तमाशबीन


जब गाड़ी ट्रेफिक लाइट पर रेंग रही थी,आशा ने ताज्जुब से कहा, आज दोपहर में भी इतना ट्रेफिक है इस रोड पर. सारा शहर ही जब देखो तब कहीं भागता रहता है लता नें उसकी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा. सुदीप उन दोनों के बेबजह बोलने पर झल्लाया हुआ था पर उसने चुप रहना ही उचित समझा और पाना ध्यान कर चलने पर ही रखा. हाँ ये बात तो उसे भी अटपटी लगी क्योंकि कई सालों से वह उस सड़क का इस्तेमाल कर रहा था और इतनी भीड़ वहां उसने कभी नहीं देखी थी. तभी उसने देखा की ज्यादातर लोग एक ही तरफ देख रहे थे. उस तरफ देखने पर उसे एक मोटर साईकिल और एक लड़का गिरा हुआ दिखाई दिया जो छटपटा रहा था. लगता था उसका पैर फ्रेक्चर हो गया था. पैर के पास काफी खून फैला हुआ दिखाई दे रहा था. उसके पास पैदल लोगों का एक बड़ा हुजूम जमा हो गया था और बाइक और कार वाले वहां से गुजरते हुए या तो रुक जाते थे या फिर बहुत धीमे चलने लगते थे. इसी वजह से वहां भीड़ और ट्रेफिक जाम की स्तिथि बन गयी थी.
सुदीप ने गाडी किनारे की तरफ करके रुकने का मन बनाया तो उसे भांपते हुए आशा ने हमेशा की तरह घबरा कर कहा ,’अरे क्यूँ किसी चक्कर में पड़ते हो ,जल्दी से निकल चलो’. लता ने भी अपनी बहन का साथ देते हुए कहा, ‘हमें क्या लेना देना इस सब बातों से ,मुन्ने के स्कूल के लिए देर हो रही है,रास्ता देख कर निकल चलिए’.
‘इतने सारे लोग यहाँ जमा हैं तो कोई ना कोई तो मदद के लिए आगे आ ही जायेगा’,ये सोच कर और लता और आशा की बातों में आकर उसने गाडी आगे की तरफ बढ़ा ली. जब वह दुर्घटना स्थल के पास से जा रहा था तो उसने देखा कि वो एक गोल मटोल सा सुन्दर लड़का था जो दर्द से चीख रहा था और लोगों से उसे अस्पताल ले जाने की गुहार लगा रहा था. पर उसके आस पास खड़े सब लोग उसकी बात को शायद सुन कर भी अनसुना कर रहे थे. कुछ भले मानस शायद पुलिस के आने का इंतजार कर रहे थे पर पुलिस को खबर करने की हिम्मत भी अभी तक किसी ने नहीं जुटाई थी.
गाडी अभी कुछ दे ही आगे रेंगी थी की मुन्ना ने बड़ी मासूमियत से पूंछा, ‘पापा कोई उन अंकल को अस्पताल क्यों नहीं ले जा रहा ? क्या अब वो मर जायेंगे ?’

इस मासूम से सवाल ने उसके अन्दर के इन्सान को झकझोड़ डाला और कुछ करने को मजबूर कर दिया . अगले ही कट से उसने गाडी को यु टर्न दे दिया. लता और आशा की परवाह न करते हुए उसने मुन्ना से कहा, ‘बेटा किसी और का तो मुझे मालूम नहीं पर चलो हम उन अंकल को अस्पताल ले चलते है’.’ मुन्ना ने ताली बजाते हुए खुशी जाहिर की. खुशी तो सुदीप को भी थी की वो अपराध बोध से मुक्त हो गया था और तमाशबीनो की भीड़ में अब वो तमाशबीन बन कर नहीं रहेगा.   

