नया साल

बड़ा हल्ला है नया साल आया
आखिर मेरे लिए ये क्या लाया?
           वही जिन्दगी है , है सब कुछ पुराना
           नया कोई अनुभव मुझे तो हुआ ना
वो चीज़ो के भावों का सुरसा सा बढना
वो दंगे फसादों में लोगों का मरना
वो हर एक का छोटी सी बातों पे लड़ना
वो वादों का करना और कर के मुकरना
           सभी कुछ वही है
            वही है    वही है
बीबी के घर में ताने वही हैं
गम को भुलाने के ठिकाने वही हैं
आफिस के लोगों की चालें वही हैं
दुनिया के तेवर बदलते कहीं हैं?
            बदलते हैं तो सिर्फ ये आंकड़े ही
            हकीकत की दुनिया बदलती नहीं है
            उम्मीदें मचलती हैं हर हाल में भी
            उम्मीदों को मंजिल मिलती नहीं है
   

मैं........

पुरानी आदतों की कैद में सड़ता हूँ
नए को स्वीकारने से झिझकता हूँ

अपनी सोच जाहिर करने से डरता हूँ


और अपने ही  डरों को साकार करता हूँ

जो चल रहा है उस ढर्रे के टूटने से बचता हूँ

इसके लिए  अपनी ही भावनाओं को खून करता हूँ


हर घड़ी मरता हूँ
मैं भी कमाल करता हूँ

कर्म ही धर्म


क्या कर्म के बिना जीवन संभव है ?

जीवन से अगर कर्म को निकाल दें तो क्या वह जीवन रह जायेगा ?

सांसो के चलने और दिल के धड़कने के अलावा एक और डोर है जो जीवन को बांधे है और वो है कर्म की डोर.

आप चाहे बराक ओबामा हों या रिक्शा चलते हों, कर्म से आपका छुटकारा नहीं. कितने ही कीर्तिमान बना कर भी नहीं .सचिन तेंदुलकर को भी एक एक  गेंद का सामना करना पड़ता है और उसकी कई बार मात भी होती है .शाहरुख़ खान और अमिताभ बचचन को भी एक एक द्रश्य की शूटिंग करनी होती है और उनकी फिल्म भी फ्लाप  होती   हैं.

हमारे आस पास के रिश्तों का जमावड़ा ,हमारी पहचान ,हमारी आमदनी सब कुछ तो हमारे कर्म पर ही आधारित है. कर्म से ही हमें अपना भाग्यविधाता बनाना संभव है.
पर क्या हम अपने कर्म के प्रति संवेदनशील हैं या फिर सोचते हैं कि-

सब चलता है

फिर कभी फुर्सत मैं सोचेंगे

इसमें सोचने कि क्या बात है

जो हो रहा है होने दो, बस जिंदगी का मजा लूटो


चित्र -आभार - freedigitalphotos

लक्षमण-रेखा


लक्षमण ने एक रेखा खींची थी सीता को बुरी ताकतों से बचाने के लिए .

वो तो रावण स्मार्ट निकला कि उसने इस सुरक्षा कवच का तोङ निकाल लिया. ' कहीं साधू बिना दान लिए घर से ना लौट जाय' ,सीता के मन में छिपे इस डर कि भावना का दुरूपयोग कर रावण ने चली थी चाल.

 
जमाना चाहे कितना भी बदल गया हो ,हम सब अपनी अपनी लक्ष्मण  रेखाओ से बंधे हैं और उन्ही में जीते हैं . ये हमारी सुरक्षा कवच भी हैं और परेशानियों का कारण भी . ये  रेखाएवास्तवमें बस  मान्यताये  है  , हमारे  दिमाग  में  बैठे विचार मात्र. एक तरफ हम इनके अन्दर जीकर सुरक्षित महसूस करते है वहीं दूसरी तरफ इन्हें ढोना बड़ा झंझट का काम है. दूसरे लोग खास कर जिनका कोई स्वार्थ होता है हमें उकसाते है इन्हें तोड़ने के लिए.   
 
