योग विद्या


हज़ारों साल पहले भारतवर्ष एक संपन्न और धनी  देश था। दूसरे देशों में इसे ‘सोने की चिड़िया’ के नाम से जाना जाता था।
यूरोप से क्रिस्तोफेर कोलंबस और वास्को डी गामा इस महान देश की खोज में ही निकले थे जिनमें से कोलंबस ने गलती से अमेरिका को भारत समझ कर ढूंढ लिया था जिसके कारण आज भी अमेरिका के मूल आदिवासियों को रेड- इंडियन्स के नाम से जाना जाता है ।
उस महान युग में इस देश ने सिर्फ आर्थिक प्रगति नहीं की थी बल्कि लगभग हर क्षेत्र में यह अग्रणी था विशेषकर शिक्षा के क्षेत्र में।
बहुत से संतों ने जीवन की आपाधापी से दूर जंगल में आश्रम बना कर शिक्षा के क्षेत्र में महान अनुसन्धान किये जिसके ज्ञान का दान वह इन आश्रम के माध्यम से विद्यार्थियों को देते थे।
इन संतों के परिश्रम और तप से एक ऐसी विद्या का जन्म हुआ जिसमे जीवन को किसी भी परिस्तिथि में आनंद पूर्वक जीने की विधि का ज्ञान छुपा था.  इसे योग विद्या के नाम से जाना जाता था. पीढी दर पीढी इस ज्ञान को श्रुति (बता कर) सुरक्षित रखा गया और बाद में अनेक  लोगों ने इसे लिपिबद्ध करने का प्रयास किया जिनमें महर्षि पतंजली का नाम उल्लेखनीय है।
कालांतर में यह ज्ञान यूरोप और अमेरिका आदि देशों में भी फ़ैल गया। आजकल पूरे विश्व में इसकी मान्यता है और अनेको संस्थान अलग अलग तरह की विधियों द्वारा इस ज्ञान का प्रचार करने में जुटे है। 
योग में अक्सर जीवन के गूढ़ रहस्यों को संकेतो और सूत्रों के माध्यम से समझाया जाता है जिस से कभी कभी लोग भ्रमित भी हो जाते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि यह तकनीक प्राचीन काल के जीवन शैली पर आधारित है इसलिए इसका आधुनिक जीवन में इतना महत्त्व नहीं है।
पर वास्तव में योग की बुनियाद जिन सिद्धांतों पर रखी गयी है वह शास्वत है और विज्ञान द्वारा की गयी तरक्की और उससे उपजी जीवन शैली में उनकी उपयोगिता कम नहीं होने वाली । शायद आधुनिक जीवन शैली के लिए यह विद्या अधिक प्रासंगिक और आवश्यक है

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