मेरे घर आना जिंदगी

जिंदगी जो घर बनाने के चक्कर में कहीं खो सी गयी है उसका पता ढूँढ रहा हूँ हर जगह

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दीपक दीक्षित
पढने के शौक ने धीरे धीरे लिखने की आदत लगा दी . अब मेरे लिखे को और लोग पढेंगे और सराहेंगे तो समझूंगा कि जीवन धन्य हो गया. आत्मा शरीर में ,रोशनी अँधेरे में , Software Hardware में , सफ़ेद काले में, इंसानियत मशीनों में, आनंद रस्मे निभाने में और जिंदगी घर बनाने में कहीं खो सी गयी है और लगता है कि ये भी कोई जीना है लल्लू / लल्ली . हम हर बार जहर को दवा समझ कर चुनते हैं और कुछ और बींमार होकर चुनने की ताकत ही खोते जाते हैं. क्या अच्छा है क्या बुरा है ,क्या ठीक है क्या गलत ये समझने के बाबजूद भी अपनी ही भ्रष्ट व्यवस्था के चलते ‘सही/अच्छा’ ढूँढ नहीं पाते –चुनना तो दूर की बात है. कारवां गुजर जाता है और गुबार देखते रह जाते हैं. अगर आप भी मेरी तरह विचार रखते है और चोट खाए हुए हैं तो इस महफ़िल में आपका स्वागत है. चलो मिल कर कुछ अपनी कहें, कुछ उनकी सुने, सफर कट जायेगा....
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