कितनी अदृश्य लक्षमण रेखाओ से हम बंधे रहतें हैं और कितनियों को तोड डालते हैं. समाज,घर, परंपरा,सरकार और धर्म इनको हम पर लादते रहते हैं.
कुछ  लक्ष्मण रेखाए जो अक्सर हमें बांधती है वह है-
  • बचत करना
  • किसी का दिल न दुखाना
  • हर एक से शराफत से पेश आना
  • अपनी जाति, धर्म, समुदाय आदि की परंपराये
  • किसी से भी हार न मानना
  • अपनी गलती हरगिज न मानना    
     

फर्क देख लो


 मेरा घर एक ऐसी जगह पर है जहाँ दो राज्यों की सीमायें मिलती है (या कहें बंटती है). अपनी बालकनी में बैठा मैं अक्सर सामने की सड़क पर बहता हुआ यातायात का सैलाब देखता रहता हूँ.

एक चीज जो मैंने कई बार महसूस की है कि मेरी दायीं ओर के राज्य से आते हुए अक्सर लोग इस सीमा पर आकर ठिठकते है. यहाँ आकर कार वाले अपनी सीट बेल्ट पहन लेते है और स्कूटर-मोटर-साईकिल वाले अपना हेलमेट निकालकर  पहन लेते है, ट्रेफिक लाइट तो दायी ओर वाले राज्य में भी लगी हैं पर कोई उधर उनकी परवाह नहीं करता .
पर सीमा के इस पार आते ही वही लोग बड़ी शराफत से लाल बत्ती पर रुक कर इंतजार करते है वो भी जेब्रा क्रोस्सिंग से पहले.

सीमा रेखा पर हुए इस अचानक परिवर्तन से दोनों राज्यों की कानून-व्यवस्था और नागरिकों के मन में बेठी साख का अंतर उजागर होता है.

क्या इसी तरह का अंतर कई लोगों से बात करके नहीं नजर आता? कुछ लोगों के साथ कुछ भी कह-कर गुजरो, चल जाता है वहीं कुछ लोगो से आपको सावधानी से होश में रह कर बात करनी होती है. हम अपने व्यक्तित्व के जिस पक्ष के प्रति  संवेदनशील रहते है,दूसरे भी उसका आदर करते है. हमारी संवेदनशीलता कम होते ही दूसरे भी इसका आदर करना छोड़ देते है.

अपना आदर -सम्मान हम खुद ही अर्जित करते है. दूसरों को इसका दोष देना उचित नहीं.    

चित्र -आभार - Pleasure Gait Farms

           

चुनाव अपना अपना

कमल और अभिषेक एक ही रास्ते पर एक साथ चल रहे है. उन्होंने यात्रा भी एक साथ शुरू की है और उन्हें एक ही जगह जाना है. दोनों ही पैदल जा रहे है. तो क्या उनके अनुभव भी एक जैसे होंगे ?

बिलकुल नहीं. जहाँ कमल को अपने आस पास की घटनाये और जगह परेशानीभरी, बेंमजा और साधारण लग रही है वहां अभिषेक को वो ही चीजे आनंददायक, सुंदर और असाधारण लग रही है.

जब में आपको इन दोनों पात्रों का परिचय दूंगा तो शायद आपको इस अंतर की वजह समझ में आ जाये. कमल एक आफिस मै चपरासी की नौकरी करता है और वह अपने ६ लोगों के परिवार का अकेला कमाऊ सदस्य है. वह पैदल इस लिए जा रहा है कि बस का किराया देने की उसकी हैसियत नहीं है, दूसरी और अभिषेक एक बड़ा व्यापारी है. उसके पास कई गाड़ियाँ है. वह पैदल इस लिए चल रहा है कि पैदल  चल कर वह कुछ व्यायाम कर सके.

