बाल की खाल







ये बाल भी बड़ी विचित्र चीज़ है.



एक तो जगह के साथ इसका नाम बदल जाता है – सर पर बाल, माथे पर भों ,होठों पर मूंछ, गलों पर दाढी और ...........



दूसरे, ये कोई मृत पदार्थ नहीं है, शरीर का एक जीवित हिस्सा है पर आप इन पर बेरहमी से कैंची चला सकते हैं ,और आपको बिलकुल भी दर्द नहीं होगा. बल्कि हजारों लोगों की तो रोजी – रोटी ही इसी धंधे से चलती है.



तीसरे शरीर के बाकी हिस्सों की बढ़त तो वयस्क होने पर रुक सी जाती है पर बाल कितने भी ब्रद्ध होने पर भी लगातार बेलगाम बढ़ते रहते है.



इन विचित्रताओं के कारण ही शायरों ने इन पर हजारों शेर और गाने लिख डाले है और हसीनाएं (कुछ हसीन भी) इस पर अपना ढेर सा वक्त खर्च कर डालती है. फिल्मों में तो हेयर स्टाइलिश आदमी का रूप ही बदल देते है.



बाल अगर झडने लगे तो हमें इनकी कमी का असली अहसास होता है. जब हम इनको पूरी तरह से खो देते हैं तो अक्कासर दूसरों के मजाक का पात्र बन बैठते हैं. अकसर दुख: के समय (जैसे किसी बड़े बूडे की मौत) इन्हें शरीर से विदा करने की परंपरा देखी जा सकती है.



बाल बड़ी बेशर्मी से शरीर के किसी भी अंग पर उगने की ताकत रखते हैं पर कुछ लोगों से इनकी ये बढ़त देखी नहीं जाती और वो उन्हें जब मौका लगे उड़ाने की फ़िराक में रहते है. बहुत सी कम्पनी तो बाल उड़ाने के यंत्र और दवाईयाँ बना कर ही करोडो रुपये कमा रही हैं.



कई समझदार लोग इनकी देखभाल में कोई कसर नहीं छोडते और फिर अच्छे बालों के कारण ही अपनी पहचान बनाते हैं. सिख जाति में बाल कटना वर्जित है तो उसका इनाम उन्हें ये मिलता है कि उन्हें हेलमेट खरीदने पर पैसे खर्च नहीं करने पड़ते.



हमें सर पर तो बालों को ताज बना कर बिठाना मंज़ूर है पर गालों से इनकी नज़दीकियाँ नागवार गुज़रती है इसलिए शेविंग को अकसर लोगो ने अपनी दिनचर्या का हिस्सा बना डाला है है और चिकने गालों (सुंदरियाँ 'गालों' की जगह 'टाँगें' पढ़े ) को सुंदरता का पैमाना.





बाल की खाल निकालने वालों की इस दुनिया में पहले ही से कमी नहीं और आज एक और (मैं भी) शामिल हो चला है.


चित्र साभार http://www.freedigitalphotos.net/

बैक सीट ड्राइविंग




मेरी पत्नी को ड्राइविंग नहीं आती, न ही उनकी उसको सीखने में कोई दिलचस्पी है. पर कार की पिछली सीट (कभी कभी अगली को–ड्राइवर सीट, जब कार में हम दोनों ही होते हैं) पर बैठ कर कार चलाने का जो उनका जज्बा है वो कबीले तारीफ है. लगता है भगवान ने उन्हें कोई अद्रश्य रिमोट कंट्रोलर दिया है जिससे कार का सञ्चालन आसान हो जाता है.



जब मैं कार चला रहा होता हूँ और श्रीमतीजी भी साथ हों तो न तो मैं एफ ऍम रेडियो का लुत्फ़ ले पता हूँ और न ही ट्रेफिक का शोर मुझे सुनायी पडता है. इसका कारण यह है कि मुझे अपने कानो का एंटीना एक लगातार चलने वाली आवाज की धारा पर फोकस करना होता है जो देवी जी के मुंह से निकल रही होते है. इस धारा में आदेश ,आलोचना, हिदायत, टिप्पणी और बात चीत सभी के अंश बड़ी खूबसूरती से पिरोये होते हैं .ये किसी टीवी चेनल के मनोरंजक सीरियल से कम नहीं होता मगर मेरी मजबूरी इतनी है कि इस सीरियल को मैं अपनी मर्जी से बदल नहीं सकता और ना ही इसे बंद कर सकता हूँ (मुझमें इतनी हिम्मत कहाँ?). मुझे ये प्रोग्राम न सिर्फ झेलना पडता है बल्कि खेलना भी पडता है और बीच बीच में पूंछे हर सवाल पर मुझे उम्मीद के मुताबिक जबाब भी देना होता. मै तो लगता है कि KBC (कौन बनेगा करोडपति) की हॉट सीट पर बैठा निरीह कंटेस्टेंट हूँ .

