फूल खिलाओ बिना गुलशन

‘फूल खिलें हैं गुलशन-गुलशन’, ये मुहावरा शायद अब पुराना हो चला है क्योंकि गुलशन (बाग़) तो अब बस गिने चुने ही रह गए है. जहाँ देखो वहां कंक्रीट के जंगल ही दिखाई देते   है. हाँ कहीं कहीं बनावटी फुलों से दीदार हो जाया करता है. पर असली फूलों की तो बात ही कुछ और है.
एक साथ बहुत से फूल हों तो अच्छा लगता है पर फूलों के पौधों को खिलने के लिए एक बागीचे ही की दरकार हो ऐसा भी नहीं है. आप अपने घर या आफिस में गमलों में इन पौधों को लगा सकते हैं. अगर वहां पर जमीन पर गमला रखने की जगह/सुविधा न हो तो लटकने वाले गमले भी लगाये जा सकते है.
बेहिसाब जंगल काट कर मानवजाति ने प्रकृति का जो संतुलन बिगाड़ा है उसकी भरपाई तो शायद अब कोई न कर सके पर अपने सामर्थ्य के अनुसार जितना हो सके उतने पौधे तो लगा ही सकते है . अगर हर व्यक्ति दो चार ही पौधे लगा लेता है तो दुनियां में अरबों पौधे लग जायेंगे जो हमें फूल और फल तो देंगे ही साथ में वातावरण की दूषित हवा को साफ़ कर ( पेड़ पोधे हमारे द्वारा छोडी जाने वाली कार्बन डाइ आक्साइड को ग्रहण कर हमें सांस के लिए जरुरी आक्सीजन वापस देते हैं) हमारी जीने में सहायता करेंगे.

पेड़ पौधो के बहाने हम किसी न किसी रूप में इस आडम्बरपूर्ण संसार में निश्छल और शुद्ध प्रकृति से नाता बनाये रख सकते है. धीरे धीरे ये हमारे परिवार का ही एक सदस्य की तरह हो जाते है जो समय पर पानी, धूप और खाद के खुराक लेते है और बदले में फल-फूल और मन की शांति देते हैं.     

काल का समय

मुझे एक आध्यात्मिक  मन्त्र मेरे एक व्यावसायिक मित्र ने दिया है. वे अपने मोबाईल पर आने वाली कॉल की उत्सुकता से प्रतीक्षा करते और किसी भी परिस्थिति में क्यों न हों सब काम बीच में रोक कर आने वाली कॉल पर ध्यान देते हैं . वे कहते हैं कॉल कभी भी आ सकता है. पर उनका कॉल शब्द का उच्चारण रहता है काल’ , तो इस तरह से जो वह कहते हैं वह दूसरों को इस तरह से सुनायी देता है, ‘ काल कभी भी आ सकता है’. और इस तरह से यह एक सुन्दर आध्यात्मिक सन्देश बन जाता है.

वास्तव में काल कभी भी आ सकता है. क्यों न इसके लिए हम हमेशा ही तैयार रहे. यह विचार मन में रख कर जो भी हम करेंगे, जैसे भी जियेंगे वह एक उपासना की विधि बन जायेगी और जीवन एक उत्सव.

बहाना


जन्मदिन तो एक बहाना है
यारों को बुला के पार्टी मनाना है
केक खाना और खिलाना है
और इसी के साथ अपनी कविता भी तो सुनाना है

कहाँ से आये और कहाँ जाना है
जिंदगी हकीकत है या फ़साना है
इन सवालों को दरकिनार करे हमें तो
हंसते खेलते जिन्दगी जिए जाना है

इधर उधर की खबर सुनना सुनना है
हसरतों और ख्वाहिशों के बारे में बतियाना है
और इन सब के बीच में हाले दिल को भी तो छुपाना है

अपनों से मिलाना मिलाना है
टूटते हुए रिश्तों को बचाना है
उम्र का क्या है, साल दर साल उसे तो बढ़ते ही जाना है

