बदलती तस्वीर



फिल्म ‘पीपली लाइव’ में इलेक्ट्रोनिक मीडिया के चेनल्स की “आपसी होड़ ,कवरेज की पहल के लिए अंधी दौड़ और बेतुके व फ़िज़ूल की बातों को लेकर असल मुद्दे से दूर भटक जाना” आदि बातों के बारे में बताया था जो कि एक सटीक और दिलचस्प विवरण था.

पर इस पक्ष का एक पहलू और भी है. इसी इलेक्ट्रोनिक मीडिया की वजह से कल तक जो मुद्दे ( जैसे दहेज प्रथा,यौन शोषण ,समलैंगिकता आदि ) अखबारों और मैगजीनों के कालम में दम तोड़ा करते थे या फिर फिल्मों में परोक्ष रूप से चरित्रों के माध्यम से दिखाए जाते थे और लोग सुन –देख कर उनका मजा भर ले लेते थे ,अब उनपर वास्तविक इंसानों/ परिस्थितियों के बीच खुल कर चर्चा कर सकते है.

मोबाईल ,टीवी, लेपटॉप और इस तरह की डिवाइस जहाँ एक तरफ हमें अपना गुलाम बना रही हैं वहीं विचार और भावनाओं के तलपर हमें अनगिनत लोगों से जोडने की ताकत भी रखती है. बस एक फोन उठाया और अपनी मर्जी के चेनल /शो से जुड गए और कह डाली अपने मन की बात सीधे सीधे ,कोई झंझट नहीं. सुनने वाला अगर हजारों मील दूर भी हो तो कोई टेंशन नहीं. और फिर आप अपनी समस्या बता कर विशेषज्ञों की राय भी जान सकते है कुछ पल और कुछ रुपये खर्च कर. अगर कुछ करने का हौसला बुलंद है तो पहुँच जाइये अपने मनपसंद शो के ऑडीशन पर और लग जाइये लाइन में – इस बात से फर्क नहीं पडता कि आप खोली से निकल कर आये हैं या हवेली से.

पर अभिव्यक्ति की इस स्वतंत्रता को क्या हम कायम भी रख पाएंगे ? या फिर कुछ प्रभावशाली लोग इस पर कब्ज़ा कर इसे सिर्फ एक धन्धा बना कर छोड़ेंगे ? अंग्रेजों के जाने के बाद काली चमड़ी वाले अफसर, नेता और पूंजीपति जिस तरह से व्यवहार कर रहे हैं क्या यहाँ भी उसकी पुनरावृत्ति नहीं होगी ?

शायद वक्त ही दे सके इस का जबाब .

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