ढक्कन सिंह

ढक्कन सिंह का असली नाम क्या था शायद अब उसे भी याद न हो. सब उसे इसी नाम से बुलाते थे.
पार्टियों में वो अक्सर नज़र आता था. उसकी लच्छेदार बाते सुनाने के लिए उसे अकसर पार्टियों में बुलाया जाता था और कभी कभी वो बिना बुलाये भी घुसपेठ कर डालता था.
शराब पीने की नौबत आने से पहले ही उसे बस सूंघते ही नशा हो जाता था. एक ढक्कन पी कर तो वो आउट हो जाता था और इसीलिए उसका नाम ढक्कन सिंह पड़ा. 
बाकी लोगों की तरह वो किसी ख़ास ग्रुप के साथ नहीं रहता था बल्कि हर ग्रुप में आराम से घुल मिल जाता था.
सिचुएशन कोई भी हो उसके पास सुनाने के लिए एक मसालेदार कहानी या किस्सा रहता था और कभी कभी जब वो मूड में होता था फड़कता हुआ शेर भी सुना डालता था.
नाचने के लिए तो वो हमेशा तय्यार रहता था और अक्सर मटकता रहता था. बातें करते वक्त भी उसे चेहरे बना बना कर और हाथ हिला हिला कर बोलने की आदत थी.
उसको सबने हमेशा ही भीड़ के हिस्से की तरह देखा पर शायद बहुत कम लोगों को पता हो की वो अन्दर से कितना अकेला था. दूसरों को खुश रखता था और अपने गम भुलाता था. उसे अपने मा बाप का कुछ पता नहीं था . अनाथालय में उसका बचपन बीता और दूसरों की सेवा में लगना उसकी मजबूरी थी जिसे उसने अपना स्वभाव बना लिया था. वो एक सच्चा जोकर था वो जो हर हाल में दूसरों को हँसाता था.
ऐसे नमूनों को भला कैसे भुलाया जा सकता है.


ज्ञान गंगा या गटर ??

हजारों साल पहले गंगोत्री से जब गंगा की पहली धारा फूटी होगी तो कितनी पवित्र रही होगी!

जब ये बढ़ कर एक विशालकाय नदी बनती गयी तो हम इसका आन्नद उठाते रहे फिर इसके जल प्रवाह को आधार बना कर हमने अपने धंधे खड़े कर लिए और मुनाफे के लिए इसका दोहन शुरू कर दिया.

कहने को तो इसे माँ का दर्जा देते रहे पर साथ में हम अपनी सारी गन्दगी सारा कचरा भी इसी की गोद में खाली करते रहे.

इसकी सफाई के बारे में तो हम भूल ही गए थे
लापरवाही की सारी हदें हमने पार कर डाली और एक पवित्र नदी को गटर बनाने में हमने कोई कसर नहीं छोडी और अब ये नौबत आयी है कि सरकार भी असहाय सी दिख रही है.

ऐसा ही एक और धारा है जो आजकल बड़ी तेजी से हमारी जिन्दगी चला रही है
इस धारा का नाम है इन्टरनेट.

और इस ज्ञान गंगा के साथ भी हम ठीक वैसा ही सलूक कर रहे है जैसा हमने अपनी गंगा माँ के साथ किया .
कहीं इसका भी यही हाल न हो जाये...
कृपया इसे मैला होने से बचाएँ....
इसकी गोद में वही डालें जिससे किसी का भला हो सके न की इसे कचराघर समझ कर हर चीज फेंकते जायें.

कुछ भी डालने से पहले एक बार जरूर सोचें कि क्या ये सही है.

इसकी चमत्कारी शक्तियों को आने वाली नस्लों के लिए भी बचा कर रखें .

कर्म योगी

हाल ही में एक महिला मुक्केबाज इस लिए सुर्ख़ियों में थी की वे अपनी भावनाओ को पुरुस्कार लेते समय नहीं संभाल पायीं और रो पड़ी . उनका और बहुत से लोगों का यह मानना था कि निर्णय लेते समय उनके साथ पक्षपात किया गया.

खिलाडियों के साथ पक्षपात होने एक आम सी बात है जिसको झेलने की अक्सर उन्हें आदत सी पड़ जाती है. यदा कदा अनाधिकारिक तौर पर खिलाडियों का गुस्सा भी मीडिया में सुर्खी बटोरता रहता है पर एक आधिकारिक मंच पर इस तरह का व्यवहार बहुत काम देखने को मिलता है(जिसके लिए उन्होंने बाद में माफी मांग ली) .

