घोटालों को घोट कर पी जाने की कला

IPL का महा घोटाला अब धीरे धीरे ठंडा पड़ने लगा है. हमाम के नंगो ने एक दूसरे को नंगा कहना बंद कर दिया है. पिछले कई घोटालों की तरह इस बार भी हमारी जनता इस घोटाले को घोट कर पी ही जायेगी. जाँच की लीपापोती होने तक असल मुद्दे और असली दोषी गायब होने का कोई न कोई बहाना ढून्ढ ही लेंगे. सालों बाद कुछ बलि के बकरे मिल भी गए तो हमारा सुस्त और लाचार कानून उन्हें गुदगुदगी भर कर के छोड़ देगा.

घोटालों के हम अब आदी हो गए है. एक नशेड़ी की तरह अब हमें बड़े से बड़ा या नए से नया  घोटाला ज्यादा देर तक किक नहीं दे पाता. मीडिया इस बात को अच्छी तरह से पहचान चुका है औत नए नए मुद्दे थोड़ी थोड़ी देर  के  लिए  परोसरा रहता है.

 इस देश के तीस करोड़ लोग दो वक्त की रोटी कमाने के लिए रोज संघर्ष करते है. बाकी कई करोड़ मिडिल क्लास का चोगा ओढ़ कर अपनी इज्जत बचाने में लगे रहते हैं. हजारों से  ज्यादा रुपये इन्होने सिर्फ फिल्मों या किताबों में देखे सुने होते हैं.  अपनी रोजमर्रा  की जिन्दगी में चंद रुपयों की झलक भर देख लें तो इनके लिए जशन का सा माहौल   होता है. करोडो और अरबों रुपयों का खेल इनकी समझ से परे है. कौन कितने करोड़ रुपये डकार गया ,इसकी दिलचस्पी इन्हें बस चुटकी लेने तक ही है. इसके बारे में ज्यादा सीरियस होना या खोज पड़ताल करने कि फुर्सत इन्हें मीडिया के उकसाने पर भी नहीं.

जनता का काम इस विश्वास से चल ही  जाता है कि बड़े ओहदे पर बेठे नेता, अफसर और व्यापारी सब कुछ उनके भले के लिए ठीक तरीके से कर रहे होंगे. जो गलत करते होंगे उन्हें कभी न कभी कानून के लम्बे हाथ दबोच ही लेंगे.

पर कोई भी पद मिलने पर ज्यादातर लोग उससे रुपये कमाने की योजनाये पहले ही बना कर रखते है. और कानून के हाथ लम्बे जरूर है पर वो बिचारा अँधा और लाचार भी है और बड़ी सुस्ती चल से चलता है.इससे छोटे मोटे मच्छरों का ही शिकार हो सकता है ,आदमखोर शेर का नहीं.

कोई भी बड़ा  घोटाला दो चार  लोगों के बेईमानी  करने भर से नहीं हो जाता. इसे बढ़ावा देते हैं इसमे शामिल हजारों  लोग जो छोटी छोटी गलतियों को देख कर भी अनदेखा करते है. 'इतना तो चलता है' के चक्कर में इतना इतना कर के हम सब मिल कर कितना खो देते है ये अहसास जब तक होता है 'चिड़िया खेत चुग चुकी' होती है.

आज जरूरत इस बात की है कि इमानदारी से पैसा कमाकर  दिखाने वाले लोग आगे आयें और लोगों के मन से इस सड़े हुए विश्वास को निकाल फेंके कि पैसा सिर्फ बईमानी से ही कमाया जा सकता है.

ये महंगाई क्या हमें मार डालेगी ?

आजकल मंगाई का मुद्दा गरमाया हुआ है.
विरोधी पार्टी हों या मीडिया, कोई भी इस मोके पर सरकार को उंगली कर के  इस गर्म तवे पर अपनी रोटियां सेकने से बाज नहीं आ रहा.
क्यों न हो , जब प्याज के भाव पर एक सरकार गिराई जा  सकती है तो दाल और गैस पर दूसरी को गिराने  की  कोशिश  करने में क्या हर्ज है.

इस सारे प्रकरण में हमेशा की तरह जो ठगा जा रहा है वो है आम आदमी.