इस उदहारण द्वारा मै जिस बात की ओर इशारा कर रहा हूँ वह यह है कि 'अंधानुसरण' मुर्खता है. अगर कोई और कुछ काम कर रहा है तो हमें भी उसकी तरह काम करके वैसे ही फल मिलेंगे -ऐसा मान लेना सही नहीं.
इस दुनियां मै बिलकुल एक जैसे दो पत्ते या पत्थर भी ढूँढना कठिन है, फिर दो इंसान कैसे एक जैसे हूँ सकते है जिनमे से हर एक के पास यह क़ाबलियत है कि वह अपने आप को अपनी सोच से बदल सके.  हर व्यक्ति अपनेआपमे अनूठा है. इसलिय हर घड़ी हर पल हमें क्या करना है कैसे करना है इसका निर्णय हमें स्वयं ही करना चाहिए. माता पिता मित्र या साथी सिर्फ सलाह ही दे सकते है. उस में से किसकी सलाह माने और किस हद तक ये काम हमारा ही है.
हम क्या कर्म करे ये एक निजी चुनाव है. कुछ कर्म हमें मजबूरी  में करने होते है और कुछ निर्णय हम अपनी मर्जी से ले सकते है. शायद ही कभी ऐसा हो कि सारी मजबूरियां किसी एक के सर पर बैठी हों (कोई कितना भी गरीब और लाचार क्यों न हो)  और कोई हर निर्णय के लिए आजाद हो (कोई चाहे बिल गेट या बराक ओबामा क्यों न हो ) .
चित्र -आभार - Pleasure Gait Farms
           

प्यार या उलझाव ?

स्वस्थ प्रतिक्रिया  -
अजय को उसके मित्र ने एक इलेक्ट्रिक शेवर  गिफ्ट  किया  जो  वह  आमेरिका  से लाया  था  . मेने  पूंछा  , ' अजय , कैसे महसूस कर रहे हो विदेशी रेज़र से दाड़ी बना कर?'
वह बोला ,'यार,दाढी तो बन जाती है पर मजा नहीं आता ,जैसे टोइलेट पेपर को इस्तेमाल करके पूरा आनंद नहीं आता. अपन को तो देसी रेज़र ही भला.'
अस्वस्थ प्रतिक्रिया -
मोनू को पंजाबी खाना पसंद  है और चाइनीज खाना उसे बिलकुल नहीं भाता. उसके एक जानने वाले ने एक पार्टी दी जिसमे खाना चाइनीज था. बस फिर क्या था, पूरी पार्टी के दौरान मोनू चाइनीज खाने की बुराई करता रहा. हालाँकि रेस्त्र्रा का स्टाफ और माहोल बड़ा अच्छा था पर मोनू ने उनकी कमी निकलने मै कोई कसर नहीं छोडी. उसने न सिर्फ पार्टी का माहोल ख़राब किया बल्कि अपने होस्ट को भी परेशानी मै डाला.

अजय और मोनू दोनों ने लगभग एक सी स्थिती का सामना किया -'जो उपहार उन्हें मिला वो उन्हें पसंद नहीं था'. पर दोनों की प्रतिक्रिया बिलकुल उलट थी. इनमे ये अंतर  थे-

१.अजय ने अपनी नापसंगी जाहिर करते समय दूसरे की पसंद मै कमी नहीं निकाली जबकि मोनू ने ऐसा ही किया.
२. अजय ने अपनी नापसंदगी को कोई मुद्दा न बनाते हुए स्वाभाविक रूप से टिप्पणी की,जबकि मोनू ने अपनी नापसंदगी को ही ख़ास मुद्दा बना कर चुभती  हुई  बातें की.

हमें जीवन में क्या मिलता है ये हमारे हाथ में नहीं, पर हम उस घटना पर क्या प्रतिक्रिया करे, ये पूरी तरह से हमारे हाथ में है. फिर क्यों कुछ लोग जीवन में हर छोटी - बड़ी घटना को सहजता से ले लेते हैं और क्यूँ कुछ लोग उन्हें ही मुद्दा बना कर माहौल ख़राब करते रहते है, खास कर जब कोई बात उनके मन की न हो.

