पैक अप होते ही भीड़ का एक रेला उसकी एक झलक पाने को सारे बंधन तोड़ कर उस तक पहुँचना चाहता था, मगर कार के दक्ष ड्राइवर ने सधे हुए नपे तुले हाथों से एक पल में ही गाड़ी ठीक उसके सामने लगा दी,फिर लपक कर बड़ी नफासत से दरवाजा खोल कर खड़ा हो गया. पलक झपकते ही कार चल दी. वही बेजान सी सड़क. ट्रेफिक का वही चित परिचित शोर. करीने से लगी हुई वही स्ट्रीट लाइट की लाइन .ड्राइवर ने उसकी पसन्द का गाना लगा रखा था पर उसका मन उचट हुआ था एक और बोझिल और यंत्रवत दिन की शूटिंग के बाद.
ऊपर असमान सितारों से भरा था ,मगर सितारों को देखा कर उसकी आँखों में वो चमक नहीं होती थी जो बचपन में हुआ करती थी. अब उसे रोशनी में जीने की आदत हो गयी थी.
बचपन में उसे कितना अच्छा लगता था गर्मियों की शाम को जब खुले आँगन में वो चारपाई पर पड़े पड़े अनगिनत सितारे देखा करती थी. कितने सपने कितने ख़यालात बनते थे उन सितारों के आस पास. सोच कहाँ कहाँ दोड़ती थी. दिन में फ़िल्मी सितारों के आसपास और रात में आसमान के सितारों के आसपास- एक एक से वो घंटों बातें किया करती थी.
तब वो सोचती थी कि फ़िल्मी सितारों की जिन्दगी कितनी आरामदायक होती होगी. उनको कोई उलझन , कोई परेशानी नहीं होती होगी. पर कितना गलत थी वो. फ़िल्मी सितारा बनकर उसकी उलझने कितनी बढ गयी थी. हमेशा उलझनों में ही रहती थी वो तो अब. हाँ , पर उसे अपनी उलझाने छुपा कर बनावटी बातें बनाना आ गया था अब. वो मस्ती, वो तफरी ,सब हवा हो गयी. जीवन में जो उमंग, जो रस था वो न जाने कहाँ चला गया था . अब तो एक निष्प्राण दिनचर्या थी.
आज कितने हे लोगों के ख्यालों में वो बसी थी ,राज कर रही थी. वो उसके बारे में न जाने क्या क्या सोचते होंगे, उसे सितारा समझ कर मचलते होंगे ,बच्चे भी ,बूढ़े भी. पर उसकी अपनी भावनाए कहाँ चली गयी? जिन्दगी कितनी ही नपी तुली और बनावटी घटनाओं से भर गयी थी.
कितने ही clippings flash back की तरह से उसके आँखों के सामने से निकल गयीं . उसका कमरा भरा हुआ फ़िल्मी पोस्टरों से. हर चेहरा एक नयी जिन्दगी की उमंग जगाता था , एक कहानी कहता था. हर नई फिल्म को पहले शो में जाने को मचलना और तड़पना . टिकेट के लिए घंटों लाइन में खड़े रहना .कालेज से मीलों भाग कर घर से छुप छुप कर फिल्म देखने जाना. किसी फ़िल्मी सितारे को देख कर औटोग्राफ के लिए भागना. दिन भर कालेज में फिल्मों के बारे में बातें करना ,बहस करना.एक अजीब मस्ती ,नशा , खुमार सा था.
अब वो ढूँढती थी उस जीवन को रोज रोज की पार्टियों में ,जहाँ वहीघिसी पिटी बातें और वही घिसे पिटे charecters मिलते थे , चेहरे पर बनावटी मुस्कान लिए . शूटिंग में जहाँ सब कुछ पहले से ही तय होता है और भावनाएं भी नकली होती हैं .
क्या कुछ नहीं पा लिया उसने जीवन में - यश, धन. अब जो वो चाहती थी वही हाजिर हो जाता था पलक झपकते ही ,पर सारी चाहतें न जाने कहाँ गुम होती जा रही थी.