मामूल के खिलाफ

सुरक्षाकर्मी या किसी जासूस को अक्सर किसी मामूली सी लगने वाली बात को पहचान कर उसे आधार सूत्र बना कर भयानक भाग दौड़ में लगे अपने फिल्मों और कहानियों में देखा होगा.
दरअसल इन लोगों को प्रशिक्षित ही इस तरह किया जाता है कि इनकी नज़र हमेशा ही उस चीज़ को ढूँडती रहती है जो ‘मामूल के खिलाफ’ हो. मामूल का अर्थ है सामान्य या सामान्यतः. अगर कोई  घटना या वस्तु उस हालत में दिखाई देती है जिस तरह से उसे सामान्यतः नहीं होना चाहिए तो हमारे शरलक होम्स , मेजर बलवंत या करमचंद जासूस या किसी शॉपिंगमॉल, एअरपोर्ट आदि पर लगा सुरक्षाकर्मी के दिमाग में बिजली सी कौंध जाती है .
अपने आस पास अपने कई पात्र या चरित्र भी इसी तरह की हरकतें करते शायद आपने देखे होंगे. हम सभी इस तकनीक का इस्तेमाल अपने जीवन में कभी न कभी करते ही हैं. खासकर अपने विशेष अहमियत रखनेवाले परिचितों पर या फिर घर या आफिस की चीजों/ घटनाओ पर. कुछ लोग इन्हें बढ़ा चढ़ा कर या नमक मिर्च लगा कर और लोगों को बता कर मज़ा लेते है.
इसी सूत्र को हम अपने जीवन में भी उतार कर स्वयं पर प्रयोग करें तो अनेक लाभ हो सकते हैं. क्रोध और डर के प्रभाव में आकर अक्सर हम अटपटी हरकतें करने लगते है और मामूल के खिलाफ चले जाते है. अगर हम इन घटनाओ को सही समय पर (होते हुए) पहचानना सीख लें तो बड़ी मुसबतों से बचा जा सकता है.

जीवन में हम अपने कर्मों को खुद चुनते है और अपने भाग्य का निर्माण करते है. अगर अपने जीवन में अनुशासन ला कर हम मामूल को पकड़ कर रखें और वासनाओं से दिग्भ्रमित न हों तो जीवन बड़ा सरल बन जाता है.

कपालभाती का गणित

साँस लेना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिसे हम जन्म के समय से बड़ी सहजता से करना शुरू करते हैं. इसमे साँस के अंदर जाने और बाहर आने में एक लय बनी रहती है. पर जैसे जैसे हम बड़े होते हैं और मानव निर्मित समाज में जीने के पैंतरे सीखते जाते हैं ये लय बिगडती जाती है.


आमतौर पर हम यह देखते सीखते बड़े होते हैं कि जब कहीं से कुछ लेने की या हासिल करने की बात होती है तो हम उसके लिए बड़ी जुगत भिड़ाते हैं, जतन करते है पर देने के नाम पर एकदम कंजूस बन जाते हैं और बड़े सोच विचार कर के मरे मन से देते हैं. ऐसा करना हमारी आदत बन जाता है और जीवन के हर पहलू पर ये सोच ही हावी हो जाती है ,सांसो के लेने और देने पर भी. हम सांसो को भीतर तो खींच लेते हैं पर बार छोडते वक्त कंजूसी कर बैठते हैं . इससे हमारी सांसे छोटी और उथली होती जाती हैं और फेंफडो को पर्याप्त मात्र में हवा नहीं मिल पाती.

योग में कपालभाती प्राणायाम करके इस दोष को सुधार जा सकता है. इसमें हम पूरा जोर लगा कर सांसो को बाहर निकालते हैं. साँस अंदर खींचने के लिए कोई प्रयास नहीं करते. इतनी सी क्रिया मात्र से बाहर की हवा के अधिक मात्रा में अंदर जाने का रास्ता अपने आप ही खुलता जाता है बिना उसके लिए प्रयास किये हुए . ये इस लिए होता है कि जब हम जोर से हवा बाहर फेकते हैं तो वायुमंडल के दबाब के कारण उतनी ही जोर से बाहर की हवा फेंफडो में हुए निर्वात को भरने अपने आप ही खिंची आती है.