 उदारीकरण की झोंक में सरकार ने हर चीज के दाम को बाजार के रहमोकरम पर छोड़ दिया और खुद को बेबस और लाचार बना डाला. मुनाफाखोरों ने जम कर इसका फायदा उठाया है.

पर जहाँ सरकार बेबस नहीं है वहां भी कुछ नहीं कर रही.  बद-इन्तजामी का ये आलम है कि हजारों टन अनाज जहाँ सरकारी गोदामों में सड़ रहा है , वहीं करोडो लोग दो वक्त की रोटी भी नहीं जुटा पाते और सैकड़ो गरीब किसान भूख और कर्ज से तंग आकर आत्महत्या कर रहे है.

आजादी के बासठ साल बाद भी अगर सरकार जनता को बुनियादी हक़ नहीं दे पा रही तो ऐसी आजादी के क्या म़ाइने     ? मकान तो छोडिये ,पेट भर रोटी और तन ढापने लायक  कपड़ा तो सबका हक़ बनता ही है ,चाहे कोई कितना भी नाकारा या गंभीर अपराधी ही क्यों न  हो.

लचर न्याय व्यवस्था पर आस जगाये बैठे तथा  भ्रष्ट राजनीतिज्ञों और अफसरों  को ढोते हुए आम आदमी के लिए महंगाई कोई मुद्दा भर ही नहीं है जिस पर बहस कर उसे टला जा सके. ये तो एक सच्चाई है जिसका सामना उसे दिन रात करना पड़ता है.

ऐसे कई सच्चाइयों को  झेलते - झेलते भारतवासी अब काफी मजबूत हो चुका है उस मच्छर की तरह जिस पर अब किसी भी मच्छरमार तरीके का अब असर नहीं होता.

महंगाई के कड़वे घूँट को गरीब आदमी तो चुपचाप पी जायेगा ,पर हमारे राजनेताओं और मीडिया को बहत ज्यादा दिन इससे खेला नहीं जायेगा . हमेशा की तरह वो कुछ दिन बाद कुछ और मुद्दा पकड़ लेंगे चर्चा और बहस के लिए.  अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए उन्हें तो मुद्दे चाहिए गर्म गर्म और नए नए. उन मुद्दों का हल निकले या नहीं इससे उन्हें कोई खास फर्क नहीं पड़ता.

चित्र जिफैनीमेशन द्वारा

ये आइडिये आखिर आते कहाँ से हैं !

मेरे एक मित्र श्री विजय कुमार तायल ने फोन कर मेरी ब्लॉग की एक पोस्टिंग की तारीफ की और साथ में एक सवाल भी जड़ दिया , 'यार, ये सब लिखने के लिए तुम्हें आईडिया आते कहाँ से हैं ?

मैंने उस वक्त तो उनसे कह दिया कि 'ये तो मेरा ट्रेड सीक्रेट है' , पर बाद   में सोचा ,' अरे ,ये सवाल भी तो अपने आप में एक आईडिया है और क्यों न इसी पर एक ब्लॉग पोस्टिंग लिख दी जाय .

एक लेखक या कलाकार को अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए आईडिया  का होना लाइफ लाइन या प्राण की तरह है. नए नए आईडिया मिल जायें तो टोनिक का काम करते हैं और एक कलाकार सब कुछ भूल कर अपनी crativity
के द्वारा उसको एक सुन्दर रूप दे डालता है जो अक्सर सराहा जाता है.

पर सवाल तो आखिर यह है कि आईडिया जन्म कैसे लेते हैं एक कलाकार के दिमाग में. मेरे अपने व्यक्तिगत अनुभव और विचार मैं यहाँ व्यक्त कर रहा हूँ-

captions और one - liners - कहीं अपने कोई caption लिखी देखी या किसी से कोई one liner dialiogue सुना जो आपके मन को भा गया. बस मिल गया आपको एक टॉपिक लिखने को. अभिनेता अक्षय कुमार ने एक बार एक interview में कहा था कि उसने एक ट्रक के पीछे लिखा देखा 'Singh is king ' और सोच लिया कि वह इसी title ओर theme पर फिल्म बनायेगे और कई सालों की मेहनत के बाद अपना सपना सच कर दिखाया.