सारे ख्यालों को एक तरफ झटक कर वो चल दी रात की पार्टी के लिए तैयार होने.

ऊपर असमान सितारों से भरा था ,मगर सितारों को देखा कर उसकी आँखों में वो चमक नहीं होती थी जो बचपन में हुआ करती थी. अब उसे रोशनी में जीने की आदत हो गयी थी.
बचपन में उसे कितना अच्छा लगता था गर्मियों की शाम को जब खुले आँगन में वो चारपाई पर पड़े पड़े अनगिनत सितारे देखा करती थी. कितने सपने कितने ख़यालात बनते थे उन सितारों के आस पास. सोच कहाँ कहाँ दोड़ती थी. दिन में फ़िल्मी सितारों के आसपास और रात में आसमान के सितारों के आसपास- एक एक से वो घंटों बातें किया करती थी.
तब वो सोचती थी कि फ़िल्मी सितारों की जिन्दगी कितनी आरामदायक होती होगी. उनको कोई उलझन , कोई परेशानी नहीं होती होगी. पर कितना गलत थी वो. फ़िल्मी सितारा बनकर उसकी उलझने कितनी बढ गयी थी. हमेशा उलझनों में ही रहती थी वो तो अब. हाँ , पर उसे अपनी उलझाने छुपा कर बनावटी बातें बनाना आ गया था अब. वो मस्ती, वो तफरी ,सब हवा हो गयी. जीवन में जो उमंग, जो रस था वो न जाने कहाँ चला गया था . अब तो एक निष्प्राण दिनचर्या थी.
आज कितने हे लोगों के ख्यालों में वो बसी थी ,राज कर रही थी. वो उसके बारे में न जाने क्या क्या सोचते होंगे, उसे सितारा समझ कर मचलते होंगे ,बच्चे भी ,बूढ़े भी. पर उसकी अपनी भावनाए कहाँ चली गयी? जिन्दगी कितनी ही नपी तुली और बनावटी घटनाओं से भर गयी थी.
कितने ही clippings flash back की तरह से उसके आँखों के सामने से निकल गयीं . उसका कमरा भरा हुआ फ़िल्मी पोस्टरों से. हर चेहरा एक नयी जिन्दगी की उमंग जगाता था , एक कहानी कहता था. हर नई फिल्म को पहले शो में जाने को मचलना और तड़पना . टिकेट के लिए घंटों लाइन में खड़े रहना .कालेज से मीलों भाग कर घर से छुप छुप कर फिल्म देखने जाना. किसी फ़िल्मी सितारे को देख कर औटोग्राफ के लिए भागना. दिन भर कालेज में फिल्मों के बारे में बातें करना ,बहस करना.एक अजीब मस्ती ,नशा , खुमार सा था.
अब वो ढूँढती थी उस जीवन को रोज रोज की पार्टियों में ,जहाँ वहीघिसी पिटी बातें और वही घिसे पिटे charecters मिलते थे , चेहरे पर बनावटी मुस्कान लिए . शूटिंग में जहाँ सब कुछ पहले से ही तय होता है और भावनाएं भी नकली होती हैं .
क्या कुछ नहीं पा लिया उसने जीवन में - यश, धन. अब जो वो चाहती थी वही हाजिर हो जाता था पलक झपकते ही ,पर सारी चाहतें न जाने कहाँ गुम होती जा रही थी.
सारे ख्यालों को एक तरफ झटक कर वो चल दी रात की पार्टी के लिए तैयार होने.

चकाचौंध भरे जीवन की यही कहानी है ..........बहुत उम्दा लिखा..बधाई !
ReplyDeleteउस जीवन की अच्छी अभिव्यक्ति..मन तो घबराता ही है चकाचौंध से भी.
ReplyDeleteachha likha hai,,
ReplyDeletebadhai..
अलबेला 'खत्री', उड़नतश्तरी, जयराम 'विप्लव' और आमीन जी - आप सभी को टिप्पणी लिखने और रचना पसंद करने के लिए धन्यवाद.
ReplyDeleteस्वागत है आपका ।
ReplyDeleteशुभकामनायें ।
Bahut khoob!
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