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कई साल पहले की बात है , मैं दिल्ली में नौकरी करता
था. सर्दियों की एक सुबह स्कूटर पर मैं गाज़ियाबाद से अपने ऑफिस जा रहा था . रोज की इस दिनचर्या में
स्कूटर के साथ दिमाग में विचार भी अपनी गति और दिशा में दौड़ रहे थे. सड़क खाली थी पर
धुंध की वजह से दिखाई ठीक से नहीं दे रहा था . तुर्कमान गेट के पास अचानक एक छोटा बच्चा
मेरे सामने आ गया. एकदम से विचारों का ताँता टूट गया और मैं हकीकत की जमीन पर आ गिरा.
आनन् फानन में लगाए गए ब्रेक की "चीं...." की आवाज ने सड़क की निशब्दता भी
तोड़ डाली .
मेरे स्कूटर ने रूकते रूकते
उस बच्चे को जरा सा छू ही लिया जिससे डर कर वह गिर पड़ा. मैं और कुछ सोचता या करता उससे
पहले अचानक मैंने दर्जनों आदमियों के बीच में घिरा पाया जो न जाने कहाँ से प्रकट हो
गए थे. "ये गाड़ी वाले पैदल चलने वालों को इंसान ही नहीं समझते..",सड़क पर चलना दुश्वार है
..", "...बच्चा मरते मरते बचा है.",
"मारो साले को.."ये
सब प्रवचन उन लोगों के मुंह से निकल रहे थे. उनके हाव भाव देख कर मेरी घिघ्गी बंध गयी
. मुझे लगने लगा कि शायद आज तो अपना 'राम नाम सत्य...' हो जायेगा.
इससे पहले कि मेरा कोई अहित
होता अचानक ही देवदूत कि तरह वो छोटा बच्चा भाग कर मेरे और मेरे आक्रमणकारियों के बीच
प्रकट हो गया और मेरे को बचाते हुए बोला, "इन साहब की कोई गलती नहीं है. मैं ही अचानक
सड़क पर भाग रहा था और मेरे कोई चोट नहीं लगी है. इन्होने तो समय पर ब्रेक मार कर मुख्य
बचा लिया." पीड़ित बच्चे की बात समझकर उन लोगों ने मुझे जाने दिया. हड़बड़ी में मैं
उसका शुक्रिया भी अदा न कर सका.
बापस जाते समय और शांति
से सोचने पर मुझे लगा कि शायद गलती मेरी ही थी पर फिर भी उस बच्चे ने मेरी जान बचने
की खातिर झूठ बोला था . 'उसने मेरी जान क्यों बचाई
, मैं तो उसे जनता भी नहीं
था ?' इस सवाल
का जबाब मुझे तब नहीं मिला.
पर ये जबाब मुझे ६ महीने
बाद एक और सड़क दुर्घटना के समय मिला. इस बार एक डीटीसी की बस ने मेरे लाल बत्ती पर
खड़े स्कूटर को पीछे से ठोंक दिया था.तेजी से
आती बस के ड्राइवर ने ब्रेक तो लगाए थे पर बस ने रुकते रुकते भी मेरे स्कूटर को गिरा
दिया. मैं छिटक कर दूर जा गिरा और अगर हेलमेट न होता तो शायद सिर फट गया होता. मैंने पहले खुद उड़कर उठकर फिर स्कूटर को उठाया और देखा कि क्या नुक्सान हुआ
है. बैक लाइट टूट गयी थी और साइड में हल्का सा डेंट था पर स्कूटर स्टार्ट हो रहा था
जिसकी मुझे तसल्ली थी. हालाँकि कंगाली के उन
दिनों में ये छोटा सा खर्चा अखर रहा था.
तभी मैंने देखा काफी भीड़
इकठ्ठी हो गयी है और उन्होंने बस के ड्राइवर को खींच कर अपनी सीट से सड़क पर उतार लिया था. "ये डीटीसी वाले तो और गाड़ी वाले
को कुछ समझते ही नहीं है.","दिल्ली अब रहने लायक नहीं रही इन बस वालों की वजह से", "इनका दिमाग ठिकाने लगाना
चाहिए ", 'इसे
पुलिस में दे दो ","मारो साले को..", इस तरह की आवाजें वहां गूंजने लगीं . मुझे
लगा कुछ उग्र लोग शायद उस ड्राइवर को मार ही डालें.
मैं वहां गया और चीखता हुआ
बोला,"मैं ठीक हूँ, मुझे
कुछ नहीं हुआ है. मेरे ही हाथ से स्कूटर का क्लच गलती से छूट गया था,बस तो मेरे पीछे आकर रुक
गयी थी." मेरी बातें सुनकर उन लोगों ने ड्राइवर को छोड़ दिया.
अब मेरी समझ में आ रहा था
उस दिन उस बच्चे ने क्यों एक अजनबी की जान बचाने के लिए झूठ बोला होगा.
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