सवाल जो चुभ जाये या मन को हिला दे -किसी ने आपसे सवाल किया जो आपको विचलित कर दे. बस दिमाग में एक स्पार्क होता है और आईडिया हाजिर हो जाता है. ठीक वैसे ही जैसे एक सवाल ने मुझे ये ब्लॉग पोस्टिंग लिखने को मजबूर कर दिया है.

समस्या - आपकी किसी समस्या से मुलाकात हुयी (चाहे वो अपनी हो या किसी और की ), बस दिमाग का मीटर चालू हो जाता है. उस समस्या के समाधान का आपका नजरिया क्या है वह आपकी रचनाओं में प्रतिबिंबित होने लगता है.    

भावनाए - इस छोटे से दिल में हर कोई अनगिनत भावनाएं छुपा कर रखता है. लेखक वह प्राणी है जिसको इन में से कई भावनाओं को जाहिर करने का सम्मानित मौका  मिल जाता है.

प्रेरणा -अपने कोई किताब ,कहानी या लेख पढ़ा और उस से आप प्रभावित हो गए. बस अपने उस (एक या कई) प्रस्तुती को अपने अंदाज में ढाल कर (या फिर खिचडी या cocktail बना कर) अपना नाम दे डाला. ये remixing का जमाना है भाई.

मुकाबला - 'उसकी साड़ी मेरी साडी से सफ़ेद कैसे ?' कई बार रचनाये प्रतिस्पर्धा की भावना से भी रची जाती है. यहाँ दूसरे से बेहतर लिखने का जज्बा इतना तीव्र होता है कि जो भी बात उस वक्त दिमाग में पहले आती है उस पर अपनी कलाकारी के जौहर  दिखाकर एक रचना तैयार हो जाती है.

मजबूरी- लेखक एक इंसान भी है और उसे भी पापी पेट को पालना है.  इसलिए वह बिचारा कभी कभी जो बिकता है वो लिखता है.  ऐसे में idea  लेखक के दिमाग से नहीं बल्कि जनता जनार्दन की मर्जी से आते हैं  .

अंत में यह भी लिखना चाहूँगा कि लेखक बनाने से पहुत पहले से  मैं एक बहुत बड़ा पढ़ाकू भी हूँ. पढ़ाकूपन की इस दीवानगी  और प्यास में मैंने  औरों के द्वारा रची हुयी हजारों रचनाओं का स्वाद लिया है.  इन्ही पसंदीदा  रचनाओं में से मुझे कई आईडिया मिल जाते हैं.  अगर कभी आईडिया के इस खजाने में कोई कमी महसूस करता हूँ तो नयी नयी किताब, ब्लॉग या मैगजीन पढ़ता हूँ, फिल्म देखता हूँ गूगलिंग करता हूँ या जो भी  इंसान मिलता है उससे बतियाता हूँ.

 ideas  तो बिखरे पड़े है हर जगह ,पर हमें अपने antenna  को tune  up  करना पड़ता है अपने हिसाब से उन्हें ग्रहण करने के लिए  .

चित्र -आभार freeimages  

भूल

मर्केटिंग की ट्रेनिंग अपने कहीं से भी ली हो , उसमे सिखाया यही जाता है कि एक ग्राहक से कैसे पेश आना है. जब कोई इंसान ग्राहक बन कर हमारे सामने आता है तो हमें मौका मिलता है और  हम उस ट्रेनिंग का इस्तेमाल करते हैं अपना माल बेचने के लिए.

मेडिकल की ट्रेनिंग अपने कहीं से भी ली हो  उसमे सिखाया यही जाता है कि एक मरीज  से कैसे पेश आना है. जब कोई इंसान मरीज बन कर हमारे सामने आता है तो हमें मौका मिलता है और  हम उस ट्रेनिंग का इस्तेमाल करते हैं उसके इलाज के लिए .

परिवार में रहने  की ट्रेनिंग अपने कहीं से भी ली हो , उसमे सिखाया यही जाता है कि अपनो से कैसे पेश आना है. जब कोई इंसान अपना  बन कर हमारे सामने आता है तो तो हमें मौका मिलता है और हम उस ट्रेनिंग का इस्तेमाल करते हैं उससे सम्बन्ध बनाने के लिए.


