जनसंचार माध्यम (मीडिया,सोशल मीडिया सहित), भाषा, व्यवहार, उत्तरदायित्व और नैतिकता

मेरा यह आलेख भाषा सहोदरी पत्रिका में प्रकाशित हुआ



जनसंचार माध्यम
हम  अपनी बात को किसी दूसरे तक दो तरह से पहुंचा सकते हैं- एक तो निजी/गुप्त रूप से या फिर सार्वजानिक रूप से। जब हम निजी रूप से किसी व्यक्ति या समूह से बात करते हैं तो इस विश्वास के साथ करते हैं कि उन बातों को सार्वजानिक नहीं किया जायेगा। इस तरह के संवाद में भावनाओं /शब्दों को खुल कर प्रयोग किया जा सकता है। किसी सन्दर्भ विशेष में समूह में ऐसे शब्दों या विचारों का भी प्रयोग किया जा सकता है जो सर्वमान्य रूप से वर्जित या अमर्यादित समझे जाते हों।
पर जब अपनी  बात सार्वजनिक मंच पर रखी जाती है तो उसमें मर्यादा का विशेष महत्त्व होता है। यह मर्यादा भाषा और व्यवहार दोनों पर लागू होती है । यही नहीं, विषयवस्तु का चुनाव भी मर्यादा के दायरे में आता है, खास कर इस बात की मर्यादा का किस विषय को सार्वजनिक होना चाहिए और किसे नहीं।
जब हम किसी विषय या विचार को सार्वजनिक पटल पर रखते हैं तो उसके श्रोताओं का दायरा अनंत हो सकता है। यह श्रोता निजी संवाद की तरह एक नैतिक व्यवहार सूत्र से बंधे नहीं होते। हर कोई अपनी समझ / परिस्थिति / जानकारी के दायरे में उस बात का अवलोकन करता है और अगर बात सोच समझ कर नहीं कही गयी है तो अर्थ का अनर्थ होते देर नहीं लगती।
आज से चार पांच दशक पहले तक जनसंचार के माध्यम के नाम पर पुस्तकें तथा समाचार पत्र  और पत्रिकाएं ही उपलब्ध थीं। पर कम्प्यूटर और इंटरनेट के आविष्कार ने तस्वीर को एकदम से बदल कर रख दिया है। अब आप सिर्फ कुछ देर उँगलियाँ हिला कर एक कहानी या लेख या फिल्म प्रकाशित कर सकते हैं जो दुनिया के हर कोने में बैठे लाखों -करोड़ो लोगों तक पलक झपकते ही पहुँच सकता है। और हर कोई आपको अपनी प्रतिक्रिया भी दे सकता है उसी गति से। विज्ञान का अनोखा चमत्कार है ये जो वरदान बन कर आया है।
पर इस वरदान में एक श्राप भी छुपा है। पहले लेखक / प्रकाशक या संपादक गिने चुने होते थे और  अपने काम को अंजाम देने में काफी सजग रहते थे।  पर अब क्योंकि एक सस्ता मोबाईल और इंटरनेट कनेक्शन लेकर कोई भी अपनी बात सारी  दुनियाँ के सामने रख सकता है ,हर कोई लेखक और प्रकाशक बन गया है। एक दम  से मिला हुआ इंटरनेट का खुला स्थान कुछ लोगों के अपने अंदर के विकारों की गन्दगी को बाहर निकलने का माध्यम भी बन गया है। संवाद स्तरहीन होकर विषय से भटक रहे हैं और तू-तू मैं-मैं बन कर रह गए हैं।
एक बड़ा नुक्सान ये भी हुआ है कि आम आदमी के लिए सच और झूठ में भेद कर पाना बेहद मुश्किल हो गया है। किस वक्तव्य के पीछे कौन अपना हित साध रहा है यह पता करना आमजन की सामर्थ्य से बाहर हो गया है। सूचनाओं का इतना अम्बार लगा है कि यह तय कर पाना लगभग असंभव है कि क्या सच है और क्या झूठ।
विज्ञानं द्वारा प्रदान की गयी इस आसुरी ताकत को अगर समय रहते नहीं रोका गया तो ये मानवजाति को ही निगल डालेंगी।