इस सब से जो चीज आहत होती है वह है ‘खेल भावना’. एक खिलाड़ी को अब खेलने भर से ही किक नहीं मिलाती. उसे बहुत कुछ और चाहिए. खेलो में क्योंकि अब बेशुमार पैसा और नाम है इसलिए इनका सञ्चालन एक व्यवसाय की तरह किया जाने लगा है और खेल अब राजनीती से भी अछूते नहीं है.

युद्ध की तर्ज पर खेले जाने वाले खेलो के खिलाडियों के लिए कृष्ण का अर्जुन को दिया गीता ज्ञान शायद मार्गदर्शन कर सकता है. कर्म योगी कर्म करने में ही जीवन का आनंद लेता है. फल की इच्छा न रखते हुए जो भी परिणाम होता है उसे खुशी से स्वीकार कर लेता है.

गांधी को कोई नोबेल पुरुस्कार नहीं मिला , हालाँकि उन्हें तीन बार इसके लिए नामित किया गया. पर क्या कभी उनके मन में इस निर्णय से कुछ दुर्भावना हुई होगी? क्या उन्होंने अपना कर्म बदला होगा.

क्या आज हम उनसे कुछ सीख ले सकते है?  

पत्नी पीड़ित संघ

दुनिया के दुखियारों पतियों
पत्नी गम के मारे पतियों
पीड़ित और बेचारे पतियों
थोड़ी सी हिम्मत दिखलाओ
पत्नी पीड़ित संघ बनाओ
पत्नी पीड़ित संघ बनाओ

   पत्नी के पल्लू के पीछे से
   बाहर आओ हिम्मत लाओ
   अपनी अपनी व्यथा कथा को
   दुनिया भर के सामने लाओ
पत्नी पीड़ित संघ बनाओ
पत्नी पीड़ित संघ बनाओ

   अपने दर्द भरे जीवन में
   आशाओं की किरणे लाओ
   बंद करो ये सड़ी गुलामी  
   दब्बू फट्टू मत कहलाओ  
पत्नी पीड़ित संघ बनाओ

पत्नी पीड़ित संघ बनाओ

उधार का चक्कर

   मोबाइल पर SMS आने की बीप ने उसके ख्यालों का सिलसिला तोड़ दिया . लाइफ इंशुरन्स के प्रीमियम बैंक खाते से दिए जाने की सूचना थी वह. भला हो इस टेक्नोलॉजी का , जिन्दगी कितनी आसान कर दी है इसने आजकल. पर ये क्या? अपने बैंक खाते में बैलेंस की रकम देख कर वह चोंक गया. आज तो १२ तारीख ही है. कितना सारा महीना अभी बाकी है. कैसे मैनेज होगा?
रमन यूँ तो अच्छी तनखाह पाता था और पहले घर खर्च बड़ी आसानी से निकल जाता था और थोड़ी बहुत बचत भी हो जाती थी, पर जब से उसने पर्सनल लोन लिया था तब से लगता है वह एक अंतहीन चक्र में फंसता जा रहा है.एक दलदल सी थी जिसमें से वह जितना हाथ पैर निकालने के लिए मारता उतना ही और धंसता नजर आता था.
   अभी २ साल पहले की तो बात है ,सब कुछ कितना अच्छा चल रहा था. घर, नौकरी ,ज़िंदगी . वह बड़ा खुश था. पर अलका के साथ हुए उस दुर्घटना ने जैसे सब कुछ बदल कर रख दिया. उनकी ज़िन्दगी में खुशियों पर जैसे ग्रहण लग गया. शरीर पर लगे जखम तो अस्पताल की मदद से समय के साथ भरते चले गए औए अब तो जख्मों के निशाँ भी गायब होने लगे थे. पर एकदम से ओपरेशन का बिल चुकाने हे लिए उसने जो भरी लोन ले लिया उसके मकड़ जाल से वह निकल नहीं पा रहा था. लोन हासिल करने के लिए तो कितनी भाग दौड़ इतने कम समय में की थी उसने और कितनी तड़प थी उसके मन में उसे हासिल करने की पर अब उसी ताकत से वो इससे उबर क्यों नही पा रहा है.
   उस वक्त तो जो भी कागज बैंक की तरफ से उसकी तरफ आगे बढाया गया उसने आंख मींच कर साइन कर दिया .पढ़ने के लिए ना तो उसके पास समय था और न ही मन. पर आज जो कुछ उससे वसूला जा रहा था उस सब की लिखित स्वीकृति उसने खुद ही तो दी थी . पर मान लो अगर वह इन सब शर्तो के बारे में उस वक्त पढ़ भी लेता तो क्या साइन करने से मन करने की स्तिथि में था?
उसके बाद से उसे easy money मनी की जो आदत पड़ गयी वो खतरनाक थी . और कितने ही लोन और टॉप अप लोन के जाल में फंसता चला गया. 
   उसे मदर इंडिया फिल्म का बिरजू याद आया. फिल्म में साहूकार बिरजू से हार साल उसकी फसल के तीन हिस्से सूद में ले लेता है फिर भी सूद बढ़ता जाता है और मूलधन जो एक मामूली सी रकम थी  वो तो अपनी जगह पर बनी ही रहती है.
  ये उसकी पसंदीदा फिल्म थी जिसे उसने कई बार देखा था . वो अब तक फिल्म के सूदखोर साहूकार को कोस कर खुश हो जाता था और सोचता था कि वो तो बिरजू की तरह अनपढ़ और गंवार नहीं है बल्कि २१ वी सदी का पढ़ा लिखा आधुनिक इंसान है पर अब उसे अहसास हो रहा था की जमाना बहुत बदला नहीं था और उसकी हालत भी किसी बिरजू से कम खराब नहीं थी , बस वो गाँव में न होकर शहर में था यही अंतर था.
   उधार के इस चक्रव्यूह से बाहर आने का वह प्रण करता है और साथ ही यह भी निश्चय करता है कि औरों को भी इस तरह से फंसने से सावधान करेगा.
ईश्वर उसकी मनोकामना पूर्ण करे.


