मर्यादा

प्रतिलिपि पर मेरी यह रचना पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें 

बकरे की जान


हैदराबाद पुलिस ने बलात्कार के एक जघन्य मामले के चारों आरोपियों को एक एन्काउंटर में मार डाला जिससे सारे शहर और देश में अन्याय पर न्याय की एक जीत के रूप में देखा जा रहा है और उत्सव के रूप में मनाया भी जा रहा है। साथ ही यह भी सुनने में आया है कि इस घटना को फर्जी एनकाउंटर बताने वाली एक याचिका भी अदालत ने सुनवाई के लिए स्वीकार कर ली है।
जिस देश में आम आदमी को न्याय के नाम पर सिर्फ तारीख पे तारीख मिलती हों और सुविधा- संपन्न लोग न्याय की परिभाषा अपने ढंग से तोड़-मरोड़ कर पेश करके कानून के फंदे से अक्सर बच निकलते हों ,वहां पर ऐसा होना कोई अचरज की बात नहीं। आखिर एक सीधे साधे व्यक्ति का संयम कब तक सधा रहेगा। बकरे को तो कटना ही था पर लोगों ने ईद का इंतजार न करते हुए पहले ही पार्टी मना डाली ।
एक तरफ लोगों के दिलों में सुलगते अरमान थे कि तुरंत न्याय हो और दोषियों को सजा मिले वहीँ दूसरी ओर कछुआ चाल से चलती न्याय व्यवस्था उनकी उम्मीदों पर खरी नहीं उतर रही थी। राम राज आने का किसी से इंतजार न हुआ और जंगलराज में जंगल  का कानून अपना काम कर गया।
विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र अपने अस्तित्व को बनाये  रखने के लिए दो भयावह अतियों के बीच झूल रहा है और विश्व उसका तमाशा देश रहा है क्योंकि  यह देश सबसे बड़ा बाजार भी है।
आज का ज्वलंतशील वैचारिक प्रश्न यह है कि एक स्वस्थ लोकतंत्र में निर्णय/न्याय का अधिकार किसे हो – भेड़ की तरह चुपचाप मुंडती हुई निरीह जनता को या अटक-लटक कर चल रही लचर व्यवस्था को ?

अपनी इकसठवीं सालगिरह पर

storyMirror.com  पर मेरी कविता प्रकाशित हुयी

पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें

कमी का अहसास

मेरी यह रचना प्रतिलिपि पर प्रकाशित हुयी। पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें ।

