मर्यादा

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बकरे की जान


हैदराबाद पुलिस ने बलात्कार के एक जघन्य मामले के चारों आरोपियों को एक एन्काउंटर में मार डाला जिससे सारे शहर और देश में अन्याय पर न्याय की एक जीत के रूप में देखा जा रहा है और उत्सव के रूप में मनाया भी जा रहा है। साथ ही यह भी सुनने में आया है कि इस घटना को फर्जी एनकाउंटर बताने वाली एक याचिका भी अदालत ने सुनवाई के लिए स्वीकार कर ली है।
जिस देश में आम आदमी को न्याय के नाम पर सिर्फ तारीख पे तारीख मिलती हों और सुविधा- संपन्न लोग न्याय की परिभाषा अपने ढंग से तोड़-मरोड़ कर पेश करके कानून के फंदे से अक्सर बच निकलते हों ,वहां पर ऐसा होना कोई अचरज की बात नहीं। आखिर एक सीधे साधे व्यक्ति का संयम कब तक सधा रहेगा। बकरे को तो कटना ही था पर लोगों ने ईद का इंतजार न करते हुए पहले ही पार्टी मना डाली ।
एक तरफ लोगों के दिलों में सुलगते अरमान थे कि तुरंत न्याय हो और दोषियों को सजा मिले वहीँ दूसरी ओर कछुआ चाल से चलती न्याय व्यवस्था उनकी उम्मीदों पर खरी नहीं उतर रही थी। राम राज आने का किसी से इंतजार न हुआ और जंगलराज में जंगल  का कानून अपना काम कर गया।
विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र अपने अस्तित्व को बनाये  रखने के लिए दो भयावह अतियों के बीच झूल रहा है और विश्व उसका तमाशा देश रहा है क्योंकि  यह देश सबसे बड़ा बाजार भी है।
आज का ज्वलंतशील वैचारिक प्रश्न यह है कि एक स्वस्थ लोकतंत्र में निर्णय/न्याय का अधिकार किसे हो – भेड़ की तरह चुपचाप मुंडती हुई निरीह जनता को या अटक-लटक कर चल रही लचर व्यवस्था को ?

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