हमारे देश में खुली सड़क पर कर चलाना किसी अभियान से कम नहीं होता. कितनी ही समस्याओं से हमें जूझना पढ़ सकता है. रोड में गढ्ढे होना ,ट्राफिक साइन का न होना और होने पर भी अधिकतर वाहन चालकों का उनकी परवाह न करना ,घंटो जाम लगा रहना आदि तो तो मामूली समस्याए हैं ही, कभी कभी इनमें से कुछ समस्याए इतनी घातक और विकराल रूप धारण कर लेती है कि जान पर बन आती है जैसे हाई वे पर तेज स्पीड कार के सामने अचानक किसी प्राणी (मनुष्य या भेंस, कुत्ता,बकरी आदि) का प्रकट हो जाना, नशे की झोंक मे गाड़ी हांकते किसी वहन चालक से सामना हो जाना, मैन होल या नाले का मुंह का खुला होना आदि .



ऐसी किसी समस्या के अचानक आ जाने पर मुझे अपने ध्यान और दिमाग को उस पर केंद्रित करने की जरूरत होती है. पर शीमती जी ऐसे मोके पर मुझसे मेरा ये हक भी छीन लेती है और ऐसी भयानक चीख पुकार करती हैं कि उनके इस होरर शो पर मेरा ध्यान अपने आप ही चला जाता है और सामने आयी समस्या से कुछ हट जाता है . और अगर ऐसे में कुछ गलती हो जाय तो मेरी आलोचनाओ का पिटारा वही खुल जाता है जो आगे के सफर को और दूभर कर देता है.



श्रीमती जी के मुताबिक मै एक अच्छा ड्राइवर नहीं हूँ.



क्या आपकी अर्धांगिनी भी ऐसा ही सोचती हैं? या अगर आप महिला हैं तो आप भी अपने पति के साथ ऐसा ही सलूक करती है? या अगर आप विवाहित नहीं हैं तो क्या अपने कहीं ऐसा नजारा देखा है?



ऐसी समस्या विवाहित जोड़ो के साथ हो ऐसा नहीं है. ये तो किसी भी जोड़े के साथ हो सकती है चाहे वो बिज़निस पार्टनर हों या दोस्त .



पता नहीं मुझे अपने इस कष्ट से कब मुक्ति मिलेगी ?



जब देश का प्रधान मंत्री के पद पर बैठा व्यक्ति इस यातना को झेल सकता है तो मै तो एक अदना सा आदमी हूँ!

कुछ तो लोग कहेंगे ....




बचपन में एक कथा सुनी थी शिव, पार्वती और उनके वाहन नंदी बैल के बारे में.

कथा यूँ है की एक बार ये तीनो धरती पर मानव रूप में हालात  का जायजा लेने के लिए आए.

एक गांव से तीनो जा रहे थे तो कुछ लोगों ने उन्हें देख कर कहना शुरू कर दिया ,’देखो कैसे लोग है,साथ में वाहन (यानी नंदी बैल) है पर फिर भी पैदल चल रहे है.’. उनकी बातें सुनकर दोनों लोग (शिव-पार्वती) नंदी पर सवार हो गए.  कुछ ही दूर चले होंगे की उन्हें फिर लोगों के बोल सुने पड़े, ‘अरे कैसे जालिम लोग है, बूढ़े बैल पर दो- दो लोग सवार है, बेचारे को मार ही डालेंगे. चलो औरत सवारी करे तो ठीक, मर्द को बैल पर बैठने की क्या जरूरत.’

इस पर शिवजी ने सोचा –शायद इनकी बात में दम है और वो बैल से उतर कर पैदल चलने लगे. थोड़ी देर में फिर उन्हें लोगों के कमेन्ट मिलाना शुरू हो गए (लोग और कुछ दे न सके पर कमेन्ट जरूर मुफ्त में देकर आनंदित होते है वो भी खूब सारे).’ देखो कितनी बेशर्म औरत है, बूढा पति पैदल चल रहा है और खुद बैल पर बैठी है.क्या जमाना आ गया है !’ ये साब सुनकर पार्वती उतर गयी और जिद करके शिव को बैल पर बैठा दिया. अब कमेन्ट सुनाने की बारी शिव की थी,’कैसा मर्द है, नाजुक औरत को पैदल चला रहा है और खुद सवारी कर रहा है. घोर कलयुग आ गया है .’ भोले शिव को क्रोध आ गया और उन्होंने नंदी बैल को अपने कंधे पर उठा लिया. पर लोगो को चैन कहाँ! बोलने लगे,’ कैसा पागल इंसान है,बैल की सवारी करने की बजाय उसकी सवारी बन रहा है.’

कहानी का सार ये कि आपको अपने फैसले लोगों की बातों में ही आकर नहीं कर देने चाहिए. आप सबको किसी भी हाल में खुश नहीं कर सकते.

लोग अगर आपकी आलोचना कर रहे है तो आपका प्रयास उन्हें खुश करने का नहीं होना चाहिए, जिससे वे आलोचना करना बंद कर दें. इन लोगों को धन्यवाद करके इसको एक मौके कि तरह देखना चाहिए और हमारा प्रयास अपने फैसले को एकबार फिर जांचने का होना चाहिए. फैसला अगर खरा होगा तो हर बार जांचने पर सही ही दिखाई देगा. अपना फैसला लेने वाले आप ही अंतिम व्यक्ति होने चाहिए .अपनी यह ताकत दूसरों के हाथो में दे देना तो मूर्खता होगी.  अपने बारे में सबसे सही जानकारी तो आपको होनी चाहिए और अपने फैसलों को निभाना भी तो आपको ही है.