असल में अगर हम अन्दर से कुछ कमी महसूस करते हैं और असुरक्षा तथा अविश्वास से भरे होतें है तो हमारी प्रतिक्रियाए भी स्वस्थ नहीं होती. कमी का यह अहसास कुछ ख़ास लोगों मै ही हो ऐसा नहीं है. अधिकतर लोग कमोबेश इस अहसास से गुजरते रहते है. ये एक बीमारी की स्थिति है. अग़र किसी के सामने ऐसी स्थिती अक्सर आती है तो उसका इलाज जरूरी है.

पर अफ़सोस, जब हम खुद इस स्थिति से गुजरते हैं तो हमें यह पाता ही नहीं चल पाता है कि कुछ गलत हो रहा है. पर जब हम बार बार अस्वस्थ प्रतिक्रियाएं करते है तो हमारे जानने  वाले हमारा सामना करने से बचते है. अगर हम अपने आप नहीं सुधारते तो लोग पीठ पीछे हमें तरह-तरह के नामों से बुलाना शुरू कर देते हैं.

जब तक आइना सामने न हो हम अपने आप को नहीं देख पाते, पर दूसरे हमें देख सकते हैं.
क्या आप किसी अपने को इस तरह की अस्वथता में घिरा देखते है?
अच्छा होगा अगर ऐसे मै हम उन से उलझाने की बजाय उन्हें वो दे जिसकी उनको सबसे ज्यादा जरुरत है - प्यार और विश्वास.    
चित्र -आभार - Pleasure Gait Farms
           

सारी दुनिया को बेच डालूँगा

बेचनलाल जी बचपन के मित्र है. तीन साल पहले तक सेकिंड हैण्ड खटारा स्कूटर को घसीटते घूमते थे. अब न जाने कैसे उनका कायापलट हो गया है. पांच गाड़ियों और दो फ्लैट के साथ आलीशान आफिस है. बड़ा काम है और नाम भी.
कुछ दिनपहलेउनके आफिसमै जाना हुआ,तोपूंछने  'लगे ,'क्या कर रहे हो,आजकल ?' मैंनेकहा ,'जिन्दगी  भर अफसरी की है अब रिटायर्मेंट के बाद काम तो बस का नहीं. पर तुम्हारी भाभी को खर्चा करने की जो लत लग गयी है लगता है दिवालिया बन जाऊंगा.'
उन्होंने सुझाया ,'कुछ बेचते क्यों नहीं'. मेने घबरा कर कहा , 'अब इस उम्र मै ये क्या बस का है'. वो बोले,' अजी आपको क्या करना है, चार पांच लडके/लड़किया रख लेंगे.मैंने फिर घबरकर कहा,'अरे यहाँ अपने खाने के लाले पड़े है,उन्हें तनखा कहाँ से दूंगा ? वो बोले, तनखा की बात तो एक महीने बाद आयेगी. और फिर उनको तनखा तो अपना सेल्स टार्गेट पूरा करने के बाद ही मिलेगी.और फिर दो तीन हफ्ते तो ट्रायल के नाम पर ही घसीट जायेंगे. मेने पूंछा,'वो लोग मान  जायेंगे?' वो बोले,'नौकरी का एक इश्तहार लगा कर तो देखो,कैसे लोगों का सैलाब टूट पड़ता है.और भला हो इस मंदी का, बड़े बड़े इंजिनियर और ऍम बी ए सस्ते मै मिल जाते है.' मैं अब तक आशवस्त नहीं  था ,पूछा ,'इनके लिए आफिस कहाँ से लूँगा? उन्होंने कहा,'कमाल करते है आप भी. आजकल बड़ी बड़ी कंपनी मार्केटिंग स्टाफ को आफिस नहीं देती तो हमें क्या जरूरत है.हां,ये पहले ही साफ़ कर देना कि मोबाइल और बाइक उन्हें अपने पास से लानी होगी. आपको तो बस शाम को रिपोर्ट  लेना है. '
मेरी जिज्ञासा अब बढ गयी थी,सो कहा,'पर बेचन भाई,मै बेचूंगा क्या?' उन्होंने तुरंत अपने लैपटॉप पर एक पेज खोल कर सामने कर दिया और बोले ,'अपने पास हजारों प्रोडक्ट है- बिंदी से लेकर हेलीकाप्टर तक. बस आपको अपना मनपसंद आइटम चुन लेना है. अपना  क्या है हमें तो बेचने और खरीदने वाले दोनों तरफ से जरा जरा सा कमीशन मिलता है -दाल रोटी चल जाती है. पर यहाँ तो घर की बात है, स्पेशिअल रेट लगाऊंगा.'
मुझे अब तक नहीं समझ आ रहा था कि ये सब इतना ही आसान है.मेने फिर पूंछा ,ग्राहक मिल जायेंगे इन सब के लिए?' वो बोले, हमने घास थोड़ी खोदी है, धंधा करते है. अपनी जरुरत के मुताबिक लोगों के फोन नंबर थोक के भाव आसानी से मिल जाते है बाज़ार मै. बस रोज हर स्टाफ को सौ सौ नाम पकड़ा दो, उन्हें ग्राहक बनाना तो उनका काम हे . और फिर उनका अपना भी तो कुछ सर्किल होगा -वो कब काम आयेगा? काम अच्छा चल गया तो एक सस्ता सा कमपूटर दिलवादुंगा और हजारों ई मेल एड्रेस भी,एक लडके को इस पर भी बैठा देंगे.और काम बढ गया तो तुम अपनी वेबसाइट बना लेना.'