गौरय्या की सीख


गंगा नदी के किनारे एक सुन्दर गॉंव था। उस गॉंव के बीच में एक बड़ा सा पेड़ था। अक्सर धूप में लोग उसकी छाँव में आराम करने बैठ जाते और दुनिया-जहान की बातें करते। कोई उसके तने पर अपनी साइकिल टिका देता तो कोई अपना अंगोछा उसकी डाली पर सुखा देता। उसके फूल जब खिलते तो लोग उन्हें तोड़ कर ले जाते और तरह-तरह से इस्तेमाल करते। कोई उन्हें भगवान पर चढ़ाता तो कोई माला बनाता। कोई गुलदस्ता बनाता तो कोई गजरा बनाती। सभी को उनकी खुशबू बड़ी पसंद थी। जब उसके फल  लग  जाते तो भी लोग उन्हें तोड़ते सबका जीवन हंसी-खुशी चल रहा था बस कुछ शरारती बच्चे पेड़ पर लगे फलों को तोड़ने के लिए पत्थर मार-कर पेड़ को चोट पहुंचाते थे
 एक दिन छोटी सी किसी बात पर पेड़ के हिस्सों ने झगड़ा शुरू कर दिया। पेड़ का तना कहने लगा ,"तुम सब मेरे सहारे ही टिके हो ,वर्ना कभी के धरती पर गिर गए होते '।इस पर डालियों ने कहा ," अरे तने, तुम तो ठूँढ से खड़े रहते हो, ये तो हम हैं जो फल, फूल और पत्तियों को साधे रहते है। तब पत्तियां कहने लगी , “दिन-रात धूप सहकर फल और फूलों को बनाने का रास्ता हम तैयार करती हैं, हमारे बिना कुछ भी नहीं हो सकता। फूलों  ने तब कहा," हमारी खुशबू से पूरा गॉंव महकता है और हम सबके काम आते हैं"। फल भी कहाँ पीछे रहने वाले थे , इसलिए बोले ,"हम सबका पेट भरते हैं। हमारे लिए ही पूरा गॉंव इस पेड़ के आस पास चक्कर काटता रहता है।"
 सब कोई अपने आप को दूसरों से अच्छा बता रहा था और कोई किसी की बात सुनाने को तैयार नहीं था। इस तरह झगड़ा बढ़ता गया और हर कोई अपना काम करने के बजाय दूसरों के दोष ढूंढने लगा ताकि उन्हें नीचे दिखा सके। अब वे सब एक दूसरे से हंसी-खुशी बातें नहीं करते थे और न ही आपस में मज़ाक करते थे। सब अपना-अपना काम तो करते थे पर किसी का भी उसमें मन नहीं लगता था। इन सब बातों का असर पेड़ पर पड़ने लगा और उसका तना और डालियाँ पत्ते सूखने लगी । फूलों में भी पहले जैसे खुशबू नहीं रही और न ही फलों में पहले जैसा स्वाद। गांववालों ने भी धीरे-धीरे वहाँ आना कम कर दिया।
 उस पेड़ पर बहुत से पक्षी भी अपना घोंसला बना कर रहते थे। धीरे-धीरे वे सब भी पेड़ को छोड़ कर जाने लगे। अंत में बस एक गौरय्या और उसका बच्चा ही वहां बचा। बच्चा बहुत छोटा था और अभी उड़ नहीं सकता था इसलिए गौरय्या इंतज़ार कर रही थी कि कब वह उड़ना सीखे।
एक  दिन गौरय्या के बच्चे ने अपनी मां  से पूंछा ,"माँ ,सब पक्षी इस पेड़ को छोड़ कर क्यों चले गए और हम कब यहाँ से जाएंगे?"
इस पर गौरय्या बोली, “बेटा ,इस पेड़ के सब अंग आपस में एक दूसरे से लड़ते-झगड़ते हैं और मिल कर नहीं रहते। यह अच्छी बात नहीं और ऐसी जगह रहना ठीक नहीं। ऐसे पेड़ को न तो कोई पक्षी या पशु पसंद करता कई और न ही कोई इंसान। इंसान को ही देख लो कैसे वे लोग अपने घर हो या कक्षा, शहर हो या देश ,आपस में मिल-ज़ुल कर रहते है। जहाँ वे लोग झगड़ा करते हैं वहां ज्यादा समय तक खुश नहीं रह पाते और न ही पसंद किये जाते हैं। इस झगड़े की वजह से धीरे धीरे यह पेड़ कमजोर को जायगा और फिर एक दिन टूट कर  गिर जायेगा। जैसे ही  तुम उड़ना सीख जाओगे हम भी यहां से चले जायेंगे।
गौरय्या की बात पेड़ के सभी अंगों ने सुनी और उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ। वे समझ गए कि आपस उनके मिल-ज़ुल कर रहने की वजह से वह पेड़ इतना सुन्दर और आकर्षक बना हुआ था ,जो उनके झगड़े से मर जायेगा।
अब फिर से सभी अंग एक दूसरे के साथ मिल-ज़ुल कर हंसी खुशी रहने लगे और पेड़ फिर से हरा भरा हो गया। गांव वाले भी अब वहां फिर से आने लगे और गौरय्या भी वहां से नहीं गयी। जब यह बात और पक्षियों को पता लगी तो वे भी दुबारा उस पेड़ पर रहने आ गए।

आप कतार में हैं

मेरी एक रचना रचनाकार में प्रकाशित हुई , पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें 