लोगों का क्या है. उन्हे आपकी जरूरतों और मजबूरियों का क्या गुमान ! वो तो कुछ भी कह गुजरेंगे. किसी शायर ने क्या खूब कहा है, ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगो का काम है कहना..’

कुछ तो गुंजाइश रखें

एक बार मुझे अपने एक मित्र के साथ रेल से कहीं  जाना जाना था. हमेशा की तरह मैं रेल छूटने के समय से करीब आधा घंटा पहले स्टेशन पहुँच गया. इस बार इस कार्यवाही को अंजाम देने में मुझे काफी मशक्कत करनी पडी क्योंकि मित्र महाशय बड़े आरामखोर थे . मुझे उन्हें झिझोडकर जगाना पड़ा, नाश्ता उनके मुंह  में ठूसना पड़ा और लगभग खींच कर उन्हें घर से बाहर तक लाना पड़ा.
स्टेशन पहुँच कर मित्र महोदय बोले,' यार, क्यों इतनी जल्दी मचा रखी थी? अभी आधा घंटा बचा है.में तो हर बार ठीक समय पर ही स्टेशन पहुंचता हूँ. इतना समय स्टेशन पर क्यूँ बर्बाद करना.'
मैंने जबाब दिया, 'भाई ,अगर रास्ते मै कुछ परेशानी आ जाती तो? कुछ तो गुंजाइश रखनी थी.'
मित्र ने मुस्कुराते हुए सवाल किया, आज तक जिन्दगी में रेल पकड़ते वक्त कितनी बार तुम्हारे रास्ते में कोई परेशानी आई ?
मैंने सोच कर जबाब दिया, ४ या ५ बार.'
उसने फिर पूंछा ,आज तक कुल कितनी बार रेल में यात्रा की होगी तुमने?'
मैंने मन ही मन हिसाब लगाया - पिछले ३० सालों से हर साल ५० बार तो यात्रा हो ही जाती होगी .
'१५०० बार', मैंने कहा.
इस पर मित्र महाशय बोले,' तुमने ७५० घंटे (१५०० बार के लिए हर बार आधा घंटे के सिसाब से) का समय जो करीब एक महीने से भी ज्यादा होता है उसे बर्बाद कर डाला महज ४/५ बार की परेशानी से बचने के लिए. ये बेबकूफी नहीं है क्या?
उस वक्त तो में उन्हें कोई उत्तर न दे सका पर बाद में मैंने इस गणित पर विचार किया.
किसी भी प्रोजक्ट की योजना बनाते समय और उसे अंजाम देते समय भी इंजीनियरिंग  की गणनओं  के बाद भी कुछ तो गुंजाइश रखी ही जाती है.
पर सवाल यह है कि ये गुंजाइश कितनी हो?

मेरा अपना मानना है कि यह इस बात पर निर्भर करता है कि उस घटना के न होने की दशा में नुकसान कितना है.
अगर इससे होने वाला नुकसान मेरे लिए मायने रखता है तो निश्चित ही मैं गुंजाइश की मात्रा अधिक रखूँगा  चाहे  इसके  लिए मुझे किसी परेशानी का सामना क्यों न करना पड़े.

गणित जरूरी है पर जीवन को गणित मै बंधा नहीं जा सकता.

मेरे कहने का यह मतलब हरगिज यह नहीं है कि मेरा मित्र गलत था. बस उसके गुंजायश रखने की मात्रा मेरे से बहुत कम थी.जहाँ में ३० मिनट का गुंजायश रखने  का आदी हूँ वहां उसके लिए एक या दो मिनट बहुत थे. इसका कारण था उसका मुझसे कहीं अमीर होना. मैं जानता था कि अगर उसकी रेल छुट भी गयी तो उसे बहुत कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला. वो टेक्सी या हवाई जहाज में बैठ कर समय से पहुँच ही जायेगा.

पर मैं गरीब इतना खर्चा नहीं उठा सकता.
इसी लिए तो इतनी गुंजायश रखता हूँ.

हो तैयार ?

..सुदीप के पिताजी को रात में २ बजे  अचानक दिल का दौरा पड़ा, उस बक्त उसके दिमाग में सिटी होस्पीटल का ही नाम सुझा जो उसके घर से १५ किलोमीटर दूर था. उसकी मोटर-साईकिल  में पेट्रोल  नहीं था और  रिक्शा  ऑटो  मिल नहीं रहे थे.  तीन चार पड़ोसियों को जगाया तब जाकर गाड़ी का इंतजाम हो पाया.  पर अस्पताल पहुँचते पहुँचते लगभग एक घंटा लग गया जिससे उनकी हालत काफी बिगड़ गयी.

..रमा  किसी काम से शहर से बाहर गयी थी जहाँ ट्रेन में उसका पर्स  चोरी हो गया. वह अपने एटीऍम कार्ड को तुरंत ब्लोक करना चाहती थी पर उसके पास बैंक का हेल्प-लाइन नंबर नहीं था. पूंछताछ करने पर कुछ देर में एक यात्री से ये नंबर भी मिल गया पर उसे न तो अपने  एटीऍम कार्ड का और न ही अपना बैंक खाता  नंबर याद था. उसे कार्ड ब्लोक करने में काफी मुश्किल का सामना करना पड़ा.