कपालभाती शारीरिक तल पर दोष दूर करने का एक व्यायाम मात्र ही नहीं है. इसके अभ्यास से धीरे धीरे हमारी सोच और व्यक्तित्व भी प्रभावित होता है. हम जीवन के हर पहलू में लेने के साथ देने के महत्त्व को भी पहचानने लगते है. धन दौलत ,ताकत या मनोरंजन के नाम पर हमने जिन चीजों को जरूरत से ज्यादा मात्र में इकठ्ठा किया होता है ,सांसों की तरह उसे भी छोडने का प्रयास शुरू हो जाता हैं. और सांसों की तरह जब हम अपने पास से किसी चीज को वातावरण में देते हैं तो वह चीज अपने आप वातावरण से हमारी तरफ आना शुरू हो जाती है बिना हमारे प्रयास किये हुए. इस तरह जो चीजे हमारे जीवन में आने लगती है वो नए नए रूप में होती है और ये नयापन जिंदगी में रंग भरकर उसे और खुशनुमा बना देता है.

रिश्वत


...... यात्री गण कृपया ध्यान दें ,छत्रपति शिवाजी टर्मिनल को जानेवाली पुष्कर एक्सप्रेस अपने निर्धारित समय से चालीस मिनट की देरी से चल रही है. आपको हुई असुविधा के लिए हमें खेद है. इस एनाउंसमेंट को सुनकर सुदीप ने प्लेटफोर्म पर खाली बेंच तलाशना शुरू कर दिया. जल्दी ही एक मोटे सरदारजी  अपनी जगह खाली करते उसकी नजर में आये और इससे पहले कि कोई और उस खाली जगह को भर देता सुदीप ने लपक कर उस पर अपना अधिकार जमा लिया.
प्लेटफोर्म पर हमेशा की तरह आपाधापी और शोर था. पर बाहर के शोर से कही ज्यादा सुदीप के दिमाग में आवाजें और हलचल थी. और वो उनमें गुम होता चला गया. एक कनफर्म टिकट पाने के लिए उसने क्या कुछ नहीं किया पिछले दो दिनों में,पर हर जगह से निराशा ही हाथ आयी. अभी करंट रिसर्वेशन और कल तत्काल रिसर्वेशन के काउन्टर पर कितना इंतज़ार और धक्कामुक्की को सहन करना पड़ा, पर सब बेकार. क्या गुप्ताजी के जानने वाले एजेंट को ८०० रुपये देकर टिकट बनवाना ठीक रहता? पर ८०० रूपये!! अगर ट्रेन में चढने से पहले ही उसके पास मोजूद कुल रकम ५००० रूपये में से ये ८०० रूपये कम हो जाते तो ३ दिन का ये ट्रिप वो झेल पाता? आगे भी ना जाने और क्या क्या खर्चे होने है .शायद ट्रेन आने पर उसका भाग्य साथ दे जाये और एक बर्थ का जुगाड़ हो जाये!
नहीं तो फिर जनरल डिब्बे में सफर करना होगा जो किसी महाभारत से कम नहीं. और इसके बाद शायद वो इंटरव्यू देने के काबिल ही ना बचे जिसके लिए वो जा रहा था मुंबई .
८ सालों बाद उसका मुंबई जाना हो रहा था. कितना बदल गया होगा वो बड़ा शहर? क्या यह नौकरी हासिल कर वह इस स्वप्न नगरी में फिर से रह पायेगा? लखनऊ में भी जिंदगी कट रही थी पर मुंबई सा मजा कहाँ ! और फिर पिछले ४ महीने की बेराजगारी नें तो उसे लगभग तोड़ ही डाला था. जो थोड़ी से जमापूंजी बचा कर रखी थी वो कितनी जल्दी उड़न छू हो गयी. अब तो घर के जेवर गिरवी रख कर गोल्ड लोन लेने की नौबत आती जा रही थी. ये इंटरवियू एक करो यो मरो जैसा मौका था जिसे खोना वो नहीं चाहता था किसी भी कीमत पर.