पत्नी और प्रेमिका

पत्नी

*किसी software का licencing agreement पढ़ना और अपनी पत्नी की बातें सुनना बिलकुल एक जैसा ही काम है.
आप हर बात को ignore करते हैं और अंत में click करते है- ‘I AGREE’. 


*मैंने प्रार्थना की थी कि मुझे ऐसी पत्नी देना जिसे अच्छा पकाना आता हो.  पर ये मैं क्या कर बैठा. पकाने से पहले खाना तो कहना मैं भूल गया था.
मेरी प्रार्थना शब्दतः सुन ली गयी और मैंने ईश्वर से जो माँगा उसने मुझे दे दिया. अपनी एक गलती की इतनी बड़ी सजा मैं आज तक भुगत रहा हूँ.


*“क्या हुआ होठ कैसे सूज रहे है?”
“पत्नी को मइके के लिए ट्रेन में बैठ कर आ रहा हूँ”
“तो उससे होठों का क्या सम्बन्ध?”
“ उतावलेपन में खुशी का इजहार करते हुए मैंने ट्रेन के इंजिन को चूम लिया था”

प्रेमिका

उसके प्रणय निवेदन पर उसकी प्रमिका पहले तो कुछ देर सोचती रही फिर बोली, ‘ देखो तुम्हें तो पता ही है की मेरा boss आजकल मेरे पीछे पड़ा हुआ है और नौकरी बचाने की खातिर मुझे उसे oblize करना ही पड़ेगा. फिर मेरे ex बॉयफ्रेंड ने भी मेरी ही खातिर इसी हफ्ते सामने वाला घर किराये पर लिया है ,उसे मैं कैसे मायूस कर सकती हूँ. और तुम ये भी जानते होगे कि रमेश को तो मैं like करती हूँ कॉलेज के दिनों से , वो भी इसी शहर में आ गया है. और तुमसे तो ये भी छूपा नहीं है की अजय से मेरा affair चल रहा है.
इन हालातों में तुम्हारा प्रस्ताव स्वीकार करने में मुझे परेशानी हो रही है.

उसने फरियाद लगाई , ‘देख लो, अगर तुम्हारे busy schedule में मैं कहीं adjust हो जाऊ !