गृह-कलह

हमारे देश के एक प्रदेश में जनता से बहुमत पाने के बाद भी विजयी दल सत्ता के बंटवारे को लेकर इस कदर अड़ गए कि सरकार  ही नहीं बन पा रही। तो दूसरी तरफ राजधानी में वकील और पुलिस जिनका काम जनता को न्याय दिलाना है, खुल कर आमने सामने आ गए और जनता बेचारी न्याय को तरस रही है ।
लोकतंत्र में साथ काम करने वाले घटकों का किसी बात को लेकर अलग अलग दृष्टिकोण रखना एक स्वस्थ व्यवस्था की निशानी है। पर अगर बात इस हद तक बिगड़ जाय कि ,जनता , जिसके प्रति दोनों की जबाबदेही है ,ही उपेक्षित होने लगे तो यह बीमारी के लक्षण हैं।

अगर इसे समय रहते न रोका गया तो जनता कि स्तिथि उस बच्चे जैसी हो जाएगी जिसके माता-पिता ही आपस में लड़ते झगड़ते रहते हों। इससे वच्चे का व्यक्तित्व तो प्रभावित होगा ही,उसके माता-पिता उसकी नज़रों में अपना सम्मान खो देंगे जो एक दुखदायी स्तिथि होगी।

न जाने कब सत्ता के गलियारे में दौडनेवाले इस कटुसत्य को पहचान पाएंगे?

गुस्ताख़ मजनू



 एक बार हमें भी सपनो में स्वप्न सुंदरी दिखाई दे गयी
और इतना ही नहीं, उसने हंस कर पूँछ भी लिया
कि बताओ न जरा
इन कपड़ों में मैं कैसी लग रही हूँ?

हमारा कवि-हृदय हमेशा की तरह
मन ही मन तरह तरह के जबाबों  के बारे में सोचने लगा
पहला जबाब हमारे दिमाग में ये आया
कपड़ों का क्या है, तुम तो कुछ भी पहन लो हमें हमेशा ही अच्छी लगोगी
इसके साथ ही दूसरी लाइन भी जहन में आयी कि
तुम्हें कपड़ों को पहन कर आने की जरूरत ही क्या थी 
पर इस लाइन को में सेंसर बोर्ड के डर से जुबान पर ला नहीं पाया

फिर सोच कर देखा और कपड़ों का विचार कर दूसरी लाइन यूँ बनाई
इन कपड़ों की किस्मत है कि इन्हें तुम्हारा बदन छूने को मिला है

अब थोड़ी सी हिम्मत और आ चुकी थी तो
हमारे अंदर के आशिक ने एक और लाइन गढ़ी
और मन ही मन अपने आप से पढ़ी
  तुम्हें देख कर तो गुस्ताखी करने को जी चाहता है 

हम समझ नहीं पाए की उन्हें हमारा कौन सा जबाब चाहिए था ?

पर स्वप्न सुंदरी को भला इतना समय कहाँ कि वो सिर्फ हमारे सपनो में ही बैठी रहती
वो हमारी हसरतों का फालूदा कर, इतनी देर में तुनक कर हमारे सपनो से ही चल दी

पर हम भी कहाँ मानने वाले थे
जो बातें उससे कहनी थी
वो सब आपको बताने बैठे हैं  
इसी विषय पर कविता बना डाली
दाद दो हमारी, हम नज़र के बड़े पैने हैं 

'साहित्य श्री' सम्मान

मेरी पुस्तक 'योग मत करो,योगी बनो' के लिए 'अखिल भारतीय साहित्य सभा (अहिसास), नासिक द्वारा 'साहित्य श्री' का सम्मान दिया गया







प्रियतम



जब रहा नहीं जायेगा
फिर कुछ तो कहा जायेगा
जो दिल से निकल रहा है
वो गीत बन जायेगा

शब्द तो इशारा भर है
उलझ न जाना
इन इशारों में प्रिये
ये इशारा
न जाने
किधर ले जायेगा

बाँध तोड़ कर बह निकली हैं
सदियों से दबी भावनाएं
अब कुछ न कहा जायेगा
अब सिर्फ बहा जायेगा

तुम कही चले मत जाना
मेरे पास ही बने रहना
तुम्हारी जुदाई का दर्द 
जब सहा नहीं जायेगा
तो कुछ न कहा जायेगा



किसका साथ : किसका विकास ?


