कांग्रेस और भाजपा पार्टी ने अभी अपने प्रधानमंत्री पद के दावेदार का खुलासा
किया नहीं पर पुछ्लग्गों ने मोदी बनाम
राहुल की जंग भी शुरू कर दी
और मीडिया इसे हवा देने से बाज नहीं आ रहा.
समझ में नहीं आता कि लोग अपने इलाके के उम्मीदवार को वोट देते है या भावी
प्रधानमन्त्री को ? हर कोई जानता है कि संविधान के अनुसार बहुमत वाली पार्टी अपना
नेता चुनाव के बाद चुनती है.
पर हम तो किसी करिश्माई फ़रिश्ते को देखने सुनने के आदी हो चले है. हमारी आंखे तरस रही हैं
कि अरबों लोगों के बीच में से कोई मसीहा कोई अवतार प्रकट होगा जो जादू से सबकुछ
ठीक कर देगा.
श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय
४) के श्लोक
यदा यदा ही
धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत
अभ्युत्थ्ससनमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्
अभ्युत्थ्ससनमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्
के अनुरूप हम उम्मीद पर टिके रहते हैं कि
....जब जब होता नाश धर्म को पाप बहुत बढ़ जाता है
तब लेते अवतार प्रभु ये विश्व शांति पाता है.
इस चक्कर में हम सब का जो नुक्सान होता है कि बेचारे भले लोग चुन कर संसद तक
पहुँच ही नहीं पाते. भले लोग एक तो राजनीति से दूरी बनाये रखना चाहते है ,और अगर कोई आना भी चाहे तो तो
चुनाव का टिकट मुश्किल से मिलता है और फिर खोखले वादों के चुनावी उन्माद में लोग
अपने इलाके के उम्मीदवार की बजाय पार्टी को वोट देना पसंद करतें है. कम से कम पढ़े
लिखे और समझदार लोगों को तो अपने इलाके के
उम्मीदवार को देख समझ कर ही वोट देना चाहिए.
ये सही है कि कई बार नागनाथ और साँपनाथ में से सही चुनाव मुश्किल होता है और
ये भी सही है कि अक्सार सत्ता पाकर अच्छे अच्छों का ईमान डोल जाता है पर क्या हम
मतदाता के रूप में अपनी तरफ से कोई कोशिश भी करते है इस बारे में ?
क्यों ना इस बार एक कोशिश कर के देख लें?
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