..रीता अपनी सहेलियों के साथ पिकनिक मनाने  शहर से दूर एक जगह गयी थी जहाँ से वापस आते हुए  कुछ वक्त  की   देरी हो गयी और सड़क पर ट्रेफिक बहुत कम हो गया. ऐसे में उसकी कर का टायर पंक्चर हो गया. जब तक घर से उसका भाई वहां पहुंचा उसमे एक घंटे से ज्यादा बीत गया और इस दौरान लड़कियाँ असहाय और परेशान रही.

..अहमद का मोबाईल फ़ोन चोरी हो गया.  उसने इसका बिल भी संभल कर नहीं रखा था, न ही उसे उसके मोडल का नंबर ठीक से याद था. इससे उसको थाने में चोरी की रिपोर्ट करने में भी काफी परेशानी का सामना करना पड़ा.

इन सब वाकियों  से ये साफ़ है  कि जब मुसीबत आती है तो उस थोड़े से वक्त में छोटी छोटी बातें भी बड़ी समस्या  बन  जाती हैं.  असमंजस और बदहवासी की हालत में दिमाग भी ठीक से काम नहीं करता और सीधी सादी बात भी नहीं सूझती .

आज के युग में (पैसे लेकर ही सही) किसी भी स्थिति में मदद करने वालों की कमी नहीं, पर मुसीबत के समय हम उन तक पहुँच ही नहीं पाते क्योंकि इसके लिए हम तैयार ही नहीं होते.

इस तैयारी के लिए किसी बड़े आयोजन या धन की जरूरत नहीं. एक आम आदमी अपने सीमित साधनों से अपने आपको अधिकतर विपदाओं से निपटने के लिए कम से कम सही सूचनाओ से तो लैस कर ही सकता है. और इसमें सहायक हो सकता है हमारा मोबाईल फोन.

इस बारे में कुछ सुझाव ये है-

१. अपने घर के आस पास के २/३ अस्पतालों के फोन नंबर अपने मोबाईल में सेव करके रखे जिससे अगर एम्बुलैंस    बुलानी हो या फोन पर डाक्टर से बात करनी हो तो देरी न हो.
२. अगर आप कार ,स्कूटर या बाइक रखते हो तो २/३ मेकेनिक के फोन नंबर भी सेव कर लें  ताकि  उन्हें  जल्दी  बुला सके.
३.पास के किसी टेक्सी / ऑटो स्टैंड का नंबर सेव करके रखें. या फिर दो तीन टेक्सी /ऑटो वाले  ड्राईवर  जिनकी  सेवाएं अपने कभी ली हों उनका मोबाईल नंबर ही सेव कर रखें ताकि मुसीबत के समय आपका समय बर्बाद न हो.
४. कुछ खास नंबर अपने मोबाईल में जरूर सेव करें जैसे -
    (अ) अपनी मेडीक्लैम या इन्शुरन्स  पालिसी  नंबर और इनके प्रोवाइडर  का हेल्प लाइन  फोन नंबर
    (ब) अपना बैंक अकाउंट नंबर ,ए टी एम् नंबर और बैंक का हेल्प लाइन फोन नंबर.
   (स) कुछ खास नम्बर  जिनसे आपको मदद मिल सकती है और आपको याद नहीं रहते उन्हें भी मोबाईल में  सेव किया जा सकता है  जैसे कि  विभिन्न  सन्सथानो में आपके मेम्बरशिप नंबर अदि.
५. यदि आप किसी वकील या पुलिसकर्मी को जानते हैं तो उनका फोन नंबर साथ होने पर आपको समय पर कानूनी जानकारी या  प्रशाशनिक मदद मिल सकती है.
६. अपने चार-पांच खास लोगो के फोन नंबर स्पीड डायल  पर जरूर सेव करें ताकि जरूरत के  समय जल्दी उनसे जुड़ सकें.
७.अगर आपका मोबाईल ही खो जाये या चोरी हो जाये तो आप ऊपर लिखी सारी जानकारी का कोई उपयोग नहीं कर सकेंगे.  ऐसी स्तिथि से बचने के जिए ये सब जानकारी एक कागज पर  लिख कर भी अपने साथ रखें. साथ ही उस कागज पर अपने मोबाईल का मोडल नंबर और आइ इ एम आइ  नंबर भी जरूर लिखे. (प्रत्येक मोबाईल के इस विशिष्ठ  नम्बर को   जानने के लिए अपने मोबाईल के पीछे देखे या *#०६# डायल करे.)
८. अगर आपके घर में पत्नी,बच्चे या बुजुर्ग अकेले रहते हैं और उनके पास मोबाईल नहीं है तो ये सब जानकारी लैंड लाइन फोन के पास दीवार पर लिख कर  टांग  दे .
९.कुछ पैसे अपने बटुए या पर्स से अलग निकाल कर रख दे किसी और जगह पर जैसे अपनी कार या बाइक में या चश्मे के कवर में इत्यादि. आपके पर्स खो जाने की स्तिथि (भगवान  न करे ऐसा आपके साथ हो) ये बड़े मददगार साबित होंगे.