इस बीस मिनट के छोटे वार्तालाप में हमारे ज्ञान चशु खुल गए.लगा अभी तक बस खरीदारी करना ही सीखते रह गए, बेचना तो किसी ने सिखाया ही नहीं. धन्य हो बेचनलाल, तुम पहले क्यों नहीं मिले?           
चित्र जिफैनीमेशन द्वारा

कोई गाली बची है क्या या बीप से ही काम चलाना पड़ेगा?

मुझे एक फिल्म बनानी है ,पर मामला अभी नाम पर ही अटक गया है. आप कहेंगे 'नाम मै क्या रखा है'. पर ऐसा नहीं है जनाब.वर्ना क्यों एक सफल निर्मार्ता सिर्फ 'अ' से शुरू होने वाला नाम देकर इतनी सफल फिल्मे दे पाते और एक और सफल निर्मार्ता तीन K  वाले अक्षर ही अपनी फिल्मो के नाम मै डालते. और भला क्यों कई सफल निर्मार्ता अपनी फिल्मों के नाम की 'स्पेल्लिंग' इस कदर बदल डालते है कि  'अंगरेजी ' की टांग ही टूट जाती है.

भय्या सबके अपने अपने विश्वास है और अपनी अपनी मान्यता. मैं जिस पंडित पर विश्वास करता हूँ उन्होंने मुझे कहा है कि फिल्म का नाम एक धांसू सी गाली ही होना चाहिए अगर हिट होना है तो.  


खाली पंडित जी के विश्वास की बात नहीं है. मैंने खुद इस बात पर रिसर्च की तो देखा कि पंडित जी की बात में वजन है. अब चाहे 'कमीने' की सफलता को देखलो यफिर याद कीजिये 'लोफर','जंगली','जानवर','बेईमान','लफंगे',ढोंगी','चालबाज'   की दुआधार सफलताओ को.अगर फिल्म का नाम ही चटपटी गाली से शुरू हो तो लोगों को कितना मजा मिलता है चटखारे लेकर बातें करने का. इस सफलता के मन्त्र को अब में नहीं छोड़ने वाला .

पर लगता है हम्मरे फिल्म निर्मार्ता भी इस बात से बेखबर नहीं. कोई गाली छोडी ही कहाँ उन लोगो ने जिस पर फिल्म न बनी हो.अब बची हैं तो सिर्फ मां-बहन वाली गलियां जिस पर मेरे जैसा दुस्साहसी तो शायद फिल्म बना जाये पर हमारा 'सेंसर' इतना जागरूक हो गया है कि नाम कि जगह 'बीप' सुना देगा.    
 कोई गाली बची है क्या या बीप से ही काम चलाना पड़ेगा?

