साँस लेना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जिसे हम जन्म के समय से बड़ी सहजता से करना शुरू करते हैं. इसमे साँस के अंदर जाने और बाहर आने में एक लय बनी रहती है. पर जैसे जैसे हम बड़े होते हैं और मानव निर्मित समाज में जीने के पैंतरे सीखते जाते हैं ये लय बिगडती जाती है.
आमतौर पर हम यह देखते सीखते बड़े होते हैं कि जब कहीं से कुछ लेने की या हासिल करने की बात होती है तो हम उसके लिए बड़ी जुगत भिड़ाते हैं, जतन करते है पर देने के नाम पर एकदम कंजूस बन जाते हैं और बड़े सोच विचार कर के मरे मन से देते हैं. ऐसा करना हमारी आदत बन जाता है और जीवन के हर पहलू पर ये सोच ही हावी हो जाती है ,सांसो के लेने और देने पर भी. हम सांसो को भीतर तो खींच लेते हैं पर बार छोडते वक्त कंजूसी कर बैठते हैं . इससे हमारी सांसे छोटी और उथली होती जाती हैं और फेंफडो को पर्याप्त मात्र में हवा नहीं मिल पाती.
योग में कपालभाती प्राणायाम करके इस दोष को सुधार जा सकता है. इसमें हम पूरा जोर लगा कर सांसो को बाहर निकालते हैं. साँस अंदर खींचने के लिए कोई प्रयास नहीं करते. इतनी सी क्रिया मात्र से बाहर की हवा के अधिक मात्रा में अंदर जाने का रास्ता अपने आप ही खुलता जाता है बिना उसके लिए प्रयास किये हुए . ये इस लिए होता है कि जब हम जोर से हवा बाहर फेकते हैं तो वायुमंडल के दबाब के कारण उतनी ही जोर से बाहर की हवा फेंफडो में हुए निर्वात को भरने अपने आप ही खिंची आती है.
कपालभाती शारीरिक तल पर दोष दूर करने का एक व्यायाम मात्र ही नहीं है. इसके अभ्यास से धीरे धीरे हमारी सोच और व्यक्तित्व भी प्रभावित होता है. हम जीवन के हर पहलू में लेने के साथ देने के महत्त्व को भी पहचानने लगते है. धन दौलत ,ताकत या मनोरंजन के नाम पर हमने जिन चीजों को जरूरत से ज्यादा मात्र में इकठ्ठा किया होता है ,सांसों की तरह उसे भी छोडने का प्रयास शुरू हो जाता हैं. और सांसों की तरह जब हम अपने पास से किसी चीज को वातावरण में देते हैं तो वह चीज अपने आप वातावरण से हमारी तरफ आना शुरू हो जाती है बिना हमारे प्रयास किये हुए. इस तरह जो चीजे हमारे जीवन में आने लगती है वो नए नए रूप में होती है और ये नयापन जिंदगी में रंग भरकर उसे और खुशनुमा बना देता है.
आमतौर पर हम यह देखते सीखते बड़े होते हैं कि जब कहीं से कुछ लेने की या हासिल करने की बात होती है तो हम उसके लिए बड़ी जुगत भिड़ाते हैं, जतन करते है पर देने के नाम पर एकदम कंजूस बन जाते हैं और बड़े सोच विचार कर के मरे मन से देते हैं. ऐसा करना हमारी आदत बन जाता है और जीवन के हर पहलू पर ये सोच ही हावी हो जाती है ,सांसो के लेने और देने पर भी. हम सांसो को भीतर तो खींच लेते हैं पर बार छोडते वक्त कंजूसी कर बैठते हैं . इससे हमारी सांसे छोटी और उथली होती जाती हैं और फेंफडो को पर्याप्त मात्र में हवा नहीं मिल पाती.
योग में कपालभाती प्राणायाम करके इस दोष को सुधार जा सकता है. इसमें हम पूरा जोर लगा कर सांसो को बाहर निकालते हैं. साँस अंदर खींचने के लिए कोई प्रयास नहीं करते. इतनी सी क्रिया मात्र से बाहर की हवा के अधिक मात्रा में अंदर जाने का रास्ता अपने आप ही खुलता जाता है बिना उसके लिए प्रयास किये हुए . ये इस लिए होता है कि जब हम जोर से हवा बाहर फेकते हैं तो वायुमंडल के दबाब के कारण उतनी ही जोर से बाहर की हवा फेंफडो में हुए निर्वात को भरने अपने आप ही खिंची आती है.
कपालभाती शारीरिक तल पर दोष दूर करने का एक व्यायाम मात्र ही नहीं है. इसके अभ्यास से धीरे धीरे हमारी सोच और व्यक्तित्व भी प्रभावित होता है. हम जीवन के हर पहलू में लेने के साथ देने के महत्त्व को भी पहचानने लगते है. धन दौलत ,ताकत या मनोरंजन के नाम पर हमने जिन चीजों को जरूरत से ज्यादा मात्र में इकठ्ठा किया होता है ,सांसों की तरह उसे भी छोडने का प्रयास शुरू हो जाता हैं. और सांसों की तरह जब हम अपने पास से किसी चीज को वातावरण में देते हैं तो वह चीज अपने आप वातावरण से हमारी तरफ आना शुरू हो जाती है बिना हमारे प्रयास किये हुए. इस तरह जो चीजे हमारे जीवन में आने लगती है वो नए नए रूप में होती है और ये नयापन जिंदगी में रंग भरकर उसे और खुशनुमा बना देता है.