भाषा
आज की तेज रफ़्तार दुनियां की जरूरतों ने  भाषा का सरलीकरण कर डाला है और व्याकरण को पृष्ठभूमि में ला दिया है। एक से दूसरी भाषा में अनुवाद जहाँ मशीनों द्वारा त्वरित गति से हो जाता है वहीं इससे 'अर्थ का अनर्थ ' हो जाने का खतरा भी बढ़ गया है। आम बातचीत में प्रयुक्त होने वाले शब्द ही अब जनसंचार माध्यमों में प्रचुरता से दिखाई देते हैं और कई ऐसे शब्द भी धड़ल्ले से उपयोग किये जाने लगे हैं जिन्हें कुछ समय पहले सभ्रांत भाषा में नहीं माना जाता था।
कुल मिलकर भाषा का एक भड़काऊ और चालू स्वरुप देखने को मिलता है, जो एक चिंता का विषय है।
वैसे कंप्यूटर के इस दौर में भाषा का अपना महत्व भी कम होता जा रहा है। जहाँ तक संभव है फोटो या वीडियो का उपयोग अपनी बात कहने के लिए पसंद कर रहे हैं । यह अंग्रेजी की उस कहावत को चरित्रार्थ करता है जिसमें कहा  गया  है , ‘one picture is worth one thousand words’ , अर्थात एक तस्वीर एक हज़ार शब्दों के बराबर होती है।
व्यवहार

आज की दुनियाँ तीव्र गति से बदलती दुनियाँ है और तुरंत वांछित परिणाम चाहती है जिसके लिए लोग कुछ भी कीमत देने को तैयार हैं ।जो  कहा जा रहा है उसकी सत्यता इतना मायने नहीं रखती जितना कि उसके प्रभाव से प्राप्त होने वाला किसी का अल्पावधि हित । अनर्गल प्रलाप और शोर मचा कर भी लोग वांछित परिणाम प्राप्त कर रहे हैं। येन---केन - प्रकरेण बस उस समय कहे जा रहे बिंदु पर कुछ भी  तर्क प्रस्तुत कर देना और फिर उसे भूल जाना , अधिकतर लोग इस तरह के आचरण में लिप्त हो गए हैं। दूरगामी सोच लुप्त होती जा रही है है। 
जनसंचार माध्यमों के उपयोग में स्व-मर्यादित व्यवहार तथा व्यवहार में अनुशासन की जितनी आवश्यकता आज है, शायद इससे पहले कभी नहीं थी।
उत्तरदायित्व
जनसंचार माधयमों में तेजी से हो रहे परिवर्तनों को मुख्यधारा में सम्मानजनक स्थान देकर समाहित करने तथा इसे एक दिशा देने का उत्तरदायित्व बुद्धिजीवियों ,अध्यापकों,लेखकों तथा रचनाकारों का ही है जिसका निर्वहन उन्हें करना ही होगा। यूँ तो अनेक व्यक्ति व् मंच इस दिशा में प्रयासरत भी हैं पर जितना कुछ भी हो रहा है वह तेजी से खोती  जा रही मर्यादाओं की पुनर्स्थापना के लिए काफी नहीं है। इस तरह के प्रयासों को और सबल करने तथा उनमें तेजी लाने  की आज आवशयकता है।
नैतिकता
आज विज्ञान और तकनीक के प्रभाव ने समय और स्थान की दूरियों को मिटा कर वैश्विक स्तर पर हो रहे परिवर्तनों को सार्वजानिक कर डाला है जिससे नैतिकता के विषय में एक समस्या भी उत्पन्न हो गयी है। सदियों से बनाये नैतिकता के नियम बड़ी तेजी से बदल रहे हैं और नैतिकता की परिभाषा  भी हर कोई अपने हिसाब से ही गढ़ रहा है। नैतिकता का काढ़ा अब कोई पीने को तैयार नहीं है। स्तिथि बड़ी जटिल है और आज के बुद्धिजीवियों के लिए एक चुनौती बनी हुयी है।
क्या हम इस स्तिथि से कभी उबार पाएंगे ?
इसका प्रश्न का उत्तर तो वक्त ही बताएगा।

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