आज से 72 साल पहले जब अंग्रेजों को इस देश से जाना पड़ा, तो विभाजन के दंश के साथ वे हमारे लिए एक लुटी-पिटी अर्थव्यवस्था छोड़ कर गए थे । स्वतंत्र भारत की विभिन्न सरकारों ने अपने-अपने तरीके से विभिन्न समय में इसका उत्थान करके आज हमें विश्व की सातवीं अर्थव्यवस्था तक पहुंचा दिया है। वर्ल्ड-बैंक के ताजा आंकड़ों के अनुसार भारत में गरीबों की संख्या 33.8 प्रतिशत है। अब सबको अपेक्षा है इस संख्या को और कम करने की। पर जिस देश में 7% से भी कम कर-दाता हों वहां ये एक बहुत बड़ी चुनौती है।
यूँ तो हमारे देश में गरीबी दूर करने की सरकारी योजनाओं की कोई कमी नहीं है पर इनमें से अधिकतर योजनाएं कागजों पर ही सिमट कर रह जाती हैं और असली हकदार  उनकी पहुँच से बहुत दूर रह जाते हैं जबकि अनेक शरारती तत्व उनका हक़ येन-केन-प्रकरेण छीन लेते है।
ये सब होता इसलिए है कि जिन लोगों को  गरीबों के लिए इन सुविधाओं / धन या संसाधन के वितरण की जिम्मेदारी दी जाती है वे लालच के वशीभूत होकर अपने समीपस्थ लोगों को लाभ पहुंचा देते हैं, योग्य या उसके असली हकदार के बजाय। इस पर किसी ने खूब कहा है-
"अँधा बाँटे रेवड़ी, फिर-फिर- अपनो ही देय "
एक लम्बे अरसे से बन्दर-बाँट की यह प्रक्रिया बदस्तूर जारी है। हमारे एक पूर्व प्रधान मंत्री के अनुसार तो सरकारी योजनाओं के लाभ का सिर्फ पंद्रह प्रति-शत ही उसके असली लाभार्थियों को मिल पाता है4 और बाकी बन्दर-बाँट का शिकार हो जाता है। नरेंद्र मोदी सरकार  द्वारा लाभ की रकम सीधे लाभार्थी के बैंक खाते में देने के निर्णय से एक हद तक लगाम तो कसी गयी है पर यह काफी नहीं है। भ्रष्टाचार की जड़ें हमारे देश में बहुत गहरी है और यह हर स्तर पर मौजूद है। जानकारी का अभाव हो या अपना नाम सरकारी रिकॉर्ड में शामिल करने योग्य धन न खर्च करने की विवशता या फिर सरकारी आंकड़ा बनानेवालों की संवेदन-हीनता, यह सत्य किसी से छिपा नहीं है कि एक बड़ी संख्या में वंचित वर्ग सरकारी आंकड़ों में शामिल ही नहीं है। और बहुत से लोगों ने वास्तव में लाभार्थी न होने के बावजूद भी कुछ पैसा खर्च करके अपना नाम उस सूची में डलवा रखा है।
हमारे देश में 'सब चलता है' दृष्टिकोण रखने के कारण अमीरों ओर गरीबों (साधन-संपन्न और वंचितों) के बीच की खाई को पाटना एक दुर्गम लक्ष्य है जो आसानी से प्राप्त नहीं होने वाला । इस लक्ष्य के ऊपर बातें बहुत हो गयीं पर अब तक कोई भी तरकीब उम्मीदों के अनुरूप प्रभावी नहीं हो सकी है। शायद अब  तक के सारे  के प्रयास आधे-अधूरे और बनावटी अधिक रहे हैं जिनको प्रभावशाली लोगों ने अपने हिसाब से तोड़ा-मरोड़ा है और फायदा उठाया है। अब आवश्यकता है एक समग्र चेष्टा की, जिसके लिए कोई मूल मंत्र या सिद्धांत भी चाहिए।
इस स्थिति से उबरने के लिए हमें कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि इस सदी के अद्भुत व्यक्तित्व और प्रेरणा-श्रोत हमारे राष्ट्र पिता महात्मा गाँधी के एक सिद्धांत को समझने की कोशिश भर करनी है। गाँधी का वह मूल मंत्र इस सम्बन्ध में हमारी सहायता कर सकता है जिसमें उन्होंने कहा था, “जब वह किसी काम को हाथ में लेते हैं तो उनकी आँखों के सामने सबसे गरीब और दुखी व्यक्ति का चेहरा होता है और वह यह देखते हैं कि उस काम का असर उस व्यक्ति पर क्या होगा।
