सिनेमा-अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम

 भारत सरकार के केंद्रीय हिंदी निदेशालय की पत्रिका 'भाषा' के जुलाई /अगस्त २० अंक में मेरा आलेख 'सिनेमा-अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम' प्रकाशित हुआ ।   






जब करोना को रोना आया

 


एक बार किसी सूनसान जगह पर दो करोना वाइरस टहल रहे थे

दोनों ही उस जगह पर किसी इंसान के आने का इंतजार कर रहे थे

दोनों ने वक्त काटने के लिए एक दूसरे से बात करना शरू किया

और इस तरह उन दोनों ने अपनी - अपनी बोरियत को दूर किया

एक  बोला, ' कल की रात मैंने खुले आसमान के नीचे ही बिताई

अब तो जल्दी से कोई इंसान का बच्चा कहीं दिख जाये मेरे भाई 

दूसरा बोला मित्र तुम चाहे किसी की भी नाक में घुस जाना

पर भूल से भी किसी लेखक के पास कभी भी मत जाना 

मैं भुक्तभोगी हूँ , इसलिए अपने अनुभव से बता रहा हूँ

अपनी व्यथाकथा बता कर तुम्हें सही रास्ता दिखा रहा हूँ

इनसे बचाकर रहना क्योंकि इन्हें हर जगह

नाक घुसा कर सूंघने की बीमारी है

एक लेखक की इसी बीमारी का शिकार हो कर मैंने

एक बड़ी दुःख भरी जिन्दगी गुजारी है

 

तुम तो जानते ही हो हम वायरस लोग पहले दो-तीन दिन साइनस-कैविटी में बिताते है

और किसी भी इंसान के शरीर की इस सबसे कूल जगह पर खूब मौज मस्ती मनाते हैं 

पर मैंने देखा कि लेखक के अंदर की इस जगह में तो एक अजीब सी गर्मी थी

और यह जगह औरों की तरह शरीर की सबसे कूल जगह बिलकुल भी नहीं थी

वह सूंघ कर इकट्ठे किये हर एक आइटम को

अपने विचारों के द्वन्द से सता रहा था 

 उन्हें कभी इधर तो कभी उधर से देख कर

 पता नहीं क्या खिचड़ी पका रहा था

उसने मुझे भी देखा , पर काम की चीज न समझ कर

दूसरों के पैरों की ठोकर खाने के लिए वहीं पड़ा रहने दिया

घबरा कर जब मैंने वहां से नीचे जाना चाहा

तो वहां की उठा-पटक ने  मुझे नीचे ही नहीं सरकने दिया

 

3 की जगह 13 दिन बिताकर जैसेतैसे

फिर मैं थोड़ा नीचे गले तक आ गया

यहाँ की हालत तो ऊपर से भी बुरी थी

हर तरफ शब्दों की झड़ी लगी हुयी थी

न जाने कितनी कहानियां और कवितायेँ 

बाहर निकलने को तड़प रही थी  

अपने इस उन्मांद में इस भीड़ ने मुझे

अपने पैरों तले रोन्द डाला

और मेरे फेंफड़े तक के सफर को

बेहद मुश्किल बना डाला

जैसे तैसे अनगिनत ठोकरें खा कर

मैं जब उस इंसान के फेफड़े तक सरक आया

तो वहां गड़बड़झाले का एक अजीब मंजर पाया

गले में जैसे शब्दों का अम्बार लगा था

इसी तरह उसका दिल तरह तरह की भावनाओं से भरा था 

और आदमियों के तो दिल से खून बह कर फेफड़ों में आता है

पर इसका दिल तो भावनाओं के दम पर ही धड़क रहा था

और थोड़े से खून के साथ कितनी ही भावनाओं को फेफड़ों में पटक रहा था

भावनाओं के उस दंगल से मैंने कैसे निजात पाई

इसे तो मेरा दिल ही जनता है मेरे भाई 

आम इंसानों के फेफड़ों में तो हम लोग फ़ैल कर रहते हैं  

पर लेखक के गले में उछलकूद करती भावनाओं ने मुझे सिमटा डाला 

अब मैं इतना डर गया हूँ कि

हर लेखक से दो फिट की सोशल डिस्टेंस रखता हूँ

मेरे अनुभव से अगर तुम्हें फायदा उठाना है

तो तुम्हें भी लेखकों से दूरी बनाना है


Photo by Josh Hild from Pexels

 

अविरल प्रवाह

 छत्तीसगढ़ से प्रकाशित होने वाली 'अविरल प्रवाह' पत्रिका में मेरी रचनओं को भी स्थान मिला



अमीरों का देश

 मेरी यह रचना साहित्य समीर दस्तक पत्रिका में प्रकाशित हुयी 








My new eBook