उम्मीद करता हूँ कि ऊपर बताई गयी छोटी छोटी बातों  पर अगर अब तक आपका ध्यान  न गया  हो, तो अब उन पर विचार कर अमल में लाने का प्रयास  करेंगे.

वैसे मै कामना करता हूँ कि इश्वर आपको विपदाओ से दूर रखे.

झांसी की रानी

"बुंदेलों हरबोलों के मुंह  हमने सुनी कहानी थी ,
खूब लड़ी मंर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी "

सुश्री  सुभद्रा कुमारी चौहान  की जिस वीर रस की कविता को बचपन में अपनी पाठ्य  पुस्तक में पढ़ कर पसंद किया था, आज उसी भावनाओं को 'झांसी की रानी' नामक टी वी सीरियल फिर जिन्दा कर  रहा है.

टी आर पी के मोह में ऐतिहासिक सत्यों और घटनाओ पर खूब मिर्च मसाला छिड़का गया होगा ,पर इसके लिए हम इस  प्रस्तुति के पीछे के लोगों को माफ़ कर ही सकते है क्योंकी ये तो हर टी वी शो की कहानी है और ये उनकी दाल रोटी (या घी पूरी) का भी तो सवाल है.

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई जैसे चरित्र तो हर देश- काल में मिलते है.  इंदिरा गांधी ,गोल्डा मायर ,किरण बेदी, सान्या मिर्ज़ा,  सोनिया गांधी , मायावती ,कल्पना चावला , इन्द्रा नूई जैसे कुछ नाम उदहारण के लिए याद दिलाना चाहूँगा. वैसे ये lsit काफी लम्बी हो सकती है. और अगर आप अपने आस पास के चरित्रों पर ध्यान  दें तो शायद कई नाम इसमे  जोड़  सके  , भले ही उनको  सार्वजानिक रूप  से इतनी प्रसिध्धी हासिल न हुई हो.  कुछ कर गुजरने का जज्बा अगर दिल में हो तो आपको पेटीकोट और बिंदी के दायरे में समेटकर नहीं रखा जा सकता.

जिस बात की ओर मैं इशारा कर रहा हूँ वह यह है कि कमजोरी या ताकत का सम्बन्ध लिंग से  नहीं है. न ही किसी जाति ,वर्ग या समुदाय से है. पर अपने अपने समुदाय,वर्ग और जातियों को कमजोर और पिछड़ा बता कर कुछ ताकतवर लोग आरक्षण के नाम पर वोट बैंक कमाने की जिस गंदी होढ में बेशर्मी  से खेल रहे है उससे किसी का भला नहीं होने जा रहा.  

महत्मा गाँधी ने  अपने समय में अस्पर्श्य लोगों को  हरिजन कह कर उनेहं उनका खोया सम्मान दिलाने का प्रयास किया क्योंकि उस समय मनुवादी व्यवस्था पर आधारित कुछ जाति विशेष को स्पर्श के  या मंदिर में घुसने के काबिल भी नहीं समझा जाता था  . बदलते समय और परिस्थितियों की मांग पर एक आउट ऑफ़ कांटेक्स्ट और आउट डेटेड परिपाटी को बदलने का एक क्रांतिकारी द्वारा किया गया यह एक सराहनीय प्रयास था.   

पर जाति या वर्ग को आधार बना कर  आरक्षण को बढ़ावा देने से समस्याए सुजझाने की बजाय और उलझ जायेंगी  सरकारी योजनाओं द्वारा लागू आरक्षण का फायदा हर बार की तरह  सिर्फ ताकत वर को ही मिलेगा. आरक्षण इलाज नहीं खुद एक बीमारी है .

जरूरत किसी उम्मीदवार को सरकारी कागज दिला कर कम पात्रता होने पर भी अधिकार दिलाने कि है ही नहीं. जरूरत इस बात की है कि सभी इंसानों को बुनयादी सुविधाए एक सामान दिलवाई जाये और फिर मेरिट के आधार पर चुनाव की निष्पक्ष और पारदर्शी  व्यवस्था हो .

मोजुदा हालत में तो ये एक कल्पना  ही लगती है.
क्या जनता के दिए हुए करों पर ऐश करती सरकारों से ये अपेक्षा ही बेमानी है?
या फिर झांसी की रानी के पद चिहों पर चलते हुए एक बीमार व्यवस्था से लड़ने के लिए क्रांति का बिगुल फूंकने का सहस फिर कुछ लोग कर पाएंगे?

अष्टांग योग : एक परिचय

योग का नाम सुनते ही आपके दिमाग में क्या तस्वीर उभरती है ?

शरीर को अजीब ढंग से तोड़ मरोड़ कर बैठा या जोर जोर से साँस लेता कोई व्यक्ति ?
या फिर आप उन आसनों या  प्राणायाम  के विषय में सोचते हैं जो आपकी जानकारी के दायरे में हों ?

योग असल में इन छोटी छोटी चीज़ो से कहीं ऊपर एक सम्पूर्ण जीवन प्रणाली है जिसे हजारों साल पहले महापुरुषों की उस जमात ने खोजा और रचा था जिन्हें हम ऋषि -मुनी कहते थे.
इस अदभुद  चीज का परिचय मैं अपने ढंग से देने का प्रयास यहाँ कर रहा हूँ.