यह कोई साधारण जीवन दर्शन नहीं है। अगर हम सब अपने-अपने व्यक्तिगत स्तर पर और सरकार तथा सामाजिक संस्थाएं अपने स्तर पर मिल कर इस मूल धारणा के अनुसार कार्य करें तो गरीबी उन्मूलन का लक्ष्य हासिल करना कोई बड़ी बात नहीं। इससे हमें एक नयी दिशा मिलेगी।
गाँधी का यह मंत्र हमारे प्रयासों को सबसे वंचित व्यक्ति पर केंद्रित कर देता है जो  कार्य शैली का  एक आधारभूत परिवर्तन  है। अब तक के किये गए सभी प्रयास जहाँ मात्र रस्म अदायगी ही थे, वहां इस तरह का प्रयास एक आत्मीय पहल होगी।
कुछ लोग आज के समय की मांग की दुहाई देकर इसे अप्रासंगिक करार देने की हिमायत करेंगे।
यह सही है कि हमारा रहन सहन, मान्यताएं और कार्य शैली  पिछले कुछ वर्षों में तेजी से बदली है पर जीवन के मूल सिद्धांत नहीं बदले हैं। लालच ने हमारी सोच पर घर जमा लिया है जो हमारे प्रयासों को कमजोर कर देता है जीवन शैली को विकृत। ऐसी स्थिति में यह मंत्र राम-वाण का सा काम करता है और आधुनिक जीवन शैली के लिए न सिर्फ प्रासंगिक है बल्कि पहले से अधिक उपयुक्त और प्रभावकारी है।
बहुत से लोग समझते हैं कि किसी वंचित की सहायता के लिए उसे  तत्काल आर्थिक सहायता या विकास प्रक्रिया में वरीयता देकर उनका कर्तव्य पूर्ण हो गया पर अकसर देखा गया है कि इस प्रकार की सहायता के बाद भी वंचित अपने दुष्चक्र से नहीं निकल पाते बल्कि उसमें और उलझ जाते है। वास्तव में वंचितों को तत्काल सहायता की बैसाखी  के साथ  ही उन्हें चुनौतियों का सामना करने के लिए सक्षम बनाए की भी आवश्यकता है। अत: गाँधी  के अंतिम जन के मंत्र को हमें गाँधी के ही एक और मंत्र के साथ मिला कर देखना होगा जो था 'आत्मनिर्भरता' का। गाँधी चाहते थे की इस देश का हर व्यक्ति आत्मनिर्भर हो। अंग्रेजों से उनके विरोध का मूल कारण भी यही था की उन्होंने विकास में सहायता तो की पर बस एक भीख के रूप में और हमसे हमारी सम्पन्नता, स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता छीन ली।
हमें वंचितों की यथोचित सहायता के साथ ही  उन्हें आत्मनिर्भर बनाने में भी मदद करनी होगी तभी गाँधी का सपना सजीव होगा।
गाँधी के अंतिम जन  और आत्मनिर्भरता के मन्त्रों की प्रासंगिकता का इससे बड़ा प्रमाण की हो सकता है कि  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका बार-बार अनेक स्थानों पर उल्लेख किया है। इसके अलावा एक प्रमाण यह भी है की इस सिद्धांत को रेखांकित करता “सबका-साथ, सबका- विकास” का नारा न सिर्फ गढ़ा गया और अत्यंत प्रचलित हुआ और हर किसी की जुबान पर आया बल्कि एक सरकार के दुबारा सत्ता में आने का कारण भी बना।
इस नारे का इतना प्रचलित होना और अपर जन समूह का इस पर विश्वास यह दर्शाता है कि हमारी सरकार और उसके मुखिया बिलकुल सही सोच के मार्ग पर हैं। पर सोच को जमीनी हकीकत में बदलने के लिए अथक प्रयास और संयम की आवश्यकता है।
इस नारे को जिसमें गाँधी के अंतिम जन और आत्मनिर्भरता का मंत्र छुपा है, मनसा-वाचा- कर्मणा से संचालित करने की अपेक्षा है, अन्यथा यह और कई नारों की ही तरह बस एक खोखला नारा ही बन कर रह जायेगा।