धन्यवाद आपका, मुझे कहने का मौका दिया
एक मेहरबानी और कर  दीजिये
कविता ख़त्म हो गयी है
अब आप लोगों को

तालियाँ बजाना है तालियाँ बजाना है

पौलीथीन का प्रकोप

पौलीथीन बैग ने हमारी जिन्दगी बड़ी आसान बना दी है. बड़े से बड़े सामान का बोझ ये पतला सा बैग कितनी आसानी से झेल लेता है और फिर इसकी कीमत भी इतनी कम है कि इस पर हुआ खर्च न के बराबर लगता है.
हर जगह आसानी से मिल जाने वाले इस वस्तु ने हमारी जिन्दगी ही बदल के रख दी है.
पर क्या आपने इसके एक और भयावह पक्ष के बारे में सोचा है? इसे आसानी से नष्ट नहीं किया जा सकता. आप में से बहुत से लोग कहेंगे , ‘इससे मुझे क्या मतलब/ नुक्सान?? मैं तो इसका इस्तेमाल कर फेंक देता हूँ.’.
बस यहीं से इस काम की चीज के प्रकोप की यात्रा शुरू होती है. हमारे देश में अक्सर लोग इसे कचरे के डिब्बे में तक फैंकने की जहमत नहीं उठाते. और जो समझदार लोग इसे किसी कचरे के डिब्बे में फैंक भी देते है, अक्सर उस डिब्बे को भी किसी न किसी खुली जगह पर ही खाली कर दिया जाता है जहाँ से हवा के झोंके इस हल्की सी चीज को अपने हिसाब से इधर उधर बिखेर डालते है. हमारे खेत, जंगल ,खाली जगह, सड़क और कोलोनी में घूमते जानवर  अक्सर इनमें खाने की चीज लगी होने की वजह से या इसे ही खाने की चीज समझ कर खा जाते है जिससे ये उनकी अंतड़ियों को जाम करके उन्हें तड़प तड़प कर मरने के लिए मजबूर कर देता है.
शहर हो या गाँव, छोटी बड़ी खुली नालियां / नाले इसकी सफाई व्यवस्था का हिस्सा होते है. पौलीथीन बैग अक्सर इन नालियों में पहुँच कर इनका प्रवाह अवरूद्ध कर देते है और इस तरह गन्दगी तथा उससे होने वाली बीमारियों/ समस्याओं को जन्म देते है.
इसके अलावा कई अनुसंधान द्वारा ये सिद्ध हो चुका है कि खाने पीने की चीजें विशेष रूप से गर्म चीजें इनमें सीधे रखने से स्वास्थ्य के लिए हानिकारक रसायन बनाती है.   
जिन विकसित देशों में जानवर सड़क और मोहल्ले में खुले नहीं घूमते और जहाँ कचरा निष्पादन की व्यवस्था अच्छे दर्जे की है और खुली नाले/नाली नहीं है और जहाँ जोगों को कहीं भी कचरा फेंक देने की आदत नहीं है, वहां शायद पौलीथीन फायदेमंद सौदा हो पर अपने देश में अभी तो ये नुक्सान का बड़ा कारण बना हुआ है.
क्या आप अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी में अपनी कुछ छोटी छोटी आदतें बदल कर इस नुक्सान को कम कर सकते है-
जहाँ तक संभव हो पौलीथीन बैग का इस्तेमाल कम से कम करें , ख़ास कर खाने पीने की गर्म चीजों को रखने में. इसकी जगह कागज या कपडे के बैग का इस्तेमाल शुरू कर सकते है.

अगर मजबूरी में पौलीथीन बैग का इस्तेमाल करना भी पड़ा तो इस्तेमाल करने के बाद को खुले में न फेंकें , न ही ऐसी जगह जहां से यह खुली जगह में जा सकता हो .  अगर संभव हो तो ऐसे  पौलीथीन बैग इकठ्ठे कर के जमीन के भीतर दबा दें.