कौन थे ये लोग और क्यों बनाई ये तकनीक ?

मेडिकल साइंस और इन्फोर्मशन टेक्नोलोजी के अनेको उत्पाद हम अपने दैनिक जीवन में इस्तेमाल करते हैं. एक कैप्सूल या इंजेक्शन लिया और बीमारी गायब. की बोर्ड या माउस पर कुछ बटन दबाये और अपने मनपसंद गाने को सुन लिया या हजारों मील दूर बैठे अपनों से बात कर ली. ये सब जादुई चीजे अपने आप नहीं हो जाती. इन उत्पादों को इस रूप तक लेन के लिए कितने ही प्रयोग किये जाते हैं और दिमाग खपाया जाता है. ये सब करने वाले भी हमारी और आपकी तरह के आम इन्सान हैं पर खोजी प्रवत्ति के. खोज को ही उन्होंने अपना लक्ष्य बना लिया है और मानवता के उत्थान के लिए वे समर्पित है. सरकार और व्यापारी इनको बढ़ावा देते हैं. इन्हें आजकल  हम रिसर्च स्कॉलर या साइंटिस्ट के नाम से जानते हैं.
इसी तरह के लोग हजारों साल पहले भी हुआ करते थे. आबादी से दूर जंगलों में वे अपना रिसर्च का काम करते थे और राजा- महाराजा भी उनका आदर करते थे. आम मान्यता के विपरीत इनमे से कई  लोग  गृहस्थ  जीवन  में रहते हुए ये सब कार्य करते थे. इन्हें ऋषी - मुनी के नाम से जाना जाता था.

इन्ही में से कई लोगो की खोज का विषय था , 'एक आम आदमी को स्वस्थ जीवन जीने की  तकनीक'. इसी को योग या योग विद्या के नाम से जाना गया. मान्यता है कि शिवजी ने पार्वती से योग विद्या का वर्णन सर्वप्रथम किया. यूँ तो पौराणिक ग्रन्थ जैसे वेद ,उपनिषद् और भगवत गीता में योग का उल्लेख  मिलता  है ,पर महर्षि पतंजलि ने अपने  'योग सूत्र'  में आठ अंगों वाले योग का एक मार्ग विस्तार से बताया है.  अष्टांग योग एक आठ अंगों वाली सम्पूर्ण प्रक्रिया है.

योग क्या है -
योग का अर्थ है जोड़ या जुड़ना . (अंग्रजी भाषा ने इसके सही उच्चारण को भी बदलकर 'योगा' के नाम से  परिवर्तित कर डाला है). अब प्रश्न यह है कि योग की तकनीक से हम किससे जुड़ते हैं. और इसका उत्तर यह है कि हम अपने आप से जुड़ते हैं. सुनने में शायद यह आपको अटपटा लगे, पर सच यही है. योग की अंतिम अवस्था को समाधी कहा जाता है. ये अवस्था शब्दों से परे है ,सिर्फ अनुभव की जा सकती है ,भाषा के सिमित दायरे में बताई नहीं जा सकती.

परोक्ष रूप से इसे 'आत्मा या जीवात्मा का परमात्मा से मिलन बताया गया है' पर परमात्मा कोई हम से अलग चीज नहीं है. ये एक परिकल्पना है. हमारे पास दिमाग जैसा सुपर कंप्यूटर और शरीर जैसा अदभुद संसाधन मौजूद है जिसके इसतेमाल से हम जो चाहे वह प्राप्त कर सकते है. पर इस जीवन की भाग दौड़ में हमारे मन की ट्यूनिंग कहीं बिगड़ जाती है बल्की कई बार तो ये भी ठीक से समझ में नहीं आता कि हम चाहते क्या हैं . हमारी हालत उस सरकार की सी होती है जिसके पास कानून बनाने की क्षमता तो होती है और अधिकतर लोग इन कानून को आसानी से मानाने को भी तैयार भी रहते हैं पर वो फिर भी अपना काम ठीक से नहीं कर पाती. इसका कारण यह होता है कि सरकार जिसका काम जनता के लिए निर्णय लेने का होता है वह अधिकतर अपने खुद के फायदे के लिए निर्णय लेने लगती है और ऐसा करना उसकी आदत बन जाती है. ऐसे में सरकार अपनी पहचान जनता से अलग समझने लगती है. अब यहाँ जरूरत सिर्फ इस सरकार से उसका सही परिचय भर करने की होती है.इस एक बोध के होते ही सब कुछ ठीक से चलने लगता है. बाहर से देखने में चीजे वही रहती है पर अन्दर से  महसूस  होता है एक खुशहाली और आनंद का अनुभव.

योग से भी  हमें बाहर से कोई भगवान आकर हमें कुछ अनूठा नहीं दे जाता. बस हमारा  अपने आप के  वास्तविक रूप से परिचय भर हो जाता है और एक बोध हो जाता है कि हे करना क्या है अपने जीवन में . फिर  उसके लिए जो भी करते हैं हम ही करते हैं पर उसमे आनंद  आता है और पूरा जीवन ही एक उत्सव बन जाता  है .