5 साल की तैयारी



धारा 370 हटाने का मुहिम तो डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 1951 में ही छेड़ दिया था और इसी बात पर जनसंघ पार्टी की स्थापना भी की थी, पर इसकी असली पटकथा तीन पीढ़ियों बाद 2014 में मोदी और अमित शाह ने बीजेपी की सत्ता संभालने के बाद लिखी। यूं तो पहले भी बीजेपी की 13 दिन और 13 महीने की सरकारें बनी पर उनके पास स्पष्ट बहुमत नहीं था। नरेंद्र मोदी को जनता ने लोकसभा में स्पष्ट बहुमत देकर भेजा। मेरा मानना है कि 2014 में सत्ता संभालते ही इन दोनों रणनीतिकारों ने इस पटकथा का आरंभ किया। असंभव से लगने वाले कार्य में अनेकों चुनौतियां थी जिनका एक-एक करके क्रमबद्ध तरीके से इन्होंने निदान किया। आइए इन्हें समझते हैं।
पहली चुनौती थी अलगाववादियों और पाकिस्तान के पिट्ठुओं की कार्यशैली की गुप्त और आंतरिक जानकारी हासिल करना और साथ ही परदे के पीछे काम करते उनके मुख्य व्यक्तियों की पहचान करना। कट्टरवादी लोगों की सीमा रेखा लांघ कर यह कार्य करना बड़ा ही दुरूह और जोखिम पूर्ण था। इसको करने के लिए उन्होंने एक बेहद जोखिम पूर्ण मार्ग चुना जहां पार्टी के भीतर और देश भर में घोर विरोध के बावजूद उन लोगों के साथ सत्ता की भागीदारी की जो कश्मीर में अलगाववादी भावनाओं को हवा देकर अपना उल्लू सीधा कर रहे थे। शायद उस समय अधिकतर लोग बीजेपी के मंतव्य को भांप नहीं पाए और पार्टी को कड़ा विरोध सहना पड़ा। पर कश्मीर विधानसभा में बीजेपी का मकसद महज सत्ता न होकर उससे भी कहीं आगे था। मोदी-शाह की इस जोड़ी ने जम्मू क्षेत्र में अपने पहले से उपलब्ध प्रभाव को जी जान से बढ़ाने के लिए उसमें  पूरी ताकत झोंक दी और यह सुनिश्चित किया कि सत्ता में उनकी भी भागीदारी हो। मुख्यमंत्री का पद अपनी सहयोगी पार्टी को दे कर उन्होंने उनका विश्वास जीत लिया और कश्मीर के अलगाववादियों लोग कुछ आश्वस्त और गाफिल हो गए । इस पर जांच एजेंसियों का इस्तेमाल करते हुए सभी वह जानकारी जुटाई गई होगी जिससे कि आगे का मार्ग प्रशस्त हो सके।
जब यह सब जानकारी हासिल हो गई होगी तब बीजेपी ने कश्मीर विधानसभा की सरकार गिरा दी । और वहां राष्ट्रपति शासन लगा कर अलगाववादियों और आतंकवादियों के समर्थन देने वाले मुख्य व्यक्तियों को जांच संस्थाओं के माध्यम से कमजोर करना शुरू कर दिया ।
अगली समस्या थी संसद से संविधान संशोधन को पास कराने के लिए दो तिहाई बहुमत की । इसके लिए धारा 370 में ही निहित उपखंड का उपयोग करके उसे खोखला करने की योजना बनाई जो राष्ट्रपति के अधिकार में आती थी पर उसे तब ही किया जा सकता था जबकि जम्मू और कश्मीर की संसद ऐसा करने की अनुशंसा करें । इसके लिए जम्मू कश्मीर में राष्ट्रपति शासन की अवधि बढ़ाई गई । अब क्यांकि किसी प्रदेश की विधानसभा अगर अस्तित्व में ना हो तो वहां के सब अधिकार संसद में स्वत: ही आ जाते हैं अत: जम्मू कश्मीर की सरकार ना होने की स्थिति में यह प्रस्ताव संसद में लाया गया ।