जिंदगी का गणित



प्रशन - एक तौलिया अगर एक घंटे मै सूखता है तो १० तौलिये कितनी देर मै सूखेंगे ?
उत्तर- १० घंटे.
प्रश्न -एक मजदूर एक गड्डे को १०  घंटे मै खोदता है तो १० मजदूर उसे कितनी देर मै खोदेंगे ?
उत्तर -१० घंटे.

गणित की द्रष्टि से ये जबाब बिलकुल सही लगते है पर व्यावहारिक जीवन में  हमें ये गणनाये इस तरह से समझ में  आती है-

एक तौलिया हो या १०, सुखाने मै एक घंटा ही लगेगा, बस सुखाने के लिए जगह होनी चाहिए.
गड्डा अगर इतना बड़ा कि १० मजदूर एक साथ काम कर सके तो शायद एक घंटे मै काम हो जाय. वर्ना अगर गड्डा छोटा है और मजदूर मिलकर बात करने लगे या यूनियन बना लें तो फिर भगवान की मालिक है.

अफ़सोस , कूछ लोग कोरी किताबी बातों के आधार पर बड़ी बड़ी योजनाये बना लेते है और वांछित परिणाम न मिलाने पर उस विद्या को ही कोसने लगते है जिसका सहारा लेकर उन्होंने ये गणनाये की है. 

यहाँ ध्यान  देने योग्य बात यह है कि -
१. जब हम कोई फार्मूला लगा कर परिणाम निकलते है तो ये माना जाना चाहिए कि और सब बातें वेसी ही रहेंगी ,उनमे कोई बदलाव नहीं होगा. पर अक्सर इस बात को भूल कर हम बस फोर्मुले के परिणाम को ही ध्यान में रखते है. इस परिणाम को हमें व्यावहारिक द्रष्टि से सोच कर जो वातावरण की और चीजे इस पर असर डालेंगी और जिनका हम अनुमान लगा सकते है, उसके हिसाब से परिवर्तित करके देखना चाहिए.
२. किसी दूसरे व्यक्ति की योजना पर अमल करने से हमें भी वैसे ही  परिणाम मिले ये जरूरी  नहीं, बल्कि इसकी उम्मीद भी  नहीं रखनी चाहिए. हर व्यक्ति की क्षमता और परिस्थिती अनूठी है.
३.योजना बनाते समय हमें ख़राब  से ख़राब परिस्थिती का विचार करके निर्णय लेने चाहिए. अगर परिस्थिति अनुकूल रहेंगी तो परिणाम गणना  से अधिक होंगे ,और हमें खुशी भी देंगे.
४. जो लोग हमेशा ही कुछ न कुछ गणना करते रहते है वो जीवन के आनंद से वंचित रह जाते है. जिन्दगी जीने या अनुभव करने के लिए है ,इसे हर वक्त गणनाओ मै उलझाकर इसका स्वाद ही चला जाता है.    

चित्र जिफैनीमेशन द्वारा

सौतन

 मै उसके साथ अपना ज्यादा से ज्यादा समय बिताता हूँ  और बिताना चाहता हूँ . अक्सर ये   अवसर मुझे रात मे ही मिल पाता है . उसके साथ कटी कई रातों की यादें मेरे साथ है.
 मेरी पत्नी उससे इर्ष्या कराती है.
उसे मैं अक्सर अपनी गोदी मे लिटाता   हूँ  ,वह इसी के लिए बनी है.
में जब भी उसके साथ होता हूँ, उसे घूर घूर कर देखना नहीं छोड़ता.
अक्सर में अपनी उँगलियों से उसको थपथपाता रहता हूँ. उसके एक ख़ास अंग को दबा कर मेरे बहुत से काम होते है.
उसके साथ और उसके जरिये ही में कल्पनाओं की ऊँची उडान भरता हूँ.
दुनिया जहाँ की मौज मस्ती और जानकारी का लुत्फ़ में उसके जरिये ही तो उठाता हूँ.
में उसका दीवाना हूँ. जब में उसके साथ व्यस्त होता हूँ तो मेरे जानने वाले मुझे नहीं छेडते क्योकि उन्हें मालूम है कि में इसे पसंद नहींकरूंगा .हाँ कुछ लोग मजाक में शिकायत जरूर करते हैं कि में इतना वक्त उसके साथ क्यों बिताता हूँ और दोस्तों के साथ क्यों नहीं.
वो मेरे हर काम में मेरी बड़ी मदद करती है.  मेरी पसंद की ढेर सी चीजों को वह बड़ा सम्हाल आकर रखती है.
सारी दुनिया की रंगीनियाँ उसकी रग़ रग मे समाई हैं.
 उसका शरीर पतला और हल्का है पर में चाहता हूँ कि ये और हल्का  हो जाये.
उस पर में काफी खर्चा करता  हूँ जो मेरे बीबी - बच्चों को पसंद नहीं है.