अष्टांग योग
अष्टांग योग के आठ अंग बताये गए हैं -

१. यम
२. नियम
३.आसन
४.प्राणायाम
५.प्रत्याहार
६.धारणा
७.ध्यान
८.समाधी

यम-  यम वह व्यवस्था है जिसके द्वारा सभी व्यक्तियों का समाज में रहना आसान  हो जाता है.  ये general guidelines है जिसका आचरण सामूहिक रूप से एक हमें व्यवस्थित रखता है. इनका आकलन निजी स्वार्थ की कसोटी पर नहीं किया जा सकता. ये हमारे सामाजिक  दायित्व है. 
उदहारण के लिए एक व्यवस्थित सड़क यातायात के लिए हम इन दो   व्यवस्थाओ  का प्रयोग करते है-

१. सभी वाहन चालक अपन बाये (यूरोप और अमेरिका में दायें) चलते है.
२. मुड़ने या रुकने से पहले इशारा करते है.

इनका महत्त्व अपने फायदे के लिए नहीं पर सबके फायदे में है. कुछ लोग (खास कर युवा वाहन चालक) इन छोटी छोटी और मामूली सी दिखती बातो के बारे में बात या विचार करना भी अपनी तौहीन समझते है. पर अगर हम किसी भी सड़क दुर्घटना का विश्लेषण करे तो उसके मूल में किसी एक पक्ष का ऐसी ही किसी मामूली सी बात की अनदेखी करना ही होता है.
 जिस समाज में उनके द्वारा बनाई गयी व्यवस्थ का पालन लोग इमादारी और मन से करेंगे वहां का traffic व्यवस्थित    तो होगा ही.

 इसी तरह यम भी एक स्वस्थ समाज के लिए  व्यवस्थाये है. ये है -       

(क) अहिंसा - शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को हानि नहीं पहुँचाना
(ख) सत्य - विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना
(ग) अस्तेय - जिस  चीज पर किसी दूसरे का हक़ है  उसे अपना न समझाना ,ये चोरी है
(घ) ब्रह्मचर्य - सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम और अनुशासन बरतना
(च) अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना

हममे से अधिकतर लोग इनके महत्त्व को समझते है पर शायद सब लोग मन से और इमानदारी से इनका पालन नहीं कर पाते हर बार. कुछ तार्किक प्रवत्ति के लोग सोचेंगे ,ये सब तो vague है -इन सब बातों का फैसला कौन   करेगा  कि  सच  क्या है और झूठ क्या? आवशयकता कितनी है? अनुशासन क्या है? अदि अदि. दरअसल ये प्रश्न इतने व्यापक है कि इनका जबाब किसी फिक्स्ड  फ़ॉर्मूला से नहीं निकला जा सकता .समय और परिस्थिति के अनुसार इनके अर्थ इतने बदलते रहते है कि इन्हें शब्दों में बांध हर परिभाषित नहीं कर सकते . योग में इन सवालों का जबाब  ढूँढने  की  जिम्मेदारी  भी  साधक पर ही छोडी गयी है. असल में जैसे ही हमें इन सवालों का सही जबाब (अपने परिप्रेक्ष में) मिलता है हम योगी हो जाते है और अपने सच्चे स्वरुप से हमारा परिचय हो जाता है.

नियम:  यम में जहाँ हमारे सामाजिक दायित्यों का बोध कराया गया है,वहीं नियम के द्वारा हमें व्यक्तिगत रूप से  अनुशासित   और स्वस्थ रखने का प्रयास किया गया है.  नियम कोई खास ढंग से काम करने की हिदायत नहीं है और इसे बंधन या मजबूरी के रूप में नहीं देखना चाहिए. ये हमारी चेतना को उन व्यवस्थाओं से  जोड़ने  का प्रयास है जो हमें स्वस्थ रखने में सहायक हो सकती हैं. इस बारे में हम अपनी परिस्थति और सीमाओं में रह कर जो भी श्रेष्ठतम  कर सकते है उसका प्रयास करना चाहिए.
पतंजलि ने ये नियम बताये है -

 (क) शौच - शरीर और मन की शुद्धि
(ख) संतोष - संतुष्ट और प्रसन्न रहना
(ग) तप - स्वयं से अनुशाषित रहना
(घ) स्वाध्याय - आत्मचिंतन करना
(च) इश्वर-प्रणिधान - इश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा

आसन और प्राणायाम
आसन और प्राणायाम तो योग के काफी प्रचलित अंग हैं. धीरेन्द्र ब्रह्मचारी, ओशो, रवि शंकर (आर्ट ऑफ़ लिविंग ), बी के एस  ऐयेंगेर अदि ऐसी अनेक शख्सियत हैं जिन्होंने इनको जन जन तक पहुँचने का कार्य किया है. और बाबा रामदेव (पतंजली योगपीठ ) ने तो प्राणायाम को नए आयाम दिए हैं . बड़ी सरलता से उन्होंने योग को साँस से जोड़ा है और वज्ञानिक रूप से परिणाम सामने लाये हैं.
मूल रूप से इनका परिचय इस तरह से है-

आसन:  आसन या योगासनों research  द्वारा स्थापित वो शारीरिक मुद्राये या posture  है जो एक स्वस्थ शरीर को maintain  करने में सहायक है. इन्हें जबरदस्ती करके अपने शरीर को कष्ट नहीं पहुंचना चाहिए जैसा कि कुछ लोग करते है, हर व्यक्ति को हर आसन करने की कोई जरूरत नहीं है. हमें वह आसन प्रक्टिस के लिए चुनना चाहिए जो हमारे जीवन में वांछित बदलाव ला सके. चुने गए आसन की अवस्था में हमें तब तक रहने चाहिए जब तक हमारा शरीर इसे प्रसन्नतापूर्वक करने की इजाजत देता है - फिर धीरे धीरे इस अवधी को बढ़ाना चाहिए.