लेकिन क्योंकि प्रस्ताव दोनों सदनों से पारित होना था और बीजेपी की संख्या लोकसभा में तो बहुमत की थी और राज्यसभा में यह बहुमत का आंकड़ा अभी दूर था जिसके पहुंचने में काफी समय लगता । पर इतना इंतजार न करते हुए यहां पर एक और युक्ति अपनाई गई । वह यह थी कि अध्यक्ष के विशेषाधिकार का उपयोग करते हुए बिल को सदन में प्रस्तुत करने की सूचना सदस्यों को बिल्कुल अंतिम समय (उसी दिन) में देने की । सदन आमतौर पर जब कोई महत्वपूर्ण बिल संसद के पटल पर रखा जाता है तब अधिकार संसद सदस्य अपनी उपस्थिति सदन में सुनिश्चित करते हैं जिससे वह मतदान वह चर्चा में भाग ले सकें कई बार पार्टियां व्हिप भी जारी करती हैं। अन्य दिन बहुत से सदस्य विभिन्न कारणों से अनुपस्थित रहते हैं। इस  युक्ति का का सफल प्रयोग तीन तलाक के बिल को पारित करते समय किया गया ।
अब जब धारा 370 का बिल प्रस्तुत किया गया तो यह राज्यसभा में पहले किया गया क्योंकि अगर लोकसभा में (जैसा कि अक्सर होता है) यह पहले प्रस्तुत होता तो राज्यसभा के सांसद सचेत हो जाते और उनकी उपस्थिति भी अधिक हो जाती ।
विधेयक में धारा को पूरी तरह से हटाने की मांग नहीं की गई क्योंकि तब यह संविधान में संशोधन माना जाता । अतः इसके सारे उपखंड निष्प्रभावी कर दिए गए सिर्फ पहले खंड को छोड़कर जिसमें लिखा था कि जम्मू और कश्मीर भारत का अभिन्न भाग है । इस तरह धारा 370 को एक आवरण बना कर रहने दिया गया
अब एक और चुनौती थी बिल पास हो जाने पर वहां के लोगों को सड़क पर उतरकर उपद्रव करने से रोकने की। इसका उपाय बिल प्रस्तुत करने से पहले ही किया गया जहां सैनिकों की भारी मात्रा में तैनाती करके संवेदनशील क्षेत्रों को छावनी में तैनात कर दिया गया। फोन और इंटरनेट  की सुविधाएं हटा ली गई ।इसका फायदा यह हुआ कि लोग अपने घर में बंद होकर रह गए। अब उपद्रव करने वाले चाह  कर भी कुछ नहीं कर सकते थे क्योंकि यह लोग भीड़  का सहारा लेते हैं और यह उन्हें मिलेगी नहीं क्योंकि लोग तो अपने घरों में कैद है और बाहर नहीं निकलेंगे। उपद्रव फैलाने वाले मुख्य लोगों को तो पहले ही चिन्हित किया जा चुका था जिनको या तो गिरफ्तार कर लिया गया या निष्प्रभावी कर लिया गया। इस तरह कोई बड़ी दुर्घटना या हिंसा की घटना की संभावनाओं को होने से पहले ही टाल दिया गया ।
एक और बड़ी चुनौती थी इस पूरी योजना के की भनक मीडिया या विरोधियों को न लगने देने  की इसके लिए बड़े ऊंचे दर्जे की गोपनीयता बरती गई। सरकार के कैबिनेट स्तर के मंत्री तक को योजना की जानकारी नहीं थी। यह सब इतना अचानक हुआ विरोधियों को कुछ भी करने की बात तो दूर, सोचने-समझने तक का समय ही नहीं मिला ।
धारा 370 को प्रभावहीन करना तो पहला कदम था। सरकार के पास अभी चुनौतियों की लंबी फेहरिस्त है। जम्मू और कश्मीर का विकास करना है और वहां के लोगों को मुख्यधारा से जोड़ना है। देखें उसमें कहाँ तक सफलता मिलती है?

My new eBook