बाबा गिरी का धंधा कभी ना होगा मंदा

अगर आप इस महान देश में कोई ऐसा धंधा करना चाहते है कि ‘ हींग लगे ना फिटकरी और रंग भी चोखा आये’ तो ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं है . बस आपको भगवा या सफ़ेद कपडे पहनना है और दाढ़ी बढ़ानी है (अगर आप महिला है तो इस झंझट से भी मुक्ति है )बस फिर कोई फैंसी सा नाम रखना है और प्रवचन देना शुरू कर देना है.
कोई पूंछता है ये प्रवचन क्या होता है? अरे प्रवचन नहीं जानते? प्रवचन माने लच्छेदार बातें जैसी आजकल कितनी ही टीवी चेनलों पर दिखाई देती हैं. अगर आप थोड़ी बहुत बाजीगरी की ट्रिक्स भी जानते हैं तो फिर सोने में सुहागा है क्योंकि चमत्कार को तो हर जगह ही नमस्कार है.
इस धंधा में भक्त गण अपने आप प्रकट होने लगते है. इस महान देश में इंसानों की ही तो भरमार है. जितने ज्यादा भक्त आपके पास आएंगे उतना ही आपका धंधा चलेगा. आपको कुछ विशेष करने की जरूरत नहीं है. बहुत से भक्तो में से कुछ एक्टिव किस्म के जीव आपके आस पास मंडराने लगेंगे और ऐसी ऐसी व्यवस्थाये पैदा कर डालेंगे कि चढ़ावा बढ़ता ही जायेगा. आपको इस चढ़ावे को भी हाथ लगाने की जरूरत नहीं है ,बस दो चार विशेष भक्तो को अपनी जो भी जरूरत है बता देना है. आपकी हर इच्छा अपने आप ही पूरी होने लगेगी.
क्या कहा? आपके पास भला लोग क्यूँ आएंगे?
मित्र, यहाँ अमीरों के पास इसना पैसा है और उन्होंने अमीरी के चक्कर में इतने पाप कियें है की उनको तो चढ़ावा देना ही है चाहे प्राश्चित के लिए या फिर जैकपोट मिलाने की खुशी में . वो तो बस भगवान् के किसी एजेंट को ढूंढते ही रहते है. अगर आप ने दूकान नहीं खोली तो पड़ोसी बाजी मार सकता है.
और गरीबो का हाल और विचित्र है. उनकी जो इच्छा सीधे रस्ते पूरी नहीं होती उसके लिए वो शोर्ट-कट तलाशते ही रहते है- कभी इस दर पर तो कभी उस दर पर . आखिर कोशिश करने में जाता ही क्या है? और फिर उनके पास खोने के लिए ज्यादा कुछ है भी नहीं. आस बहुत बड़ी चीज है जनाब.

आयी क्या बात समझ में??