धर्म  की ट्रेनिंग अपने कहीं से भी ली हो , उसमे सिखाया यही जाता है कि भगवान से कैसे पेश आना है. जब कोई इंसान जो भगवान का ही रूप है , हमारे सामने आता है तो हम न जाने  कैसे भूल जाते  हैं कि हमें उस ट्रेनिंग का इस्तेमाल करना है ,उसकी पूजा करने को. 

















श्री कंप्यूटराय: नम:

कंप्यूटर देवता को मेरा प्रणाम.

आजकल हमारी दुनिया में जो भी घटनाएँ होती हैं वो आपकी ही मर्जी से होती  हैं. हम जो भी कुछ कहते  - सुनते और करते हैं वह सब आपके ही माध्यम से होता है. आपके अनेक रूप हैं. कहीं आप लेपटोप कहीं डेस्कटॉप कहीं ATM या किओस्क के रूप में नज़र आते हैं. घर हो या दफ्तर , फेक्ट्री हो या हवाई जहाज   हर जगह आप किसी न किसी रूप में विद्यमान हैं.  आपकी लीलाएं अपार हैं. हम मनुष्य तो बस आपके हाथों की कठपुतली भर हैं.  आप देवी नेटवर्किंग की कृपा से हमें जब चाहे जिस से जोड़ सकते हैं.

हम तो बस request ही कर सकते हैं. आप हमारी और हमारे जैसे अनेक लोगों की requests  सुन कर अपना फैसला सुनाते हैं. सब आपके फैसलों के गुलाम हैं. बैंक, airlines, railways ,insurence ,superbazars  सब जगह आपका ही दबदबा है. संसद हो या टीवी, सेल फ़ोन हो या ओलंपिक सब आपकी दया द्रष्टि के मोहताज हैं. आफिस में  बॉस और घर में बीबी तो नाम के लिए हुक्म चलते हैं, असली हुक्म तो हर जगह आपका ही चलता है. हीरो को जीरो और जीरो को हीरो बनाना आपके बाएँ हाथ का खेल है.

आपकी लीला अपरम्पार है.कुछ लोगों को आप   डम्ब टर्मिनल तो कुछ को मेल सर्वर, फाइल सर्वर,DNS सर्वर, http सर्वर और अन्य कई तरह के रूप में दर्शन देते हो. कुछ लोग आपके भोतिक स्वरुप ( hardware )  का ध्यान करते हैं तो तो कुछ लोग अपनी ज़िंदगी आपके दिव्य स्वरुप ( software ) की आराधना में लगा देते हैं.
मीडिया जगत आपके ही बल बूते पर फल फूल रहा है. इलेक्ट्रोनिक मीडिया की तो लाइफ लाइन ही आप हैं. प्रिंट मीडिया भी आपकी शरण में आकर ही इतना glamorous हो गया है. आम आदमी भी आपकी महिमा को अब जान गया है. middle - class आपके PC (personal computer) रूप की सेवा अर्चना में काफी समय लगा रहता है. जो लोग आपके इस रूप की मूर्ती अपने घर पर स्थापित नहीं कर पाते उनमे से कुछ आफिस में बॉस की नज़र बचा कर और कुछ साइबर-कैफे पर जाकर आपकी सेवा करते हैं.

सरकार जो एक पिछड़ी संस्था मानी जाती है वो भी इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के माध्यम से आपको स्मरण कर लेती है.
हे देवता अपनी कृपा द्रष्टि हम पर बनाये रखना.

कंप्यूटर देवता की इस महिमा को पढ़ने के बाद कम से कम १०००० और लोगों को पढ़ा दें .ऐसा न होने पर हो सकता है आपके कंप्यूटर पर virus का प्रकोप हो जाय, आपका सारा डाटा गायब हो जाय या आपका इन्टरनेट कनेक्शन आपसे छिन जाय.

