नव संकल्प



पिछले साल की सुर्ख़ियों पर एक नज़र डालें तो एक से बढ़ कर एक घोटालों ही नज़र आएंगे .सालों दर साल होते आये इन घोटालों से लगता नहीं कि हमने कोई सबक सीखा भी है.

भ्रष्टाचार का मुद्दा इतना बिकाऊ और ज्वलंत है कि सब उस पर अपनी रोटियां सेक लेते है. मीडिया को सनसनी बनाने का और विपक्ष को सरकार की तंग खींचने का एक मोका दे जाता है हर घोटाले का पर्दाफाश. सरकार किसी एक को बलि का बकरा बना कर और जाँच कमेटी बिठा कर जनता के क्रोध से बच निकलती है. और जनता , जनता का क्या ,वो तो सनसनीखेज खबरों के नशे की आदी सी हो गयी है. हर नयी खबर पुरानी सभी सुर्ख़ियों को पीछे धकेल देती है जो जनता की कमजोर याददाश्त में आसानी से गुम हो जाती है और दिमाग फिर से तैयार हो जाता है एक नया झटका खाने के लिए.

क्या इस समस्या से निजात पाने के लिए वास्तव में कोई ठोस कदम उठानेवाला है?

जाँच के नाम पर मुद्दों की चीर-फाढ़ करने और विरोधियोंओ को नुक्सान पहुँचाने , चर्चा के नाम पर आरोप प्रत्यारोप करने या चटखारे लेने या एक बलि का बकरा ढूंढ भर लेने से समस्या का अंत नहीं हो जायेगा. ललित मोदी ,सुरेश कलमाडी या ए रजा को गद्दी से उतार कर क्या भ्रष्टाचार पर लगाम लग सकती है? अगर व्यवस्था जस की तस रहेगी तो कुछ और नए चहरे इनकी जगह ले लेंगे और आने वाले समय में अगर पकडे भी गए तो सुर्खियों बटोर कर फिर से मेले में शामिल हो जायेंगे लालू प्रसाद यादव और शीबू सरेन की तरह.

शल्य क्रिया तो वैसे भी सिर्फ आपात्काल से निबटने का एक तरीका है आखिरी उपचार नहीं. बार बार शल्य क्रिया कर के बीमारी का इलाज करते करते शायद एक दिन मरीज का अस्तित्व ही समाप्त हो जाय. और इस तरह के इलाज से हासिल भी क्या होगा?

कुछ करने की बात अगर करें तो ऐसी प्रतिक्रियाएं मिलाती है-

सारा सिस्टम ही भ्रष्ट है, हम क्यों ज़माने से हट कर चलें .

अकेला चना भांड नहीं फोड़ सकता .

कौन पंगा ले?

रिश्वतखोरी का खेल अकेले नहीं खेला जा सकता. इसमें दो टीम होना जरूरी है –एक रिश्वत देने वाला और दूसरा उसे खाने वाला और कानूनन दोनों ही बराबर के जिम्मेदार है. हर नया खिलाड़ी (खास कर रिश्वत देने वालों की टीम में) जब इस खेल में पहली बार शामिल होता है तो अपने को मज़बूर समझता है. बात चाहे रेलवे में टी टी से बर्थ लेने की हो या किसी फेक्ट्री का लाइसेंस लेने की ,थोड़ा सा खर्चा करना आसान लगता है और सीधे रस्ते पर चल कर झंझट या जोखिम लेना मुश्किल लगता है.

रिश्वतखोरी को रोजमर्रा की जिन्दगी का हिस्सा हम सबने मिल कर बनाया है. सौ दो सौ या हजारों की रिश्वत लेते देते कुछ लोग एन केन प्रकरेण घिसट घिसट कर उच्च पदों पर पहुँच ही जाते है.फिर करोडों डकारने में उन्हें कोई परेशानी नहीं होती. बल्कि इस स्तिथि में वे ये काम डंके की चोट करने लगते हैं और अपने पिल्लै भी पाल लेते है. जरूरत और आपूर्ति के इस खेल में देने वाले ज्यादा होते और लेने वाले गिने चुने ,तभी तो उनके भाव बढते ही जाते हैं.

आज के हालातों में रिश्वत देने की स्तिथि में फंसे किसी व्यक्ति से यह उम्मीद रखना तो अव्यवहारिक लगता है कि वह उस वक्त रिश्वत न देने के पक्ष में रखे गए किसी भी तर्क को विशेष महत्त्व देगा. हालाँकि यही आदमी बाद में रिश्वतखोरी पर हुई चर्चा में बढ चढ़ कर हिस्सा लेता है और सिस्टम पर या कुछ लोगों पर दोषारोपण कर के अपना जी हल्का करने में देर नहीं करता.

पर आज भी हमें अपने आस पास कई बार ऐसी शक्सियत मिल ही जाती हैं जिनके पास रिश्वत लेने का मौका तो होता है पर वो उसे भुनाते नहीं बल्कि बड़ी ईमानदारी से वही करते हैं जो उन्हें सही दिखाई देता है.

रिश्वत देते देते हम चाहे कितने ही कमजोर क्यों न हो गए हों ,ऐसे चेहरों से सामना होने पर हम उन्हें सहारा/ बढ़ावा तो दे ही सकते है.

ऐसे लोगों के प्रति , ‘बेबकूफ है’, ‘मूर्ख है ‘, यो ‘कुछ नहीं कर पायेगा ज़िंदगी में बेचारा’ ,ऐसे नज़रिए को त्याग कर अगर इनके प्रति इज्ज़त का भाव ला सकें तो उससे एक नयी व्यवस्था के बदलाव की शुरुआत हो सकती है.

विचार और द्रष्टिकोण बदलने में कोई पैसा नहीं लगता. क्यों न कुछ ऐसे लोगों के मिलने पर उनकी तरफ इज्ज़त का भाव रखें और हो सके तो उनकी खुल कर तारीफ करें तिरिस्कार करने या मजाक बनाने की बजाय.

चित्र  saabhaar   FreeDigitalPhotos.net

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