.................... में जिसकी बात कर रहा हूँ वह है मेरा 'लैपटॉप'.
आप क्या समझ रहे थे ??

आत्मा की प्रोफाइल को चाहिए शारीर का हार्डवेयर

एक टीवी शो 'राज पिछले जन्म का'(एन दी टी वी इमेजिन )   आजकल चर्चा में है.
इसमे रिग्रेशन थेरेपी से किसी व्यक्ति को उसके पूर्व जन्म की यादों में लेजाकर उसकी समस्या का निदान करते हैं .
पूर्वजन्म होता है या नहीं यह एक पहेली ही है और इसके जबाब में दुनिया बंटी हुई है ,
मैं व्यग्तिगत रूप से पूर्वजन्म पर पूरी तरह विश्वास नहीं कर पाता, पर यहाँ एक तर्क प्रस्तुत करना चाहता हूँ ,जिससे उनके ज्ञान चक्षु खुल सकते हैं जो इस तरह के सवाल करते हैं-

आत्मा अगर है तो दिखाओ कहाँ है ?
जब पिछले जन्म का शरीर ही नहीं रहा तो उसकी यादें कैसे बाकी रह सकती है. 

इस बारे में  मेरी सोच कुछ इस तरह है-

मेरा आई सी आई सी आई बैंक में एक  खाता है .इस खाते में जो भी लेनदेन या इससे जुडी किसी सूचना में कोई बदलाव होता है तो वो मेरी प्रोफाइलमें रिकॉर्ड  हो जाता है.
अब ये प्रोफाइल कोई वास्तविक चीज नहीं है जिसे आप छू सके, पर इसका अस्तित्व है. ये वास्तव में बैंक के सर्वर की मेमोरी इधर उधर बिखरे हुए सूचना के कई हिस्से है जिसे सही आदेश देने पर कंप्यूटर हमें जोड़ कर दिखने की क्षमता रखता है.सर्वर की  व्यवस्था कुछ इस तरह होती है कि जिस माध्यम या मीडिया पर सूचना दर्ज रहती है वो अगर नष्ट भी हो जाय तो भी सूचना नष्ट नहीं होती.इस तरह नश्वर मीडिया पर रह कर भी प्रोफाइल अमर बनी रहती है.  
प्रोफाइल को (पूरा या आंशिक रूप से ) जानने के लिए हमें एक हार्डवेयर (या आम भाषा में कम्पुटर ) की जरूरत होगी . ये हार्डवेयर ऐ टी ऍम मशीन हो सकती है या बैंक में लगा कोई टर्मिनल या फिर इन्टरनेट से जुड़ा आपका लैपटॉप हो सकता है. किसी न किसी माध्यम ( हार्डवेयर ) के द्वारा ही आप किसी प्रोफाइल की जानकारी ले सकते हैं. इस हार्डवेयर के जरिये ही हम अपनी प्रोफाइल में कोई बदलाव या लेनदेन कर सकते है.इस हार्डवेयर का असल काम होता है आपको सर्वर से जोड़ देना. 
अगर  कंप्यूटर जैसी साधारण मशीन को लेकर हम ऐसी व्यवस्था बना सकते हैं, तो इंसानी 'शरीर और दिमाग' से जो इन कंप्यूटर से कहीं ज्यादा उम्दा तकनीक पर आधारित हैं, इस तरह की व्यवस्था का अस्तित्व भी संभव है.
ये बिलकुल हो सकता है कि हम किसी भी शरीर से जो भी कर्म करें उनका लेखा जोखा एक प्रोफाइल की तरह बचा कर रखा जा सकता है एक व्यवस्था के तहत चाहे शरीत नष्ट होते रहें . और इस प्रोफाइल को जाना भी जा सकता है वर्तमान शरीर के माध्यम से ही बस आपके पास योग्यता और व्यवस्था होनी चाहिए इसे करने की और उस शरीर के मालिक की आज्ञा ऐसा करने की . 