छोटी पैकिंग बड़ा दिमाग

हफ्ते भर में गोरा बनाने की क्रीम हो या बालों को लम्बा और मजबूत बनाने का शेम्पू , आज हर चीज आपको छोटे से शेशे में मिल जायेगी, एक-दो या पांच रूपये भर में. ये सुविधा सिर्फ महानगरों के शोरूम या मॉल में नहीं बल्कि छोटे से छोटे गोंव या कसबे में और आपके गली मोहल्ले के नुक्कड़ में भी आसानी से मिल जायेगी.
अगर पैकिंग को देखें तो उम्दा दर्जे की मिलेगी जिस पर अच्छा खासा खर्चा आता होगा. और इस एक दो रूपये के उत्पाद को आपको अपने  मनपसंद  सितारे  टेलीविजन , मैगजीन या बड़ी बड़ी होर्डिंग्स पर बेचते नजर आएंगे. सुना है इसके लिए वो करोडो रुपये लेते हैं. देश के कोने कोने में फैले हजारों या कभी कभी लाखों दुकानों और शोरूम तक रातों रात पहुँचने में कितना खर्चा आता होगा? और कंपनी के कितने ही अधिकारी जो लाखों रुपये (कभी कभी करोड़ों ) की तनखा वसूलते हैं इस उत्पाद को सफल बनाने में अपना समय देते होंगे. महंगे और नामी विशेषज्ञों की राय भी जरूर ली जाती होगी तगड़ी फीस अदा कर के.  इन सब के आलावा उसके बनाने में भी कुछ न कुछ तो खर्च होता ही होगा?

इन सब के बाद क्या एक रुपये की बिक्री में दस बीस पैसे बच जाता होगा,सरकार को सारे टैक्स देने के बाद?

विज्ञान ,तकनीक और नेटवर्किंग की इस आधुनिक दुनिया का ये अदभुद महागाणित है.

अपनी बात

एक छोटी सी कहानी से अपनी बात शुरू करना चाहता हूँ --
काफी पहले के समय की बात है, एक आदमी अपनी मंजिल की तरफ जा रहा था. उसे जल्दी ही एक गाँव में पहुंचना था. गलियों और पगडंडियों से होता वो  तेजी से चल रहा था. उस ज़माने में लोग रास्ता मील या किलोमीटर में नहीं नापते थे. इनका अभी अविष्कार भी नहीं हुआ था.  अब सुनकर शायद अटपट अलगे पर उस वक्त रास्ता नापने के लिए समय के सन्दर्भ में बात की जाती थी - जैसे फलां जगह जाने में २ घंटे लगेंगे या ३ दिन लगेंगे.
खैर, सूनसान रास्ते पर चलते हुए उस आदमी को एक जगह एक आदमी बैठा दिखाई दिया. अपनी मंजिल की दूरी जानने के लिए इसने सवाल किया, भैया ,फलां गाँव कितनी दूर है? पर उसे कोई  जबाब नहीं मिला. 'शायद वो आदमी जिससे उसने रास्ता पूंछा है बहरा होगा',उसने सोचा.
थोड़ी ही देर में उस आदमी ने जिसको वह बहरा समझ रहा था पीछे से आवाज लगाई ,'ओ अजनबी ,आधे घंटे में तुम अपनी मंजिल तक पहुँच जाओगे. ये सुन कर वो बड़ा हैरान हुआ और उसे गुस्सा भी आया. उसने झल्लाकर कहा, 'ये बात तुम पहले नहीं बता सकते थे! '. इसका जो जबाब उसे मिला वह विचारणीय है. उसने कहा ,'जब तक मैं तुम्हारी चाल नहीं देख लेता कैसे बताता कि वहां पहुँचने में कितना समय लगेगा'.  

जमाना चाहे कितना ही बदल गया हो पर उससे इस बात का महत्त्व काम नहीं हो जाता कि हम किसी दूसरे को कुछ बताते समय अपने मापदंडों पर तोल कर बताने की बजाय उन मापदंडों की जानकारी हासिल करें जिसे दूसरा आदमी समझ सके.

आज जमाना बहुत तरक्की कर चुका है पर दूसरे क्या हम अपनी बात दूसरों के सामने रखते हुए इस पर विचार करते हैं कि उनके सन्दर्भ में हमारे पास अपनी बात रखने के लिए सामर्थ्य है या नहीं. मैंने बड़े बड़े मंचों से कई लोगों को लम्बी लम्बी बातें करते सुना है. पर वो ये भूल जाते हैं कि उनकी बातों का सटीक असर तभी हो सकता है जब वे  उसी  भाषा और सन्दर्भ में बात करे जिसमें सुनने वाले लोगों की समझ में आसानी से आ जाये. 

क्या मेरी ये बात आपकी समझ में आयी?
 या मैं भी उसी दोष से पीड़ित हूँ जिसकी मैं आलोचना कर रहा हूँ?

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