और ये पुष्पक एक्सप्रेस आखिरी ट्रेन थी अगर उसे समय से मुंबई पहुँचना है तो. पर हर ट्रेन में इतनी सारी भीड़ देख कर वो घबरा सा गया था. आखिर इतने सारे लोग क्यूँ और कहाँ भागते रहते है ? क्या इन्हें अपने घरों में आराम नहीं मिलता? किसी भी ढंग की ट्रेन में हफ्ते दस दिन पहले भी चाहो तो रिसर्वेशन नहीं मिलता कभी. इन्टरनेट से ऑन-लाइन रिसर्वेशन की सुविधा का फायदा भी पता नहीं किन लोगों को मिल रहा है? उसके हालात तो पहले जैसे ही है. जब भी रिसर्वेशन की जरूरत होती है उसे परेशानी का ही सामना करना होता है. अब आदमी डेढ़ दो महीने पहले से तो हर चीज़ प्लान नहीं कर सकता. अक्सर यात्रा जरूरत के वक्त ही करनी होती है, घूमने और सिर सपाटे के लिए तो कई सालों में ही निकलना हो पाता है. और जरूरत कभी भी पहले से बता कर नहीं आती.
ख्यालों की इसी उधेड़-बुन में वह और भी खोया रहता अगर प्लेटफोर्म पर अचानक हलचल ना बढ जाती. प्लेट फॉर्म पर मोजूद कुली ,सामान बेचने वाले और यात्री जो अपनी अपनी दुनिया में मशगूल थे अचानक बेचैन हो गए और पटरियों की तरफ झांकने लगे. लगता है उसने अपने ख्यालों में डूब कर ऐनाउन्समेंट भी अनसुना कर दिया होगा और अब ट्रेन आने ही वाली है.
और अगले दो तीन मिनटों के भीतर आखिर ट्रेन प्लेटफॉर्म पर लग ही गयी. उसकी बेचैन निगाहों ने तेजी से सारे डिब्बों के हालत का जायजा लिया. ऑफिस के काम के सिलसिले में अक्सर वह ऑडिटर को छोडने इसी ट्रेन पर आया करता था और उसे मालूम था कि लखनऊ कोटा किस किस डिब्बे में और कौन कौन सी बर्थ पर था.उसे ये भांपते देर ना लगी कि लखनऊ कोटे की सारी सीटें भरी नहीं थी और अगर टीटी चाहे तो एक सीट आराम से मिल सकती है.
अब उसकी नज़र इस डिब्बे के पास काले कोट धारी टीटी को तलाशने में लगी थी. जल्दी ही उसे इस काम में सफलता भी मिल गयी. हाथ में रिसर्वेशन चार्ट लिए दुबले पतले टीटी की भीड़ में झलक पाते ही वो उसकी तरफ लपक लिया. सर, मुंबई के लिए एक बर्थ मिल जायेगी ? उसने हांफते हुए टीटी के साथ साथ चलते हुए पूंछा. सूखे हुए गले से शब्द इस तरह निकल रहे थे मानो कोई बकरी मिमिया रही हो. कोई जगह नहीं है ,बेरुखी से कहता हुआ वह एक टी-स्टाल के पास खड़ा हो गया.  
कुछ दूर पर उसने एक ग्रुप के लोगों को बतियाते सुना, टीटी को देखो और बर्थ का जुगाड़ कर लो. उसे लगा कि उसकी जगह शायद ये लोग बर्थ जुगाडने में कामयाब हो जायेंगे. पहनावे से तो पैसे वाले और बातचीत से तेज तर्रार लग रहे थे. उसने चट पट ५०० रूपये का एक मुड़ा नोट जो पहले से ही अलग पॉकेट में इस काम के लिए रखा हुआ था निकल कर हथेली में रख लिया और हाथों को टीटी की तरफ याचना भरे अंदाज में घुमाते हुए बोला, सर,कुछ हो सकता है क्या,जरूरी काम से जाना है. महात्मा गांधी की फोटो वाले इस छोटे से कागज के जादुई टुकड़े ने अपना चमत्कार आखिर दिखा ही दिया. जाओ बीस नंबर की बर्थ पर चले जाओ ,टीटी के चेहरे से बेरुखी अब गायब हो चुकी थी. हरे रंग का नोट सुदीप की जेब से निकल कर टीटी की जेब में अपनी जगह बना चुका था.
बीस नंबर की सीट पर थका हुआ सुदीप घोड़े बेच कर सोया. अगले दिन सुबह शोर सुन कर उसकी आंख खुली. ट्रेन रुकी हुयी थी और कोई स्टेशन भी नहीं था. भ्रष्टाचार मिटाओ का बैनर लेकर भीड़ का एक रेला उसे तेजी से एक ओर जाता दिखा. रोज रोज के इस बंद और नारेबाजी से आम आदमी को तो परेशानी ही होती है ,बाकी किसको क्या मिलता है ,भगवान ही जाने, अगली सीट पर बैठे बुजुर्ग ने चिड़चिड़ा कर कहा. खिडकी के पास वाली सीट पर बैठे लडके के हाथ में अखबार था जिसपर २० मार्च को जनमोर्चा द्वारा मुंबई बंद रेल,बस रोकने की तैयारी... इतना सुदीप पढ़ सका.