घूँट घूँट जीना


परिचय - सच का सामना  

करीब ३० साल पहले, कालेज के दिनों में एक  कड़वी चीज से  दोस्तों ने परिचय कराया . उसका नाम है शराब .
घर  पर रुढ़िवादी माँ  बाप  इसे  बुरा समझते   थे. पर  पुराने पियक्कड़ो ने इस नए नए इन्जीरेअरिंग कालेज के  बकरे को तरह तरह से उकसाया और ललचाया . पुराने  खिलाडियों और सीनिअरो   के मजाक उड़ाने के डर से इस कडवाहट को पीकर  हम ऐसा दिखाते रहे मनो ये कोई अमृत है. मगर मैं  इससे दोस्ती न कर सका ठीक से.  

कई साल बाद जब मैं  जब भारतीय सेना में  अफसर की हैसियत से शामिल हुआ, तब  मुझे शराब  का असली  लुत्फ़  लेना आया. जब सोचता हूँ तो इस बदलाव के कई कारण नजर आते है -

१. पूर्वाग्रह नहीं - हालाँकि सामान्य धारणा के विपरीत भारतीय सेना में बहुत से लोग शराब नहीं पीते, पर शराब
 को लेकर यहाँ सिविलियनों की तरह पूर्वाग्रह नहीं हैं. 'शराब बुरी है' या 'शराब के बिना भी कोई जिंदगी है' -इस तरह के दो खेमों में न बट कर शराब को सहजता से जिंदगी में स्वीकारते है -पीने वाले भी और ना पीने वाले भी.
२.धीरे धीरे पीना - गिलास पकड़ते ही तेजी से हलक में ठूंसने के बजे यहाँ इसे अधितर लोग बड़े आराम से पीते हैं.
३.पानी  या सोडा ?- अधिकतर लोग शराब की कडवाहट को कम करने के लिए इसमे  कुछ मिला कर पीते हैं .'नीट' और 'कोकटेल' पीने वाले भी हैं पर चुनिन्दा.
४.चुनाव- अपना 'जहर' खुद चुनने का मौका यहाँ ज्यादा है .
५.शराब तो बहाना है बस पार्टी मानना है - दिन भर की थकान के बाद (कभी  कभी इसके बीच) जब मौका मिला पार्टी मना  डालते है कोई बहाना ढूंढ कर. अगर कोई भी न मिले तो 'जाम' ही साथी है.

आज जब सेना से रिटायर्मेंट लेकर लेखक बनने का फैसला किया है तो एक सवाल ने काफी परेशान किया - 'सच लिखें या मन की?
'जिंदगी में सच्चाई अक्सर कड़वी होती है' ऐसा सुना है और अनुभव भी किया है.
तो क्या इस कडवाहट के डर से हम सच से आंखे चुराकर जीने लगें या इस कड़वी दवा को पीकर अपना मुंह बिगाड़ते रहें?
इस सच की कड़वाहट से निपटने के लिए मैंने वही फ़ॉर्मूला लगाने की सोची है जिससे मैंने शराब का मजा लेना सीखा.
इस ब्लॉग पर मैं अपने छोटे छोटे कड़वे सच्चे अनुभवों को मजा लेकर धीरे धीरे  लिखूंगा .
 इसमे सच के कड़वे अंश भी होंगे और कल्पनाओं की मीठी उडान भी.
अब तो घूँट घूँट जीना है .

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