प्राणायाम:  श्वास हमारे जीवन की डोर है. साँस अन्दर लेने पर एक उर्जा/ शक्ती और पदार्थ (हवा) कही बाहर से आकर  हमारे खून बनने की प्रक्रिया के लिए उपलब्ध होती है. इसका जितना हिस्सा हम ग्रहण कर लेते है वो हमारा हिस्सा बन जाता है.इस तरह हम हर स्वांस के साथ बदलते रहते है. ये वायु तो वास्तव में माध्यम है ,इसके साथ बहुत से सूक्ष्म पदार्थ न जाने कहाँ कहाँ से आकर जुड़ जाते है और साँस द्वारा  अंततः हमें मोका देते है अपने आपको बदलने का. जाने या अनजाने में हम हवा के माध्यम से इस विराट संसार की कितनी ही चेतनाओ और पदार्थों के गुण ग्रहण करते रहते है साँस लेकर. प्राणायाम की तकनीक द्वारा जहाँ के ओर हम लम्बी और गहरी साँस लेकर अपने लिए अधिक प्राण उर्जा उपलब्ध करते है वहीं दूसरी ओर उर्जा के इस विशाल भंडार से वही तत्व ग्रहण करने की कला सीखते है जो हमारे स्वस्थ जीवन में सहायक हो सके.

प्रत्याहार - इसका अर्थ है इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना. इश्वर ने हमें ५ इन्द्रिया दी है-
१. देखने की शक्ति
२.सुनने की शक्ति
३.छू कर या स्पर्श कर वस्तुओ को महसूस करने की शक्ति
४.स्वाद लेकर या चख कर जाने की शक्ति
५.सूंघ कर पहचानने की शक्ति.

इन सभी शक्तियों का इस्तेमाल हम बाहर की दुनिया को पहचान करने में करते है. पर हमारी अपने बारे में जो जानकारी होती है वह दूसरो द्वारा हमारे बारे में दी गयी सूचनाओ के आधार पर बनी एक image मात्र होती है. इस image को बनने में जहाँ दूसरो की नजरें काम करती है वही उनका नजरिया भी इसे बनाता है जो हमारे नज़रिए से अलग हो सकता है. इस image को अपनी वास्तविक पहचान मान कर हम जो निर्णय लेते है वह हमेशा स्वस्थ  नहीं रह  पाते.  प्रत्याहार की तकनीक द्वारा हम अपने आप को पहचानने के लिए अपनी ही इन्द्रियों या शक्तियों का सहारा लेते है और किसी दूसरे के द्वारा दी कृत्रिम जानकारी के बजाय अपने बारे में स्वयं जानकारी इकठा करना सीखते है.

 धारणा:  धारणा  का अर्थ है एकाग्रचित्त होना. आप पूंछेंगे  , 'किस पर '? तो इसका जबाब है, 'किसी भी चीज पर जो आपको ठीक लगे'. यहाँ महत्त्व इस बात पर नहीं है कि आप कहाँ focus कर रहे है. महत्वपूर्ण यह है कि आप focus करने में समर्थ है. हमारा मन बड़ा चंचल है. ये हमें जगह जगह भटकता रहता है और हम आदतन इसके गुलाम बन जाते है. फिर  हम  किसी   भी चीज पर ज्यादा देर तक ध्यान देने के काबिल ही नहीं रहते. अपने मन को एक मालिक की तरह इस्तेमाल कर पाने के लिए यह तकनीक बनाई है.

 ध्यान:  किसी चीज का ज्ञान भर हो जाने से हम उसे इस्तेमाल में नहीं ला पाते. हमें हर समय इस बात का अहसास भी होना चाहिए कि ये  ज्ञान या विद्या जो  हमारे पास है उसे अपने जीवन में प्रयोग के लिए उतारें.  निरंतर इस बात को ध्यान में रखना ही  ध्यान  है. परोक्ष रूप से इसे इश्वर का ध्यान बताया गया है पर वास्तव में यह विवेकपूर्ण (और विचार शून्य) जीने की कला है. इस अवस्था में रहने पर हमारे अधिकतर कार्य conscious mind से operate  होते  है unconscious mind से नहीं (सामान्य लोगो की तरह)
 समाधि: योग की अंतिम अवस्था समाधी है. यह  शब्दों से परे रक परम-चैतन्य की अवस्था है. स्वयं की आत्मा से जुड़ कर परमात्मा बनने का कार्य यहाँ संपन्न होता है.

अत:  योग शरीर के लिए केवल एक प्रकार का व्यायाम ही नहीं है.यह एक  प्राचीन तकनीक  है जोकि स्वस्थ्य , सुखमय ओर शांतिपूर्ण जीवन का ढंग है जो अंतत स्वयं से मिलाता है !

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