पास बैठे नोजवान ने रिश्वतखोरी पर बहस का आगाज़ कर दिया जिस में धीरे धीरे टाइम पास के लिए सब शामिल होने लगे. सुदीप भी ना चाहते हुए उनमें शामिल हो गया. रेलवे में भ्रष्टाचार पर उसने अपनी भड़ास निकली ,शायद इससे उन ५०० रुपयों के बिछडने का गम हल्का होता नज़र आया. रेल फिर चल पडी थी पर मंजिल से अभी दूर थी. 

एक कोशिश



कांग्रेस और भाजपा पार्टी ने अभी अपने प्रधानमंत्री पद के दावेदार का खुलासा किया नहीं पर  पुछ्लग्गों ने मोदी बनाम राहुल कजंग भी शुरू कर दी और मीडिया इसे हवा देने से बाज नहीं आ रहा.
समझ में नहीं आता कि लोग अपने इलाके के उम्मीदवार को वोट देते है या भावी प्रधानमन्त्री को ? हर कोई जानता है कि संविधान के अनुसार बहुमत वाली पार्टी अपना नेता चुनाव के बाद चुनती है.
पर हम तो किसी करिश्माई फ़रिश्ते को देखने सुनने के आदी हो चले है. हमारी आंखे तरस रही हैं कि अरबों लोगों के बीच में से कोई मसीहा कोई अवतार प्रकट होगा जो जादू से सबकुछ ठीक कर देगा.
श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय ४) के श्लोक
 यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत

अभ्युत्थ्ससनमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्
 के अनुरूप हम उम्मीद पर टिके रहते हैं कि
....जब जब होता नाश धर्म को पाप बहुत बढ़ जाता है
तब लेते अवतार प्रभु ये विश्व शांति पाता है.
इस चक्कर में हम सब का जो नुक्सान होता है कि बेचारे भले लोग चुन कर संसद तक पहुँच ही नहीं पाते. भललोग एक तो राजनीति से दूरी बनाये रखना चाहते है ,और अगर कोई आना भी चाहे तो तो चुनाव का टिकट मुश्किल से मिलता है और फिर खोखले वादों के चुनावी उन्माद में लोग अपने इलाके के उम्मीदवार की बजाय पार्टी को वोट देना पसंद करतें है. कम से कम पढ़े लिखे और समझदार लोगों को तो अपने इलाके के उम्मीदवार को देख समझ कर ही वोट देना चाहिए.
ये सही है कि कई बार नागनाथ और साँपनाथ में से सही चुनाव मुश्किल होता है और ये भी सही है कि अक्सार सत्ता पाकर अच्छे अच्छों का ईमान डोल जाता है पर क्या हम मतदाता के रूप में अपनी तरफ से कोई कोशिश भी करते है इस बारे में ?
क्यों ना इस बार एक कोशिश कर के देख लें?
Photo courtesy www.freephoto.com

किसका फायदा ?

