असहिष्णुता और लोकतंत्र

जब भी मुझे ‘भीड़भाड़ वाले और घिचपिच गली मोहल्लों से गुजरते घुमावदार रास्ते’ और ‘खुले हुए , चौड़ी सड़क वाले सीधे रास्ते’ में से किसी एक का चुनाव करना हो  तो में दूसरा विकल्प ही चुनूंगा चाहे इसके लिए मुझे ज्यादा दूरी ही क्यूँ न चलाना पड़े. मुझे लगता है कि इस तरह से मैं उच्च गीयर पर गाडी चला  सकूँगा और  मार्ग में कम अवरोधों के कारण मुझे कम ब्रेक लगाने पड़ेंगे. इस तरह मैं न सिर्फ समय की बल्कि पेट्रोल की भी बचत कर सकूंगा.

पर यह एक व्यक्तिगत चुनाव है. मेरी पत्नी का दिमाग ठीक इससे उलट चलता है. उसे अगर पता चले कि भीड़ भाड़ वाला रास्ता एक मीटर भी कम है तो वह उसे शौर्ट-कट मानते हुए उसे ही चुनेगी. बाकी सब बारीकियों को वह नजरअंदाज कर देगी (उसके पास ऑटोमोबाइल इन्जीरिंग की समझ और डिग्री नहीं है).
पर उस पर तुर्रा ये कि वह भी यही सोचती है कि वह शौर्ट-कट लेकर समय और पेट्रोल की बचत कर रही है.

देखा जाय तो अपने अपने द्रष्टिकोण से हम दोनों ही सही हैं. व्यवहारिक दुनिया में यह कभी ठीक ठीक कहा नहीं जा सकता कि कौन सो द्रष्टिकोण हमेशा मानने से वास्तव में बचत होगी और कितनी.
हालाँकि दोनों द्रष्टिकोण एक दूसरे के ठीक उलट जान पड़ते हैं पर किसी एक को सही साबित करने के लिए दूसरे को गलत ठहराना जरूरी नहीं है.

हम दोनों एक दूअसरे से लड़ने की बजाय आपसी तालमेल और समझदारी से कभी एक और कभी दूसरा विकल्प चुन सकते है और हंसी खुशी सफ़र तय कर सकते है.

ये सिर्फ (मेरे) परिवार की कहानी नहीं है. ध्यान से देखें तो हर समाज में हार काल में इस तरह की दो विरोधी सी लगाने वाली सोच रखनेवाले लोग मिल जाते है.

एक तो वो जिनको अक्सर रुढ़िवादी कहा जाता है. ये लोग किसी बात को लेकर अधिक सोचविचार और गणना करने के बजाय भूतकाल में सफल रही पुरानी विचारधारा के पक्षधर होते हैं और कुछ भी नया सोचने से कतराते है.

दूसरी तरफ उदारवादी सोच रखनेवाले लोगों की भी कमी नहीं है जो हर बार नए नए प्रयोग करते नहीं थकते. जोखिम उठाने में इन्हें जैसे मज़ा आता है.

आजकल देश में असहिष्णुता के नाम पर जो वातावरण बना हुआ है वह इसी तरह की अलग अलग सोच रखने वाली विचारधाराओं का टकराव है.

यहाँ प्रश्न ये नहीं होना चाहिए कि , ‘देखें कौन जीतता है?’ बल्कि हमारी कोशिश यह रहनी चाहिए कि बिना एक दूसरे को नीचा दिखाए या गलत साबित करे दोनों विचारधारा के लोग एक दूसरे के साथ सम्मान के साथ जी सकें.

हमारा दायाँ पैर अगर ये कहने लगे कि शरीर का सारा वजन वह ही उठाता है और बाएँ पैर का इसमें कई योगदान नही है ,तो क्या हम उसकी बात सुनकर अपने बाएँ पैर को ही काट डालेंगे ?

या फिर हमारे फेफड़े ये कहने लग जायें कि साँस बाहर छोड़ना एक हानिकारक काम है जिससे कोई फाय दा नहीं होता इसलिए इसे बाँट कर देना चाहिए , तो क्या हम सिर्फ सांस अन्दर खीचना जारी रख कर फेंफडों को फाड़ डालेंगे?

दो विरोधी विचारधाराएं लोकतंत्र की बुनयादी जरूरत है.
क्या हम इस बुनयादी जरूरत को पूरा करने में सफल होंगे ?

No comments:

Post a Comment

My new eBook