दोगलेपन से मुक्ति

दोगलेपन के जीवन के हम आदी हो गए हैं. वैसे तो हम अपने को देशभक्त और जिम्मेदार नागरिक समझते हैं पर टैक्स चोरी के नए-नए तरीके आजमाने को हमेशा तैयार रहते हैं. हमें अपनी ही सरकार पर विश्वास नहीं कि वह टैक्स की कमाई से न्याय करेगी. हर परिवार या गुरु प्रकट रूप से तो भाई चारे और अमन का पाठ पढ़ाता है पर अंदर से दूसरों को रोंद कर आगे निकलने के लिए हमें उकसाता है और तैयार भी करता रहता है. यही सब सीखते समझते हम अक्सर बड़े होते हैं. भ्रष्टाचार, अशांति, हिंसा व् व्यभिचार इसी दोगलेपन से निकली समस्याएं हैं
आमतौर पर चीजों को दो तरह के चश्मे से देखते हैं एक अपने / अपनो के लिए तो  दूसरा  किसी और  के लिए. पर एक सच्चे योगी के मन में अपने पराये का ये भेद नहीं रहता है. वह अपने से भी उसी तरह का व्यवहार करता है जैसे वह और किसी इंसान के साथ करता.
सादगी को एक कमजोरी और गाली के रूप में देखा जाने लगा है, पर यही हमारी असली शक्ति है और हर समस्या से निजात दिलाने की ताकत रखती है

योग की तकनीक का निष्ठा पूर्वक मन से पालन करने पर हमें दोगलेपन से मुक्ति मिलती है. यही सच्चा निर्वाण है. 
छत्तीसगढ़ की पत्रिका 'नवांकुर' ने भी मेरे लेख 'अष्टांग योग' को प्रकाशित किया.
यह लेख इस ब्लॉग की एक पोस्ट के रूप में भी उपलब्ध है.

भोपाल में मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, भोपाल की पत्रिका 'अक्षरा' ने मेरा लेख 'अष्टांग योग ' प्रकाशित किया.




किसी भी रचनाकार को उसकी रचना को ज्यादा से ज्यादा लोगों के सामने लाने  से से आत्मसुख मिलता है. एक शब्दकार के लिए उसकी कृति का प्रकाशित होना एक बड़ी घटना है जिसका उसे सदा इंतज़ार रहता है..

इसी विचार के अधीन एक नयी श्रंखला आरम्भ कर रहा हूँ-'प्रकाशित'.

यहाँ में उन पलों का आनंद सहेजूंगा जब किसी मध्यम के द्वारा मेरी किसी कृति पर प्रकाश डाल कर उसे प्रकाशित किया गया आर्थात लोगों के सामने लाया गया.

आरम्भ अपने बचपन की कुछ रचनाओं से कर रह हूँ.

योग-एक सम्पूर्ण द्रष्टि

दुनिया भर की सभ्यताओं को अगर मोटे तौर पर देखें तो एक विभाजन साफ़ नज़र आता है. एक तरफ अमेरिका और पश्चिम के देशों की व्यवस्था है जहाँ हर चीज को तर्क और विज्ञानं की कसौटी पर परखा जाता है और व्यक्ति के कर्म और उसके परिणामो को ही महत्त्व दिया जाता है. दूसरी तरफ भारत तथा अन्य पूर्वी देशों की सभ्यता सभ्यताएं है जहां व्यवस्था का आधार है विश्वास और आध्यात्मिक द्रष्टि रखते हुए भावना को अधिक महत्त्व दिया जाता है.

अक्सर इन दोनों व्यवस्थों की श्रेष्ठता को लेकर तकरार होते दिखते हैं. आमतौर पर आध्यात्म को विज्ञान का और विश्वास को तर्क का विरोधी मान लिया जाता है.