क्या आपके कदम ‘सेल’ ,’कीमत में भारी कटौती’ जैसे बैनर देख कर उधर की तरफ मुड जाते है?


क्या आप कुछ पैसे बचाने के चक्कर में उससे कही ज्यादा सामान खरीद लेते है जो घर से सोच कर आये थे ?

इसमे आपको किसका फायदा दिखाई देता है?

शायद आपका उत्तर हो, ‘मेरा, और किसका’.

पर ध्यान से सोचकर देखिये . जिसने भी ये बैनर लगाये है वह बाज़ार में पैसा कमाने के लिए ही बैठा है . इस तरह की खरीदारी में कौन क्या खोता है और कौन क्या पाता है इस गणित को समझाने की कोशिश करते है.

उदाहरण के लिए आप एक खास स्टोर ‘बड़े नामवाला’ में जाकर २० किलो चीनी का एक विशेष पैकट खरीदते हैं. इसकी बाज़ार भाव पर कीमत १००० रुपये बताई जाती है पर आपको यह पैकट ३० % छूट के साथ मात्र ७०० रुपये मैं दिया जाता है. इस तरह आपको ३०० रुपये की बचत के लिए प्रोत्साहित किया जाता है.

पहले देखते हैं कि इस खरीद में आप क्या खोते है-

मान लीजिए आप के घर में महीने की चीनी कि खपत २ किलो है और आप हर महीने किराने का सामान खरीदते है क्योंकि आपकी (या आपके पति की) तनखा महीने में एक बार मिलती है.

अगर ये लुभावना सेल का ऑफर ना होता तो आप १००० की बजाय सिर्फ १०० रुपये की ही चीनी खरीदते और बाकी के ९०० रुपयों को अपनी बनाई हुई लिस्ट (कागज या दिमाग में) घर की जरूरत की कोई और चीज खरीदते जो बच्चों के कपडे, जूते ,कोई बर्तन या घर में इस्तेमाल का कोई और सामान हो सकता था. पर ९०० रुपये मूल्यों की इन चीजों को अपने ९ महीने पीछे धकेल दिया क्योंकि उनकी जगह अपने ९ महीने के लिए चीनी एडवांस में खरीद डाली है. आप आपको कम से कम ९ महीने इंतज़ार करना होगा उन चीजों के लिए जिन्हें आप घर के लिए उपयोगी समझते हैं.

आप कह सकते हैं चीनी तो राजमर्रा इस्तेमाल की चीज है अगर थोक में सस्ते भाव पर खरीद ली तो क्या गलत कर दिया? कभी कभाद की गयी इस तरह की खरीदारी हमारे लिए फायदेमंद हो सकती है पर अगर आपकी आधी से ज्यादा तनखा इस तरह की खरीदारी में चली जाती है तो शायद घर की शांति भी भंग होना शुरू हो जाती होगी (जिसका अहसास अक्सर बाद में होता है) और ये सवाल भी आपको परेशान करने लगता होगा कि फलां आदमी का घर इतनी ही तनखा में कैसे मजे से चल जाता है. क्या आप ऐसे किसी सवाल को नज़रअंदाज करते है ?

बिना जरूरतों की सस्ती चीजें इकठ्ठा करने वालों पर ये पुरानी कहावत खूब लागू होती है ‘महंगा रोये एक बार, सस्ता रोये बार बार’.

आब ये देखते हैं कि इस तरह के सेल ऑफर को रखने वाला खुद क्या पाता है-

एक तो उसे अपने माल की बिक्री के लिए मामूली सी कम कीमत पर ही सही, पर निश्चित खरीदार मिलता है. इस तरह की खरीदारी से उसकी सेल अचानक बढ़ जाती है और दाम में की गयी कमी की भरपाई पैसे के फास्ट रोटेशन से आसानी से हो जाती है.

