मजाक भी उड़ाया करते थे.

पर शायद उस जगह का ही दोष था ये. इक्का दुक्का ग्राहक तो यहाँ अक्सर आ जाते थे पर खूब सारे नहीं जिसका मुझे इंतज़ार रहता था. सिवाय उस दिन के जिसे मैं कभी नहीं भूलूंगा.
उस दिन मैं अपनी छोटी सी बच्ची गीता को पहली बार अपने  काम की जगह लाया था क्योंकि वह इसके लिए कई बार जिद कर चुकी थी. पर ये शायद मेरी गलती थी.

शुरू में तो वहां और दिनों की तरह ही माहौल था और गीता से बतियाते हुए कब शाम गो गयी पता ही नहीं चला . शाम होते होते धीरे धीरे न जाने कहाँ से अचानक भीड़ इकठ्ठी होना शुरू हो गयी समझ में नहीं आया .शायद कोई बड़ी सभा अचानक ख़त्म हुयी थी पास में.

क्या खूब  भीड़ थी. लगता था शायद वो दिन आ गया था जिसका मुझे इंतज़ार था. गीता भी बड़ी खुश थी इतनी चहल पहल देख कर. मैं पूरा जोर लगा कर अपना काम कर रहा था.

इसी बीच एक ग्राहक की बेजा मांग पर में खीज गया और उसे स्पष्ट शब्दों में इनकार कर दिया.
बात तो छोटी सी थी पर इस छोटी सी बात का बतंगड़ बन गया जिसमें मेरी कोई कोई गलती भी नहीं थी. लगता था वो ग्राहक कोई नेता था और वहां मोजूद लोग उसको बहुत मानते थे.

उसके बाद जो कुछ हुआ बड़ी तेजी से हुआ. कुछ लोग गाली गलोच पर उतर आये और पीछे से एक रेले ने आकर उसका मेरा ही गिरा डाला. फिर क्या था जिसके हाथ जो लगा लेकर चलता बना. मेरे को तो समझ में ही नहीं आया कि अचानक ये क्या हो गया. हादसे के वक्त मेरा सारा ध्यान तो मासूम गीता को संभालने में था.

ये बात अब पुरानी हो गयी है पर अब भी भीड़ देख कर याद आती है और चुभती है. अब भी मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि मेरे खोमचे पर खूब सारे लोग आयें पर साथ में ये भी जोड़ देता हूँ की सभ्य और भले लोग ही आयें.
जब भी में किसी भीड़ का हिस्सा बनने लगता हूँ अब बड़ा डर सा लगता है.पहले जहाँ भीड़ में अपने आप को सुरक्षित और ताकतवर महसूस करता था अब लगता है मुझसे कोई गलती न हो जाय जिसका नुक्सान किसी गरीब को भरना पड़ सकता है.


नकली नोट

‘आखिर उससे इतनी बड़ी गलती हो कैसे गयी ? वो तो अबतक अपने को काफी चालाक समझता था.’
उस हजार रूपये के नकली नोट को देखते हुए झल्लाते हुए उसने सोचा.
उसे तो ठीक से याद नहीं आ पा रहा था के कौन मनहूस उसके गले मैं ये फंदा दाल गया था. ‘कमीना अब मजा ले रहा होगा और किसी और को दूसरा नकली नोट चिपकाने के फ़िराक में होगा.’ उसने फिर सोचा. ‘पर उस दिन कचार या पांच जगह से हजार हजार के नोट आये थे उसके पास और सब के सब अजनबी लोगों के पास से. उस दिन काम को दबाब भी ज्यादा था और उसकी तबियत भी ठीक नहीं थी’ , उसने अपने आप को दिलासा देने की कोशिश की.
‘ चलो जो हुआ सो हुआ , अब आगे कैसे इस मुसीबत से पिंड छुडाएं ‘, उसका दिमाग लगातार सोचता जो रहा था. ‘पिछले  तीन दिनों में की गयी सारी कोशिशें बेकार गयी थी अब तक. पेट्रोल पम्प पर, किराने की दूकान पर, कैंटीन में,टोल बूथ पर हस्र जगह उसने कोशिश कर के देख ली पर हर जगह वो नकली नोट पकड़ में आ जाता था. कम रोशनी वाली जगहों पर भी उसने जाकर देखा पर हजार रुपये लेने से पहले हर कोई परखता जरूर था और उसका नकलीपन पकड़ ही लेता था.
परेशान होकर वो बंच पर अपनी उधेड़बुन में था तभी सामने की दूकान से आती आवाजों ने उसका ध्यान अपनी तरफ खींचा. दुकानदार किसी ग्राहक से झगड़ रहा था की उसने पिछली बार आने पर एक नकली नोट दिया था और ग्राहक यह बात न मान कर मरने मारने पर उतारू था. दोनों तरफ से गाली गलोच हो रहा था.
ये साब देख कर अचानक उसके दिमाग में एक ख्याल कोंधा .जो परेशानी इस नकली नोट की वजह से वो भुगत रहा था वही परेशानी उन सबने भोगी होगी जिनसे होकर यह उसके पास आया. अगर वह ये नोट किसी तरह से चला भी देता है तो और भी न जाने कितने लोग आगे इसी तरह की परेशानी भोगेंगे.
क्यों दे वो इतने लोगों को परेशानी और क्यू ले वो इतनी बददुआ?  

उसने उस नकली नोट को उठाया और फाड़ कर कूड़ेदान में डाल दिया फिर गुनगुनाता हुआ घर चल दिया. लगता था एक भारी बोझ सा उसके दिमाग से उतर गया था. 

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