सभ्यताओं के बंटवारे की तरह ही हमारा व्यक्तित्व भी बंटा रहता है. एक तरफ कर्म आधारित फल देने वाला हमारा भोतिक शरीर तो दूसरी तरफ भावना आधारित उड़ान भरने वाला हमारा मन.

इन सब के मूल में है इंसानी दिमाग . 1981 में नोबेल पुरूस्कार विजेता स्प्लिट ब्रेन थ्योरी या बनते हुए दिमाग के सिद्धान्त’ के अनुसार हमारे दिमाग के दो अलग अलग हिस्से अलग अलग तरह के काम करते हैं. जहां बायां भाग तर्क और शब्दों पर आधारित गणनायें करता है दायाँ भाग चित्र और ध्वनि आदि पर आधारित कल्पनाएँ सजोता है और अनुमान लगता है . इन दोनों हिस्सों के बीच में एक सूक्ष्म नाडीतंत्र द्वारा सूचनाओं का आदान प्रदान होता रहता है. आक्सर हम इनमें से  कभी एक पक्ष हम पर हावी होता है तो कभी दूसरा. पलक झपकते के समय-अंतराल से भी बहुत कम समय में किसी एक पक्ष के नियंत्रण में स्तिथि पहुँच जाती है.

यहाँ समझने की बात यह है कि कल्पनाये /भावनाएं तथा तर्क /विश्लेषण एक दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि पूरक है. दोनों को मिला कर देखने से ही एक अच्छी तसवीर बनती है जैसे बायीं और दायीं आँख से मिले दो अलग अलग द्रश्यों को मिला कर ३डी तस्वीर मिलाती है जो एक पक्षीय (बायीं या दायीं) से कहीं बेहतर हाती है. इसी तरह बांयें और दायें कान से सूनी गयी ध्वनि को मिला कर ही स्टीरिओ फोनिक ध्वनि बनती है जो उनमें से एक (दायीं या बायीं ) ध्वनि से बेहतर होती है.


योग हमारे दिमाग के दो हिस्सों से उत्पन्न सूचनाओं को बिना किसी एक से भी प्रभावित हुए तटस्थ रूप से मिला कर देखने की कला में हमें पारंगत करता है. एक योगी की द्रष्टि सम्पूर्ण और निष्पक्ष होती है और जीवन की घटनाओं से वह विचलित नहीं होता जबकि आम आदमी अक्सर एक पक्षीय द्रष्टिकोण रखने के कारण जीवन के उतार चढाव  के भंवर में ही फंसा रहता है. 

जादुई आस

भारतीय मानसिकता भी अजीब है. हम सब को इन्तजार रहता है बौलीवुड की फिल्मो की तरह की कोई जादुई घटना होने का जो सब कुछ ठीक कर देगी.
इसलिए हम असल ज़िंदगी में भी इंतज़ार ही करते रहते हैं की सब कुछ अपने आप या भगवान् की दुआ से ठीक हो जाय.
सरकार कुछ क्यों नहीं करती ?
प्रधानमंत्री क्यूँ नहीं सब ठीक नहीं करते?
वित्त मंत्री क्यूँ नहीं ठीक बजट नहीं बनाते?
अपनी क्रिकेट टीम ठीक से क्यूँ नही खेलती?
                                                        
इस तरह के सवाल अक्सर लोगों के मन में चलते रहते है. हमारी सारी आशाएं और अपेक्षाएं दूसरों से ही रहती है.
क्या हमने कभी सोचा है कि हर काम कोई और क्यों करे ?
हम खुद अपनी जिंदगी क्यूँ नहीं ठीक कर सकते ?
सच तो ये है कि असल ज़िंदगी में बाहर से जादू कि छड़ी लेकर कोई नहीं आने वाला. जो कुछ करना है वो  हमें ही करना है .

जादुई आस हमें इतना निक्कमा न बना दे कि फिर भगवान् भी हमारे लिए कुछ न कर पाये.


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