आपको इस खरीदारी से जो फायदा होगा वो तो आने वाले समय में होगा पर उसका माल अभी बिक जाता है. यही नहीं ‘शर्तें लागू है’ के मकडजाल में फंसाकर वह हर हाल में अपना फायदा तो पहले से ही सुनिश्चित करके बैठता है, और कई बार अपना आगे का सौदा भी पक्का कर लेता है . फिर अकसर वह आपको अपने माल की लत लगाने की योजनाओ में भी कामयाब हो जाता है. फिर अगर आप जब एक सस्ती चीज उसके यहाँ से खरीद रहे हैं शायद सब खरीदारी एक ही जगह से कर समय बचाने के चक्कर में अनजाने में कई महंगी चीजे भी साथ में खरीद डालें.

तो वास्तव में इस तरह के सौदे से किसका फायदा हुआ?

सम द्रष्टि






मेरे घर के पास एक व्यस्त सड़क है. मैं इस पर कभी कार से तो कभी पैदल चला करता हूँ.

जब मैं कार चला रहा होता हूँ और अक्सर जल्दी में होता हूँ तो लगता है कि क्यों इतने सारे लोग पैदल चल रहे हैं? क्या ये आराम से अपने घर नहीं बैठ सकते? रेंग रेंग कर आखिर ये पहुँच भी कितनी दूर जायेंगे? बिना ज़ेबरा क्रोसिंग के जब कोई अचानक सड़क पार करते हुए कार के सामने आ जाता है तो खलनायक नज़र आता है जिस पर गुस्सा भी आता है और तरस भी. दो चार भद्दी सी गाली भी निकल ही पडती है जो कभी मुंह से बाहर छलक जाती है और कभी दिमाग में अटक कर रह जाती हैं.

पर जब में इसी सड़क पर पैदल चल रहा होता हूँ तब मेरी विचारधारा उलटी तरफ चल रही होती है. इन गाड़ी वालों को जरा भी सब्र नहीं है? ऐसे फर्राटे मार कर कहाँ भागे जा रहे है? क्या दुनिया इनके बिना रुक जायेगी? जब कोई तेज गाड़ी किसी पैदल या खुद को विल्कुल छूती सी निकलती है तो गाड़ीवाला खलनायक बन जाता है और दिमाग से गालियों की यात्रा शुरू होजाती है.



जीवन में भी अकसर ऐसा ही होता है. बाहर कुछ खास नहीं बदलता पर हमारा रोल बदल जाता है. कभी हम सरकार की तरफ होते हैं तो कभी विरोधी पार्टी मैं. प्रश्न यह है कि जीवन के इन दो विरोधाभासी नज़रियों के बीच झूलते हए क्या खद को सही साबित करने के लिए दूसरे के गलत कहना /सोचना जरूरी है?



वैसे तो अगर हम समाज में अपने तरह तरह के रोल को समझें तो इस प्रश्न का उत्तर अपने आप ही मिल जाता है. कही हम बौस तो कही मातहत, कही बेटा / बेटी तो कही पिता/माता, कही दामाद तो कही सास-ससुर,कहीं ग्राहक तो कहीं दुकानदार. समय के साथ समाज की रचना ही हमीं हमारे इस अज्ञान से छुटकारा दिला देती है.



पर अगर यह समस्या हमें परेशान कर रही हो तो योग और अध्यात्म में इसके निदान की विधियाँ बतयी गयी है. इन सभी का मूल यह है कि जब हम साक्षी भाव से बिना पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हुए जीवन की घटनाओ में भाग लेते है तो सब कुछ सही लगने लगता है और किसी को भी गलत साबित करने की जरूरत ही नहीं रहती . जब हम मन वचन और कर्म से इस तरह का व्यवहार करना सीख जाते है तो सही अर्थों में जीवन में रहते हुए भी एक ‘योगी’ या ‘संत’ हो जाते है.

My new eBook