बचत


हे भगवान ! ये महीने की पहली तारीख हर बार इतनी देर से क्यों आती है दामिनी ने फिर सोचा.  हर महीने के तीसरे चौथी हफ्ते में अक्सर यह ख़याल उसके मन में आता था, खास कर जब कोई पैसे खर्च करने वाली बात होती.
अखबार वाला जो पैसे का तकाजा करने आया था , उसे किसी तरह टाल कर उसने रसोई का रुख किया. तभी मोबाईल पर sms आने की घंटी बज उठी. माँ का sms था ,वो कल आ रही थी.कंगाली में आटा गीला’, उसके मुंह से एक पुरानी कहावत निकल पड़ी. माँ के आने से वैसे तो वो बड़ी राहत महसूस करती थी पर खर्चे के बारे में उसे माँ की फिलासफी समझ में नहीं आती थी बल्कि उसे चिढ़ होती थी. आमदनी कुछ भी हो ,उसका एक हिस्सा बचत में निकाल कर रख दो फिर बाकी पैसे खर्च करो. माँ अकसर कहा करती थी. पर माँ को कौन समझाए कि इतनी सी तनखा में कहाँ कोई बचत के बारे में सोच भी सकता है. शायद माँ के ज़माने में ऐसा हो जाया करता होगा. पहले आदमी की जरूरतें भी तो कम होती थी.
दामिनी के हालत शुरू से इतने बुरे ना थे. शादी के बाद के २-३ साल तो बड़े मौज में गुजरे. फिर अचानक पापा की जानलेवा बीमारी ने सब कुछ बदल कर रख दिया. इलाज के चक्कर में जो थोडा बहुत बचा कर रखा था ,पता ही नहीं कब निकल गया. और तो और उसके गहने भी गिरवी रखने पड़े. फिर सुदीप की नौकरी भी चली गयी क्योंकि इलाज की वजह से वह कई महीने तक ऑफिस ही न जा सका. अब जब सुदीप किसी दूसरी नौकरी के लिए एडियाँ घिस रहा था उसे ये मामूली सी नौकरी करनी पड़ी, आखिर घर का खर्च तो चलाना ही था, कैसे ना कैसे.
बीबी जी, दरवाजा खोलो, इमरती बाई की तीखी आवाज़ ने दामिनी के विचारों का तांता तोड़ दिया. उसने उठ कर दरवाजा खोला. इमरती हांफ रही थी और उसके चहरे पर बैचनी थी. बीबी जी ,मुन्ना अस्पताल में है ,उसका एक्सीडेंट हो गया है., उसने लगभग रोते हुए बताया. इससे पहले कि वह और सवाल करती इमरती बोली , आपको मेरे साथ बैंक चलना होगा, बीबी जी. उसने अपने मुठ्ठी में एक बैंक चेक-बुक और पास-बुक कस कर पकड़ी हुई थी. दामिनी नें गैस का चूल्हा बंद किया और घर में ताला डाल इमरती के साथ हो ली.
इमरती उसी बिल्डिंग के अहाते में बाहर की तरफ एक छोटे से दडबेनुमा  कमरे में रहती थी जिसमें दामिनी का घर था. कपडे प्रेस कर अपना गुजारा करती थी. वो हमेशा अपने काम में लगी रहती और किसी को उससे कोई शिकायत नहीं थी. बिना पढ़ी लिखी होने पर भी उसके हिसाब किताब में कोई गलती नहीं होती थी. मुन्ना उसका १४ साल का बेटा था जिसे वो एक अच्छे स्कूल में पढ़ा रही थी. सुबह सड़क पार करते हुए एक कार ने पीछे से टक्कर मार दी मुन्ना को, इमरती ने रोते हुए रास्ते में दामिनी को बताया. उसने सांत्वना भरे अंदाज में उसके कंधे पर हाथ रख दिया और कहा, हौसला रखो ,भगवान सब ठीक करेगा.
तेज चलते हुए वो लोग तीन मिनट में ही बैंक पहुँच गए. बीबी जी, अस्पताल के लिए अस्सी हजार रुपये निकालने है, इमारती ने चेक-बुक और पास-बुक दामिनी को देते हुए बोला. इतने पैसे होंगे तुम्हारे खाते में ?, दामिनी आश्चर्य से बोली. मुझे नहीं पता बीबी जी ,ये सब मुन्ना ही जानता है. मैं तो बस अपना नाम लिखना सीख पाई हूँ बड़ी मेहनत के बाद. दामिनी ने पास-बुक को अपडेट कराया और बैलेंस पर नज़र डाली तो चौंक गयी करीब साढ़े चार लाख रुपये थे उसके खाते में उस वक्त. पिछले कई सालों से हर बार सिर्फ पैसे जमा ही कराये गए थे उसमे छोटी छोटी रकम के रूप में , निकालने का ये पहला मौका था. उसने चेक-बुक में अस्सी हज़ार की रकम भरी और इमारती से दस्तखत करवाकर उसे काउंटर पर दिया. वहाँ से रुपये मिलने पर उसने गिन कर तसल्ली की और इमरती को सौंप दिए. 
घर लौटते वक्त दामिनी के दिमाग में इमारती की पास-बुक ही घूमती रही. हफ्ते-दस दिन के अंतर से कराई हज़ार/दो हज़ार की रकम कुछ सालों के भीतर ही पहाड़ सी विशालकाय हो गयी थी जो आज उसके बेटे की जान बचाने के काम आ रही थी. चक्रब्रद्धि ब्याज और नियमित बचत का जादू अब उसे धीरे धीरे समझ आने लगा. माँ की बचत की सलाह का मतलब भी अब उसके दिमाग में जगह बनाने लगा.
घर पहुँच कर उसने हर जगह से चिल्लर और खुले रुपयों को मिलकर एक जगह इकठा करा कर बार बार गिना. मुश्किल से दो हज़ार रुपये हो पाए सब कुछ जोड़ कर. उसमें से दो सौ रुपये उसने अलग निकल कर अपने लाल वाले पर्स में डाल दिए और हिसाब लगाने लगी कि कैसे बचा हुआ महीना इतने ही रुपयों में गुज़रेगी. लाल पर्स को उसने ताले में ऐसे रख दिया जैसे कोई बड़ा खजाना हो. 



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